शिवकोटि: Difference between revisions
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<li>प्रेमीजी के अनुसार यापनीय संघी दिगंबराचार्य। <span class="GRef"> भगवती आराधना/2165-2168 </span>पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि यह उस समय हुए थे जबकि जैन संघ में कुछ शिथिलाचार का प्रवेश हो चुका था। कोई-कोई साधु पात्र भी रखने लग गए थे तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परंतु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्रा हारी विशेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनंदि, शिवगुप्त, शिवकोटि, शिवार्य इनके अपर नाम हैं। यद्यपि किसी भी गुर्वावली में आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधना की उक्तगाथाओं में जिननंदि गणी, आर्य सर्वगुप्त और आर्य मित्रनंदि का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। यद्यपि आराधना कथाकोश में इन्हें आ.समंतभद्र (ई.श.2) के शिष्य कहा गया है तदपि प्रेमीजी को यह बात स्वीकार नहीं है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं.105 के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र के एक टीकाकार भी शिवकोटि हुये हैं। वही संभवत: आ.समंतभद्र के शिष्य रहे होंगे। कृति - भगवती आराधना। समय - वि.श.1। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/ </span>प्र.3/प्रेमीजी), (ती./2/122)।</li> | <li>प्रेमीजी के अनुसार यापनीय संघी दिगंबराचार्य। <span class="GRef"> भगवती आराधना/2165-2168 </span>पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि यह उस समय हुए थे जबकि जैन संघ में कुछ शिथिलाचार का प्रवेश हो चुका था। कोई-कोई साधु पात्र भी रखने लग गए थे तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परंतु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्रा हारी विशेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनंदि, शिवगुप्त, शिवकोटि, शिवार्य इनके अपर नाम हैं। यद्यपि किसी भी गुर्वावली में आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधना की उक्तगाथाओं में जिननंदि गणी, आर्य सर्वगुप्त और आर्य मित्रनंदि का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। यद्यपि आराधना कथाकोश में इन्हें आ.समंतभद्र (ई.श.2) के शिष्य कहा गया है तदपि प्रेमीजी को यह बात स्वीकार नहीं है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं.105 के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र के एक टीकाकार भी शिवकोटि हुये हैं। वही संभवत: आ.समंतभद्र के शिष्य रहे होंगे। कृति - भगवती आराधना। समय - वि.श.1। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/ </span>प्र.3/प्रेमीजी), (ती./2/122)।</li> | ||
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<p> प्रभाचंद्र आचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य । ये आचार्य भगवतीआराधना के कर्ता थे । <span class="GRef"> महापुराण 1.47-49 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> प्रभाचंद्र आचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य । ये आचार्य भगवतीआराधना के कर्ता थे । <span class="GRef"> महापुराण 1.47-49 </span></p> | ||
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Revision as of 16:58, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
- प्रेमीजी के अनुसार यापनीय संघी दिगंबराचार्य। भगवती आराधना/2165-2168 पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि यह उस समय हुए थे जबकि जैन संघ में कुछ शिथिलाचार का प्रवेश हो चुका था। कोई-कोई साधु पात्र भी रखने लग गए थे तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परंतु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्रा हारी विशेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनंदि, शिवगुप्त, शिवकोटि, शिवार्य इनके अपर नाम हैं। यद्यपि किसी भी गुर्वावली में आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधना की उक्तगाथाओं में जिननंदि गणी, आर्य सर्वगुप्त और आर्य मित्रनंदि का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। यद्यपि आराधना कथाकोश में इन्हें आ.समंतभद्र (ई.श.2) के शिष्य कहा गया है तदपि प्रेमीजी को यह बात स्वीकार नहीं है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं.105 के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र के एक टीकाकार भी शिवकोटि हुये हैं। वही संभवत: आ.समंतभद्र के शिष्य रहे होंगे। कृति - भगवती आराधना। समय - वि.श.1। ( भगवती आराधना/ प्र.3/प्रेमीजी), (ती./2/122)।
- रत्नमाला तथा तत्त्वार्थ सूत्र की टीका के रचयिता एक शिथिलाचारी आचार्य। समय - यशस्तिलक (वि.1016) के पश्चात् कभी। ( भगवती आराधना/ प्र.7-9)।
- वाराणसी के राजा थे। शैव थे। समंतभद्र आचार्य के द्वारा स्तोत्र के प्रभाव से शिवलिंग का फटना व उसमें से चंद्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा का प्रगट होना देखकर उनके शिष्य बन गये थे। पीछे उनसे ही जिन दीक्षा ले ली थी। समंतभद्र के अनुसार इनका समय ई.श.2 आता है। (प्रभाचंद्र व नेमिदत्त के कथाकोश के आधार पर भगवती आराधना/ प्र.4 प्रेमीजी)।
पुराणकोष से
प्रभाचंद्र आचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य । ये आचार्य भगवतीआराधना के कर्ता थे । महापुराण 1.47-49