नि:कांक्षित: Difference between revisions
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<p> सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में दूसरा अंग । इसमें इस लोक और परलोक संबंधी भोगों की आकांक्षाओं का त्याग किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 63.314, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.64 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में दूसरा अंग । इसमें इस लोक और परलोक संबंधी भोगों की आकांक्षाओं का त्याग किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 63.314, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.64 </span></p> | ||
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Revision as of 16:54, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
- नि:कांक्षित गुण का लक्षण–।
- व्यवहार लक्षण
समयसार/230 जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु सव्वधम्मेसु। सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।230। =जो चेतयिता कर्मों के फलों के प्रति तथा (बौद्ध, चार्वाक, परिव्राजक आदि अन्य (देखें नीचे के उद्धरण ) सर्व धर्मों के प्रति कांक्षा नहीं करता है, उसको निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि कहते हैं। मू.आ./249-251 तिविहा य होइ कंखा इह परलोए तथा कुधम्मे य। तिविहं पि जो ण कुज्जा दंसणसुद्धीमुपगदो सो।249। बलदेवचक्कवट्टीसेट्ठीरायत्तणदि। अहि परलोगे देवत्तपत्थणा दंसणाभिघादी सो।250। रत्तवडचरगतावसपरिवत्तादीणमण्णतित्थीणं। धम्मह्मि य अहिलासो कुधम्मकंखा हवदि एसा।251।=अभिलाषा तीन प्रकार की होती है–इस लोक संबंधी, परलोक संबंधी, और कुधर्मों संबंधी। जो ये तीनों ही अभिलाषा नहीं करता वह सम्यग्दर्शन की शुद्धि को पाता है।249। इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती, सेठ आदि बनने या राज्य पाने की अभिलाषा इस लोक संबंधी अभिलाषा हे। परलोक में देव आदि होने की प्रार्थना करना परलोक संबंधी अभिलाषा है। ये दोनों ही दर्शन को घातने वाली हैं।250। रक्तपट अर्थात् बौद्ध, चार्वाक, तापस, परिव्राजक, आदि अन्य धर्मवालों के धर्म में अभिलाषा करना, सो कुधर्माकांक्षा है।251। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/12 ) ( राजवार्तिक/6/24/1/529/9 ) ( चारित्रसार/4/5 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/24 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/547 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/416 जो सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसहतवेहिं। मोक्खं समीहमाणो णिक्कंखा जायदे तस्स।416।=दुर्धर तप के द्वारा मोक्ष की इच्छा करता हुआ जो प्राणी स्वर्गसुख के लिए धर्म का आचरण नहीं करता है, उसके नि:कांक्षित गुण होता है। (अर्थात् सम्यग्दृष्टि मोक्ष की इच्छा से तपादि अनुष्ठान करता है न कि इंद्रियों के भोगों की इच्छा से।) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/547 )। द्रव्यसंग्रह टी./41/171/4 इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकांक्षानिदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनंतगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं ज्ञानपूजातपश्चरणादिकरणं निष्कांक्षागुण: कथ्यते। ...इति व्यवहारनिष्कांक्षितगुणो विज्ञातव्य:। =इस लोक तथा परलोक संबंधी आशारूप भोगाकांक्षानिदान के त्याग के द्वारा केवलज्ञानादि अनंतगुणों की प्रगटतारूप मोक्ष के लिए ज्ञान, पूजा, तपश्चरण इत्यादि अनुष्ठानों का जो करना है, वही निष्कांक्षित गुण है। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षित गुण का स्वरूप जानना चाहिए। - निश्चय लक्षण
द्रव्यसंग्रह टीका/41/172/6 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिष्कांक्षागुणस्य सहकारित्वेन दृष्टश्रुतानुभूतपंचेंद्रियभोगत्यागेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपारमार्थिकस्वात्मोत्थसुखामृतरसे चित्तसंतोष: स एव निष्कांक्षागुण इति। =निश्चय से उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुण की सहायता से देखे सुने तथा अनुभव किये हुए जो पाँचों इंद्रियों संबंधी भोग हैं इनके त्याग से तथा निश्चयरत्नत्रय की भावना से उत्पन्न जो पारमार्थिक निजात्मोत्थ सुखरूपी अमृत रस है, उसमें चित्त को संतोष होना निष्कांक्षागुण है।
- व्यवहार लक्षण
- क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि सर्वथा निष्कांक्ष नहीं होता
देखें अनुभाग - 4.6.3 (सम्यक्त्व प्रकृति के उदय वश वेदक सम्यग्दृष्टि की स्थिरता व निष्कांक्षता गुण का घात होता है।)
- भोगाकांक्षा के बिना भी सम्यग्दृष्टि व्रतादि क्यों करता है–देखें राग - 6।
- अभिलाषा या इच्छा का निषेध–देखें राग ।
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में दूसरा अंग । इसमें इस लोक और परलोक संबंधी भोगों की आकांक्षाओं का त्याग किया जाता है । महापुराण 63.314, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.64