महाव्रत: Difference between revisions
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देखें [[ व्रत ]]। | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/2 </span><span class="SanskritText">देशसर्वतोऽणुमहती।2। </span>= <span class="HindiText">हिंसादिक से एक देश निवृत्त होना अणुव्रत और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/52, 72 </span><span class="SanskritGatha"> प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।52। पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचकायैः । कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतां।72।</span> = <span class="HindiText">हिंसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील) और मूर्च्छा अर्थात् परिग्रह इन पाँच स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।52। हिंसादिक पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है।53। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/720-721 </span><span class="SanskritGatha">तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात्। देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम्।720। सर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत्। नैतत्सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिंगमर्हताम्।721। </span>= <span class="HindiText">सागर व अनागार दोनों प्रकार के धर्मों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और संपूर्ण परिग्रह से एक देश विरक्त होना गृहस्थों का अणुव्रत कहा गया है।720। उन्हीं हिंसादिक पाँच पापों का सर्वदेश से त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिंग गृहस्थों के द्वारा नहीं पाला जा सकता।721। <br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1184/1170 </span><span class="PrakritGatha"> साधेंति जं महत्थं आयरिइदा च जं महल्लेहिं। जं च महल्लाइं सयं हव्वदाइं हवे ताइं।1184। </span>=<span class="HindiText"> महान् मोक्षरूप अर्थ की सिद्धि करते हैं। महान् तीर्थंकरादि पुरुषों ने इनका पालन किया है, सब पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिए इनका नाम महाव्रत है।1184। (मू.आ./294); (<span class="GRef"> चारित्तपाहुड़/ </span>मू./31)। <br /> | |||
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<div class="HindiText"> <p> महाव्रतियों का एक आचार धर्म । इस व्रत में हिंसा, शुरू, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप से त्याग करके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का निरतिचार पूर्ण रूप से पालन किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.3-4, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 4.48, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2, 117-121, 18.43 </span></p> | <div class="HindiText"> <p>(1) महाव्रतियों का एक आचार धर्म । इस व्रत में हिंसा, शुरू, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप से त्याग करके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का निरतिचार पूर्ण रूप से पालन किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.3-4, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 4.48, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2, 117-121, 18.43 </span></p> | ||
<p id="2">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.162 </span></p> | <p id="2">(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.162 </span></p> | ||
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Revision as of 09:26, 6 January 2023
सिद्धांतकोष से
तत्त्वार्थसूत्र/7/2 देशसर्वतोऽणुमहती।2। = हिंसादिक से एक देश निवृत्त होना अणुव्रत और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है।
रत्नकरंड श्रावकाचार/52, 72 प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।52। पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचकायैः । कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतां।72। = हिंसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील) और मूर्च्छा अर्थात् परिग्रह इन पाँच स्थूल पापों से विरक्त होना अणुव्रत है।52। हिंसादिक पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है।53।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/720-721 तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात्। देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम्।720। सर्वतो विरतिस्तेषां हिंसादीनां व्रतं महत्। नैतत्सागारिभिः कर्तुं शक्यते लिंगमर्हताम्।721। = सागर व अनागार दोनों प्रकार के धर्मों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और संपूर्ण परिग्रह से एक देश विरक्त होना गृहस्थों का अणुव्रत कहा गया है।720। उन्हीं हिंसादिक पाँच पापों का सर्वदेश से त्याग करना महाव्रत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिंग गृहस्थों के द्वारा नहीं पाला जा सकता।721।
भगवती आराधना/1184/1170 साधेंति जं महत्थं आयरिइदा च जं महल्लेहिं। जं च महल्लाइं सयं हव्वदाइं हवे ताइं।1184। = महान् मोक्षरूप अर्थ की सिद्धि करते हैं। महान् तीर्थंकरादि पुरुषों ने इनका पालन किया है, सब पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिए इनका नाम महाव्रत है।1184। (मू.आ./294); ( चारित्तपाहुड़/ मू./31)।
पुराणकोष से
(1) महाव्रतियों का एक आचार धर्म । इस व्रत में हिंसा, शुरू, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों का सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप से त्याग करके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का निरतिचार पूर्ण रूप से पालन किया जाता है । महापुराण 39.3-4, पद्मपुराण 4.48, हरिवंशपुराण 2, 117-121, 18.43
(2) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.162