व्रती: Difference between revisions
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<p> माया, निदान और मिथ्यात्व इन तीन शल्यों से रहित व्रतधारी । ये हिंसा आदि पाँचों पापों से एक देश विरत रहते हैं । इनके दो भेद हैं― सागार और अनगार । इनमें व्रतों का एक देश पालन करने वाले सागार अणुव्रती और पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करने वाले अनगार महाव्रती कहलाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 56.74-75, 76.373-376, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.134-137 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> माया, निदान और मिथ्यात्व इन तीन शल्यों से रहित व्रतधारी । ये हिंसा आदि पाँचों पापों से एक देश विरत रहते हैं । इनके दो भेद हैं― सागार और अनगार । इनमें व्रतों का एक देश पालन करने वाले सागार अणुव्रती और पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करने वाले अनगार महाव्रती कहलाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 56.74-75, 76.373-376, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.134-137 </span></p> | ||
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Revision as of 16:58, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/6/12/330/11 व्रतान्यहिंसादीनि वक्ष्यंते, तद्वंतो व्रतिनः। = अहिंसादिक व्रतों का वर्णन आगे करेंगे। (कोश में उनका वर्णन व्रत के विषय में किया जा चुका है)। जो उन व्रतों से युक्त हैं, वे व्रती कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/6/12/2/522/14 )।
- व्रती के भेद व उनके लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/7/19 अगार्यनगारश्च।19। = उस व्रती के अगारी और अनगारी ये दो भेद हैं।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/330/12 ते द्विविधाः। अगारं प्रति निवृत्तौत्सुक्याः संयताः गृहिणश्च संयतासंयताः। = वे व्रती दो प्रकार के हैं–पहले वे जो घर से निवृत्त होकर संयत हो गये हैं और दूसरे गृहस्थ संयतासंयत। ( राजवार्तिक/6/12/2/522 /51 )।
तत्त्वसार/4/19 अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते। महाव्रतानगारः स्यादगारी स्यादणुव्रतः।79। = वे व्रती अनगार और अगारी के भेद से दो प्रकार के हैं। महाव्रतधारियों को अनगार और अणुव्रतियों को अगारी कहते हैं। (विशेष देखें वह वह नाम अथवा साधु व श्रावक )।
- व्रती निःशल्य ही होता है
भगवती आराधना/1214/1213 णिस्सल्लसेव पुणो महव्वदाइं सव्वाइं। वदमुवहम्मदि तीहिं दु णिदाणमिच्छत्तमायाहिं।1214। = शल्य रहित यति के संपूर्ण माहव्रतों का संरक्षण होता है। परंतु जिन्होंने शल्यों का आश्रय लिया है, उनके व्रत माया, मिथ्या व निदान इन तीन से नष्ट हो जाते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र/7/18 निःशल्यो व्रती।18। = जो शल्य रहित है वह व्रती है। ( चारित्रसार/7/5 )।
सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/9 अत्र चोद्यते-शल्याभावान्निःशल्यो व्रताभिसंबंधाद् व्रती, न निश्शल्यत्वाद् व्रती भवितुमर्हति। न हि देवदत्तो दंडसंबंधाच्छत्री भवतीति। अत्रोच्यते-उभयविशेषणविशिष्टस्येष्टत्वात्। न हिंसाद्युपरतिमात्रव्रताभिसं-बंधाद् व्रती भवत्यंतरेण शल्याभावम्। सति शल्यापगमे व्रतसंबंधाद् व्रती विवक्षितो यथा बहुक्षीरघृतो गोमानिति व्यपदिश्यते। बहु क्षीरघृताभावात्सतीष्वपि गोषु न गोमांस्तथा सशल्यत्वात्सत्स्वपि व्रतेषु न व्रती। यस्तु निःशल्यः स व्रती। = प्रश्न–शल्य न होने से निःशल्य होता है और व्रतों के धारण करने से व्रती होता है। शल्यरहित होने से व्रती नहीं हो सकता। जैसे–देवदत्त के हाथ में लाठी होने से वह छत्री नहीं हो सकता? उत्तर–व्रती होने के लिए दोनों विशेषणों में युक्त हेाना आवश्यक है। यदि किसी ने शल्यों का त्याग नहीं किया और केवल हिंसादि दोषों को छोड़ दिया है तो वह व्रती नहीं हो सकता। यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्यों का त्याग करके व्रतों को स्वीकार किया है। जैसे जिसके यहाँ बहुत घी दूध होता है, वह गाय वाला कहा जाता है। यदि उसके घी दूध नहीं होता और गायें हैं तो वह गायवाला नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो सशल्य है, व्रतों के होने पर भी वह व्रती नहीं हो सकता। किंतु जो निःशल्य है वह व्रती है। ( राजवार्तिक/7/18/5-7/546/4 )।
ज्ञानार्णव/19/63 व्रती निःशल्य एवं स्यात्सशल्यो व्रतघातकः....।63। = व्रती तो निःशल्य ही होता है। सशल्य व्रत का घातक होता है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/277/13 )।
अमितगति श्रावकाचार/7/19 यस्यास्ति शल्यं हृदये त्रिधेयं, व्रतानि नश्यंत्यखिलानि तस्य। स्थिते शरीरं ह्यवगाह्य कांडे, जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि।19। = जिसके हृदय में तीन प्रकार की यह शल्य है उसके समस्त व्रत नाश को प्राप्त होते हैं। जैसे–मनुष्य के शरीर में बाण घुसा हो तो उसे सुख कैसे हो सकता है।19।
- सब व्रतों को एक देश धारने से व्रती होता है, मात्र एक या दो से नहीं–देखें श्रावक - 3.6।
पुराणकोष से
माया, निदान और मिथ्यात्व इन तीन शल्यों से रहित व्रतधारी । ये हिंसा आदि पाँचों पापों से एक देश विरत रहते हैं । इनके दो भेद हैं― सागार और अनगार । इनमें व्रतों का एक देश पालन करने वाले सागार अणुव्रती और पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करने वाले अनगार महाव्रती कहलाते हैं । महापुराण 56.74-75, 76.373-376, हरिवंशपुराण 58.134-137