शुक्लध्यानों का स्वामित्व व फल: Difference between revisions
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</span>= <span class="HindiText">स्त्री के चित्त की शुद्धि नहीं, और स्वभाव से ही शिथिल परिणाम हैं। तथा तिनके प्रति मास रुधिर का स्राव होता है, उसकी शंका बनी रहती है इसलिए | </span>= <span class="HindiText">स्त्री के चित्त की शुद्धि नहीं, और स्वभाव से ही शिथिल परिणाम हैं। तथा तिनके प्रति मास रुधिर का स्राव होता है, उसकी शंका बनी रहती है इसलिए | ||
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शुक्लध्यानों का स्वामित्व व फल
1. पृथक्त्व वितर्कवीचार का स्वामित्व
भगवती आराधना/1881 जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुव्वगद अत्थ कुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एदं सवितक्कं तेण तं झाणं।1881। = इस ध्यान के स्वामी 14 पूर्वो के ज्ञाता मुनि होते हैं। ( तत्त्वार्थसूत्र/9/37 ) ( महापुराण/21/174 )।
सर्वार्थसिद्धि/9/41/454/11 उभयेऽपि परिप्राप्तश्रुतज्ञानमिष्ठेनारभ्ये ते इत्यर्थ:। = जिसने संपूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही दो ध्यान आरंभ किये जाते हैं। ( राजवार्तिक/9/41/2/633/20 ); ( ज्ञानार्णव/42/22 )।
धवला 13/5,4,26/78/7 उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थो चोद्दस-दस-णव-पुव्वहरो पसत्थतिविहसंघडणो कसाय-कलंकत्तिण्णो तिसु जोगेसु एकजोगम्हि वट्टमाणो।
धवला 13/5,4,26/81/8 ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव...। = 1. चौदह, दस, नौ पूर्वों का धारी, प्रशस्त तीन संहननवाला, कषाय कलंक से पार को प्राप्त हुआ और तीनों योगों में किसी एक में विद्यमान ऐसा उपशांत कषाय वीतरागछद्मस्थ जीव। 2. क्षीणकषायगुणस्थान के काल में सर्वत्र एकत्व वितर्क अविचार ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। (अर्थात् वहाँ पृथक्त्व वितर्क ध्यान भी होता है। देखें शुक्लध्यान - 3.3।
चारित्रसार/206/1 चतुर्दशदशनवपूर्वधरयतिवृषभनिषेव्यमुपशांतक्षीणकषायभेदात् । = चौदह पूर्व, दशपूर्व अथवा नौ पूर्व को धारण करने वाले उत्तम मुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है और उपशांतकषाय तथा क्षीणकषाय के भेद से...?
द्रव्यसंग्रह टीका/204/1 तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्त्युपशमकसूक्ष्मसांपरायोपशमकोपशांतकषायपर्यंतगुणस्थानचतुष्टये भवति। क्षपकश्रेण्यां पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसांपरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातं। = यह प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणि की विवक्षा में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपरायउपशमक तथा उपशांतकषाय इन चार गुणस्थानों में होता है। क्षपक श्रेणिकी विवक्षा में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसांपरायक्षपक इन तीन गुणस्थानों में होता है।
2. एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान का स्वामित्व
भगवती आराधना/2099/1812 तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्ठीसु। एयत्त वितक्कावीचारं तो ज्झादि सो झाणं। = जब संज्वलन लोभ की सूक्ष्मकृष्टि हो जाती है, और क्षीणकषाय गुणस्थान प्राप्त होता है तब मुनिराज एकत्व वितर्क ध्यान को ध्याते हैं। ( ज्ञानार्णव/42/25 )।
देखें शुक्लध्यान - 3.1 में सर्वार्थसिद्धि पूर्वों के ज्ञाता को ही यह ध्यान होता है।
धवला 13/5,4,26/79/12 खीणकसाओ सुक्कलेस्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोद्दसपुव्वधरो दसपुव्वहरो णवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी खविदासेसकसायवग्गो।
धवला 13/5,4,26/81/7 उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्काविचारं। = 1. जिसके शुक्ल लेश्या है, जो निसर्ग से बलशाली है, निसर्ग से शूर है, वज्रऋषभनाराच संहनन का धारी है, किसी एक संस्थावाला है, चौदह पूर्वधारी है, दश पूर्वधारी है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि है और जिसने समस्त कषाय वर्ग का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही समस्त कषायों का क्षय करता है। 2. उपशांत कषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है।
चारित्रसार/206 पूर्वोक्तक्षीणकषायावशिष्टकालभूमिकम् ...। = पहिले कहे हुए क्षीणकषाय के समय से बाकी बचे हुए समय में यह दूसरा शुक्लध्यान होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/48/204/7 क्षीणकषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं। = दूसरा शुक्लध्यान क्षीणकषाय गुणस्थान में ही संभव है।
3. उपशांत कषाय में एकत्ववितर्क कैसे
धवला 13/5,4,26/81/7 उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्कवीचारसंते ‘उवसंतो दु पुधत्तं’ इच्चेदेण विरोहो होदि त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ पुधत्तमेवे त्ति णियमाभावादो। ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव, जोगपरावत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिबलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो। = प्रश्न-यदि उपशांत कषाय गुणस्थान में एकत्व वितर्क वीचार ध्यान होता है तो ‘उवसंतो दु पुधत्तं’ इत्यादि गाथा वचन के साथ विरोध आता है ? उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपशांत कषाय गुणस्थान में केवल पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। और क्षीणकषाय गुणस्थान काल में सर्वत्र एकत्व अवितर्क ध्यान ही होता है, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ योग परावत्ति का कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय काल के प्रारंभ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान का अस्तित्व भी सिद्ध होता है।
4. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती व समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र/9/38,40 परे केवलिन:।38। ...योगायोगानाम् ।40।
सर्वार्थसिद्धि/9/40/454/7 काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति। = काययोग वाले केवलि के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगी केवली के व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान होता है। ( सर्वार्थसिद्धि 9/38/453/9 ); ( राजवार्तिक/9/38,40/1,2/8,21 )।
देखें शुक्लध्यान - 1.7,8 सयोगकेवली गुणस्थान के अंतिम अंतर्मुहूर्त काल में जब भगवान् स्थूल योगों का निरोध करके सूक्ष्म काययोग में प्रवेश करते हैं तब उनको सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नाम का तीसरा शुक्लध्यान होता है। और अयोग केवली गुणस्थान में योगों का पूर्ण निरोध हो जाने पर समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नाम का चौथा शुक्लध्यान होता है।
5. स्त्री को शुक्लध्यान संभव नहीं
सूत्रपाहुड़/26 चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण। विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा।26। = स्त्री के चित्त की शुद्धि नहीं, और स्वभाव से ही शिथिल परिणाम हैं। तथा तिनके प्रति मास रुधिर का स्राव होता है, उसकी शंका बनी रहती है इसलिए स्त्री के ध्यान की सिद्धि नहीं है।26।
6. चारों ध्यानों का फल
1. पृथक्त्व वितर्क वीचार
धवला 13/5,4,26/79/1 एवं संवर-णिज्जरामरसुहफलं एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलंभादो। = इस प्रकार इस ध्यान के फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती।
चारित्रसार/206/2 स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीयमिति। = यह ध्यान स्वर्ग और मोक्ष के सुख को देने वाला है।
देखें धर्मध्यान - 3.5.2 मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना होने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्व वितर्कविचार नामक शुक्लध्यान का फल है।
ज्ञानार्णव/42/20 अस्याचिंत्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स प्रशांतधी:। मोहमुनमूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे।20। = इस अचिंत्य प्रभाव वाले ध्यान के सामर्थ्य से जिसका चित्त शांत हो गया है, ऐसा ध्यानी मुनि क्षण भर में मोहनीय कर्म का मूल से नाश करता है अथवा उसका उपशम करता है।20।
2. एकत्व वितर्क अवीचार
देखें धर्मध्यान - 3.5.2 तीन घाती कर्मों का नाश करना एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यान का फल है।
3. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती
धवला 13/5,4,26/ गा.74,75/86,87 तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहादि कमेण तहा जोगजलं ज्झाणजलणेण।74। तह बादरतणुविसयं जोगविसं ज्झाणमंतबलजुत्तो। अणुभावम्मि णिरुंभदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो।76। = जिस प्रकार नाली द्वारा जल का क्रमश: अभाव होता है या तपे हुए लोहे के पात्र में क्रमश: जल का अभाव होता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा योगरूपी जल का क्रमश: नाश होता है।74। ध्यानरूपी मंत्र के बल से युक्त हुआ वह सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योग विष को पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है।76।
4. सम्मुच्छिन क्रिया निवृत्ति
धवला 13/5,4,26/88/1 सेलेसियअद्धाए ज्झीणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छदि। = शैलेशी अवस्था के काल के क्षीण होने पर सब कर्मों से मुक्त हुआ यह जीव एक समय में सिद्धि को प्राप्त होता है।