श्रीविजय: Difference between revisions
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Revision as of 15:49, 2 October 2022
सिद्धांतकोष से
महापुराण/61/ श्लोक त्रिपृष्ठ नारायण का पुत्र था (153)। एक बार राज्य सिंहासन पर वज्रपात गिरने की भविष्यवाणी सुनकर (172-173) सिंहासन पर स्फटिक मणि की प्रतिमा विराजमान कर दी। और स्वयं चैत्यालय में जाकर शांति विधान करने लगा। (219-221)। फिर सातवें दिन वज्रपात यक्षमूर्ति पर पड़ा (222)। एक समय इनकी स्त्री को अशनिघोष विद्याधर उठाकर ले गया और स्वयं सुतारा का वेष बनाकर बैठ गया (233-234) तथा बहाना किया कि मुझे सर्प ने डस लिया, तब राजा ने चिता की तैयारी की (235-237)। इसके साले अमिततेज के आश्रित राजा संभिन्न ठीक-ठीक वृत्तांत जान (238-246) अशनिघोष के साथ युद्ध किया (68-80)। अंत में शत्रु समवशरण में चला गया, तब वहीं पर इन्होंने अपनी स्त्री को प्राप्त किया (284-285)। अंत में समाधिमरण कर तेरहवें स्वर्ग में मणिचूल नामक देव हुआ (410-411)। यह शांतिनाथ भगवान् के प्रथम गणधर चक्रायुध का पूर्व का 10वाँ भव है। - देखें चक्रायुध ।
पुराणकोष से
तीर्थंकर शांतिनाथ के प्रथम गणधर चक्रायुध के दसवें पूर्वभव का जीव-प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ और रानी स्वयंप्रभा का ज्येष्ठ पुत्र । विजयभद्र इसका भाई और ज्योति: प्रभा बहिन थी । स्वयंवर में इसकी बहिन ज्योति:प्रभा ने इसके साले अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज को वरा था तथा अमिततेज की बहिन सुतारा ने इसका वरण किया था । अपने ऊपर किसी निमित्तज्ञानी से वज्रपात होने की भविष्यवाणी सुनकर यह सिंहासन पर एक यक्ष की प्रतिमा विराजमान कर जिनचैत्यालय में शांतिकर्म करने लगा था । सातवें दिन यक्ष की मूर्ति पर वज्रपात हुआ और इसका संकट टल गया । चमरचंचपुर के राजा इंद्राशनि के पुत्र अशनिघोष विद्याधर ने कृत्रिम हरिण के छल से इसे सुतारा के पास से हटाकर तथा अपना श्रीविजय का रूप बनाकर सुतारा का हरण किया था । अशनिघोष ने वैताली विद्या को सुतारा का रूप धारण कराकर सुतारा के स्थान में बैठा दिया था । कृत्रिम सुतारा से छलपूर्वक सर्प के द्वारा डसे जाने के समाचार ज्ञात कर इसने भी सुतारा के साथ जल जाने का उद्यम किया था, किंतु विच्छेदिनी विद्या से किसी विद्याधर ने वैताल विद्या को पराजित कर कृत्रिम सुतारा का रहस्य प्रकट कर दिया था । अशनिधोष विद्याधर के इस प्रपंच को अमिततेज के आश्रित राजा संभिन्न से ज्ञातकर इसने उससे युद्ध किया । अंत में अशनिघोष युद्ध से भागकर विजय मुनि के समवसरण में जा छिपा । पीछा करते हुए समवसरण में पहुँचने पर यह भी सभी बैर भूल गया । इसे यहाँ सुतारा मिल गयी थी । इसने नारायण पद पाने का निदान किया था । अंत में श्रीदत्त पुत्र को राज्य देकर और समाधिमरण पूर्वक देह त्याग कर यह तेरहवें स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल देव हुआ । महापुराण 62. 153-285, 407, 411, पांडवपुराण 4.86-191, 241-245