आदित्याभ: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) धातकीखंड द्वीप के पूर्वभाग में मेरु पर्वत से पूर्व की ओर स्थित पुष्कलावती देश में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर । <span class="GRef"> महापुराण 62.361 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) धातकीखंड द्वीप के पूर्वभाग में मेरु पर्वत से पूर्व की ओर स्थित पुष्कलावती देश में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर । <span class="GRef"> महापुराण 62.361 </span></p> | ||
<p id="2">(2) लांतव स्वर्ग का एक देव । पूर्वभव में यह वीतभय नाम का बलभद्र था । अपने भाई मुनि संजयंत पर उपसर्ग करने वाले विद्युद्दंष्ट को धरणेंद्र ने समुद्र मे गिराना चाहा था किंतु यह देव उसे समझाकर विद्युद्दंष्ट्र को धरणेंद्र से | <p id="2">(2) लांतव स्वर्ग का एक देव । पूर्वभव में यह वीतभय नाम का बलभद्र था । अपने भाई मुनि संजयंत पर उपसर्ग करने वाले विद्युद्दंष्ट को धरणेंद्र ने समुद्र मे गिराना चाहा था किंतु यह देव उसे समझाकर विद्युद्दंष्ट्र को धरणेंद्र से छुड़ा लाया था । <span class="GRef"> महापुराण 59. 128-141, 280-281, 296-300, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.111-114 </span>अंत में यह देव स्वर्ग से च्युत होकर उत्तरमथुरा नगरी के राजा अनंतवीर्य और उसकी मेरुमालिनी रानी के मेरु नाम का पुत्र हुआ । इस भव में इसने विमलवाहन तीर्थंकर के पास जाकर पूर्वभव के संबंध सुने और उन्हीं से दीक्षित होकर उनका गणधर हुआ । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 59.302-304 </span></p> | ||
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Revision as of 09:35, 7 August 2022
(1) धातकीखंड द्वीप के पूर्वभाग में मेरु पर्वत से पूर्व की ओर स्थित पुष्कलावती देश में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर । महापुराण 62.361
(2) लांतव स्वर्ग का एक देव । पूर्वभव में यह वीतभय नाम का बलभद्र था । अपने भाई मुनि संजयंत पर उपसर्ग करने वाले विद्युद्दंष्ट को धरणेंद्र ने समुद्र मे गिराना चाहा था किंतु यह देव उसे समझाकर विद्युद्दंष्ट्र को धरणेंद्र से छुड़ा लाया था । महापुराण 59. 128-141, 280-281, 296-300, हरिवंशपुराण 27.111-114 अंत में यह देव स्वर्ग से च्युत होकर उत्तरमथुरा नगरी के राजा अनंतवीर्य और उसकी मेरुमालिनी रानी के मेरु नाम का पुत्र हुआ । इस भव में इसने विमलवाहन तीर्थंकर के पास जाकर पूर्वभव के संबंध सुने और उन्हीं से दीक्षित होकर उनका गणधर हुआ । हरिवंशपुराण 59.302-304