रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 35: Difference between revisions
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<p style="text-align: justify;"><strong>सम्यग्दृष्टि के दरिद्रता की अप्राप्ति</strong>―जिसके सम्यग्दर्शन हो,सम्यक्त्व में मरण हो तो आगे भव में जब उत्पन्न होगा,तो संपन्न घर में उत्पन्न होगा,और कोई दरिद्र घर में हो,वहाँ सम्यग्दर्शन हो जाय तो दरिद्रता वहाँ नहीं रहती । दरिद्रता कहते किसे हैं,और धनवान होना कहते किसे हैं? आप उसकी कोई सीमा रख सकते हैं क्या? बताओ कितना धन हो तो धनिक कहलाये? सारे विश्व के धनिक लोग एक गोष्ठी करके यह निर्णय तो दे दें कि कितना धन हो जाये तो धनिक कहलाये । तो धनिक कहलानेकी कोई सीमा नहीं होती । एक हजारपति लखपति के आगे अपने की निर्धन अनुभव करता,लखपति करोड़पति के आगे अपने को निर्धन अनुभव करता...,यों अपने से अधिक धनिकों के आगे लोग अपने को गरीब अनुभव करते है । यह धन वैभव कितना ही हो जाय पर इससे अपना बड़प्पन न मानिये । सबसे बड़ा धन तो है संतोष धन । चाहे कैसी ही स्थिति हो,यदि संतोष धन है तो सब कुछ है,नहीं तो कुछ नहीं है । क्या साधारण स्थिति वाले लोगो का गुजारा नहीं होता? क्या वे नहीं खाते पीते पहिनते ओढ़ते? अरे उनका भी सब गुजारा चल रहा है । साधारण रोटी कपड़े के गुजारे के लिए कोई अधिक परिश्रम करने की जरूरत नहीं । अधिक परिश्रम करके धन का संचय तो लोग इस पर्यायबुद्धि के कारण करते है । मैं दुनिया में बड़ा कहलाऊं सेठ साहूकार कहलाऊँ...,सेठ का अर्थ है श्रेष्ठ पर रूढ़ि हो गई सेठ शब्द बोलने की । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष जब अपना ही प्रकाश पाये हुए है,उसे किसी भी पर पदार्थ के प्रति आशा का भाव नहीं रहा,फिर उसके लिए दरिद्रता क्या है? आत्मानुशासन में बताया है कि निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेथ हिजीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता । निर्धनता को जिसने धन समझा याने मुनि महाराज,परिग्रह ही कोई धन नहीं,उस निर्धनता को ही अपना धन समझ रहे,संतोष है ना उन्हें,मृत्यु ही जिनके लिए जीवन बन गया,आत्मस्वरूप को समझने वाले पुरुष को मृत्यु क्या चीज हैं? जैसे कहीं बैठे हुए किसी पुरुष से कहा गया कि आप यहाँ बैठ जाइये,तो वहाँ से उठकर वह वहाँ बैठ गया,बताओ इससे उस पुरुष का क्या घट गया? ऐसे ही यह आत्मा अभी इस मनुष्य भव में है,इस शरीर में न रहा अन्य नये शरीर के स्थान में पहुँच गया तो इस आत्मा का क्या घट गया? कुछ भी नहीं घटा । ज्ञानी पुरुष के लिए मृत्यु-मृत्यु नहीं है,वह तो उसके लिए नया जीवन है । तो ऐसे जीव का कर्म अब क्या कर लेंगे? कर्म अधिक से अधिक दो खोटी बातें कर सकते थे कि निर्धन बना दें या मरण करा दें,पर जो मरण में प्रसन्न हैं,निर्धनता में प्रसन्न हैं,उन पर कर्म अपना क्या प्रभाव बनायेंगे? तौ ऐसी दरिद्रता की बात कही जा रही है कि जो अपने स्वभाव को देखकर परमात्मस्वरूप की तरह मान रहा,ज्ञानानंद से संपन्न समझ रहा उसे कैसे दरिद्र कहा जा सकता? जिसको अपने ज्ञानानंदसंपंन आत्माकी सुध नहीं वह करोड़पति हो तो भी दरिद्र है और जिसको अपने ज्ञानानंदस्वभाव की सुध है वह कैसी ही अवस्था में हो तो भी संपन्न है । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष ऐसी दुर्दशावों में जन्म नहीं लेता ।</p> | <p style="text-align: justify;"><strong>सम्यग्दृष्टि के दरिद्रता की अप्राप्ति</strong>―जिसके सम्यग्दर्शन हो,सम्यक्त्व में मरण हो तो आगे भव में जब उत्पन्न होगा,तो संपन्न घर में उत्पन्न होगा,और कोई दरिद्र घर में हो,वहाँ सम्यग्दर्शन हो जाय तो दरिद्रता वहाँ नहीं रहती । दरिद्रता कहते किसे हैं,और धनवान होना कहते किसे हैं? आप उसकी कोई सीमा रख सकते हैं क्या? बताओ कितना धन हो तो धनिक कहलाये? सारे विश्व के धनिक लोग एक गोष्ठी करके यह निर्णय तो दे दें कि कितना धन हो जाये तो धनिक कहलाये । तो धनिक कहलानेकी कोई सीमा नहीं होती । एक हजारपति लखपति के आगे अपने की निर्धन अनुभव करता,लखपति करोड़पति के आगे अपने को निर्धन अनुभव करता...,यों अपने से अधिक धनिकों के आगे लोग अपने को गरीब अनुभव करते है । यह धन वैभव कितना ही हो जाय पर इससे अपना बड़प्पन न मानिये । सबसे बड़ा धन तो है संतोष धन । चाहे कैसी ही स्थिति हो,यदि संतोष धन है तो सब कुछ है,नहीं तो कुछ नहीं है । क्या साधारण स्थिति वाले लोगो का गुजारा नहीं होता? क्या वे नहीं खाते पीते पहिनते ओढ़ते? अरे उनका भी सब गुजारा चल रहा है । साधारण रोटी कपड़े के गुजारे के लिए कोई अधिक परिश्रम करने की जरूरत नहीं । अधिक परिश्रम करके धन का संचय तो लोग इस पर्यायबुद्धि के कारण करते है । मैं दुनिया में बड़ा कहलाऊं सेठ साहूकार कहलाऊँ...,सेठ का अर्थ है श्रेष्ठ पर रूढ़ि हो गई सेठ शब्द बोलने की । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष जब अपना ही प्रकाश पाये हुए है,उसे किसी भी पर पदार्थ के प्रति आशा का भाव नहीं रहा,फिर उसके लिए दरिद्रता क्या है? आत्मानुशासन में बताया है कि निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेथ हिजीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता । निर्धनता को जिसने धन समझा याने मुनि महाराज,परिग्रह ही कोई धन नहीं,उस निर्धनता को ही अपना धन समझ रहे,संतोष है ना उन्हें,मृत्यु ही जिनके लिए जीवन बन गया,आत्मस्वरूप को समझने वाले पुरुष को मृत्यु क्या चीज हैं? जैसे कहीं बैठे हुए किसी पुरुष से कहा गया कि आप यहाँ बैठ जाइये,तो वहाँ से उठकर वह वहाँ बैठ गया,बताओ इससे उस पुरुष का क्या घट गया? ऐसे ही यह आत्मा अभी इस मनुष्य भव में है,इस शरीर में न रहा अन्य नये शरीर के स्थान में पहुँच गया तो इस आत्मा का क्या घट गया? कुछ भी नहीं घटा । ज्ञानी पुरुष के लिए मृत्यु-मृत्यु नहीं है,वह तो उसके लिए नया जीवन है । तो ऐसे जीव का कर्म अब क्या कर लेंगे? कर्म अधिक से अधिक दो खोटी बातें कर सकते थे कि निर्धन बना दें या मरण करा दें,पर जो मरण में प्रसन्न हैं,निर्धनता में प्रसन्न हैं,उन पर कर्म अपना क्या प्रभाव बनायेंगे? तौ ऐसी दरिद्रता की बात कही जा रही है कि जो अपने स्वभाव को देखकर परमात्मस्वरूप की तरह मान रहा,ज्ञानानंद से संपन्न समझ रहा उसे कैसे दरिद्र कहा जा सकता? जिसको अपने ज्ञानानंदसंपंन आत्माकी सुध नहीं वह करोड़पति हो तो भी दरिद्र है और जिसको अपने ज्ञानानंदस्वभाव की सुध है वह कैसी ही अवस्था में हो तो भी संपन्न है । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष ऐसी दुर्दशावों में जन्म नहीं लेता ।</p> | ||
<p style="text-align: justify;"><strong>अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के संवृत 41 प्रकृतियों में मिथ्यात्वप्रत्ययक 16 प्रकृतियों का नाम निर्देश</strong>―सम्यग्दृष्टि पुरुषचाहेव्रतरहित भी हो याने अविरत सम्यग्दृष्टि है उसके भी41 कर्म प्रकृतियों को बंध नहीं होता । उन 41 प्रकृतियों में कुछ तो है मिथ्यात्व के कारण बनने वाले और कुछ हैं अनंतानुबंधी कषाय के कारण बनने वाले । सम्यग्दृष्टि पुरुष के न मिथ्यात्व का उदय है न अनंतानुबंधी कषाय का उदय है इस कारण इन प्रकृतियों की वजह से बनने वाली कर्म प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता । वे प्रकृतियाँ कौन हैं जो मिथ्यात्वप्रकृति के कारण बंधतीहैं? मिथ्यात्व । मिथ्यात्व प्रकृति का बंध मिथ्यात्व के उदय से ही संभव है । जब मिथ्यात्व का उदय नहीं रहतातो मिथ्यात्व प्रकृतिकाबंध नहीं होता । इस संबंध में एक बात और समझ लीजिए कि जिस प्रकृतिका, आगे उदय न आ सकेगा उसके बंध की जरूरत क्या है? वेप्रकृतियाँ प्राय: नहीं बंधती । मिथ्यात्व के उदयमें ही हुंडक संस्थान का बँध होता है । हुंडक संस्थान छठा संस्थान है । कीड़ा मकोड़ा एकेंद्रिय पशु पक्षी इनमें हुंडक संस्थान ही तो पाया जाता है । इससे शरीर का आकार सुंदर नहीं रहता,विडरूप रहता है । कैसा ही कितना फैला हो,कैसी शाखायें बन रही,कैसे लंबे-लंबे केंचुवे कैसा विडरूप आकार रहता है तो हुंडक संस्थान के उदय में खोटा आकार रहता है । तो मिथ्यात्व प्रकृति के न रहनेपर इसके हुंडक संस्थान नहीं रहता । नपुंसकवेद यह बहुत खोटा वेद है इसमें बड़ा खोटा भाव होता है । नपुंसक वेद मिथ्यात्व के उदय में होता है । मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व नहीं है इसलिए नपुंसक वेद का संवर है । उसके यह कर्मप्रकृति नहीं बंधती । असृपाटिका संहनन छठा संहनन है । यह हम आपके मौजूद है पंचमकाल में,और जो पशु पक्षी हैं उनके भी यह संहनन चल रहा है । यह संहनन बहुत दुर्बल संहनन है । थोड़ा सा भी झिटका लग जाय तो कहो शरीर की हड्डी टूट जाय । वह मिथ्यात्व के उदय में ही बंधता है । जिन जीवों के मिथ्यात्व का उदय नहीं उनके ऐसा संहनन नहीं बनता । एकेंद्रिय,स्थावर,आतप,सूक्ष्मपना,अपर्याप्त,दो इंद्रिय,तीन इंद्रिय,चार इंद्रिय इन साधारण,प्रकृतियों का संवर सम्यग्दृष्टि के होता है । इससे यह भी जानें कि सम्यग्दृष्टि पुरुष इन जगहों में उत्पन्न नहीं होता । उदय ही न आयगा । तो ऐसे सम्यग्दृष्टि के एकेंद्रिय,दोइंद्रिय आदिक प्रकृतियों का संवर चलता है । नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु आदिक का बंध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व नहीं है सो इन प्रकृतियों का संवर होता है । कर्म 8 बताये गए है और विनतियों में लोग सुनते हैं,उन 8 कर्मों के और भेद होने से 148 कर्म प्रकृतियां हो जाती हैं । जीव के साथ ये प्रकृतियां बंधी रहती है । उनका उदय होता है और जीव को अनेक प्रकार की वेदनायें होने लगती है । विकार हो जाते हैं । तो ये प्रकृतियाँ तो हम लोगों के संसार संकट का कारण है,इनका क्षय हो तो मुक्ति मिले । तो इन कर्मों का क्षय हो,कर्मों का क्षय हो,ऐसी माला जपने से या मंत्र आदिक बोलने से या इनकी चर्चा करने से कर्मों का क्षय न होगा किंतु आत्मा का अविकार स्वभाव यह मैं हूँ चैतन्यमात्र हूँ मैं अन्य कुछ नहीं हूं,इस प्रकार की अनुभूति के बल से कर्मो का क्षय अपने आप होता है ।</p> | <p style="text-align: justify;"><strong>अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के संवृत 41 प्रकृतियों में मिथ्यात्वप्रत्ययक 16 प्रकृतियों का नाम निर्देश</strong>―सम्यग्दृष्टि पुरुषचाहेव्रतरहित भी हो याने अविरत सम्यग्दृष्टि है उसके भी41 कर्म प्रकृतियों को बंध नहीं होता । उन 41 प्रकृतियों में कुछ तो है मिथ्यात्व के कारण बनने वाले और कुछ हैं अनंतानुबंधी कषाय के कारण बनने वाले । सम्यग्दृष्टि पुरुष के न मिथ्यात्व का उदय है न अनंतानुबंधी कषाय का उदय है इस कारण इन प्रकृतियों की वजह से बनने वाली कर्म प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता । वे प्रकृतियाँ कौन हैं जो मिथ्यात्वप्रकृति के कारण बंधतीहैं? मिथ्यात्व । मिथ्यात्व प्रकृति का बंध मिथ्यात्व के उदय से ही संभव है । जब मिथ्यात्व का उदय नहीं रहतातो मिथ्यात्व प्रकृतिकाबंध नहीं होता । इस संबंध में एक बात और समझ लीजिए कि जिस प्रकृतिका, आगे उदय न आ सकेगा उसके बंध की जरूरत क्या है? वेप्रकृतियाँ प्राय: नहीं बंधती । मिथ्यात्व के उदयमें ही हुंडक संस्थान का बँध होता है । हुंडक संस्थान छठा संस्थान है । कीड़ा मकोड़ा एकेंद्रिय पशु पक्षी इनमें हुंडक संस्थान ही तो पाया जाता है । इससे शरीर का आकार सुंदर नहीं रहता,विडरूप रहता है । कैसा ही कितना फैला हो,कैसी शाखायें बन रही,कैसे लंबे-लंबे केंचुवे कैसा विडरूप आकार रहता है तो हुंडक संस्थान के उदय में खोटा आकार रहता है । तो मिथ्यात्व प्रकृति के न रहनेपर इसके हुंडक संस्थान नहीं रहता । नपुंसकवेद यह बहुत खोटा वेद है इसमें बड़ा खोटा भाव होता है । नपुंसक वेद मिथ्यात्व के उदय में होता है । मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व नहीं है इसलिए नपुंसक वेद का संवर है । उसके यह कर्मप्रकृति नहीं बंधती । असृपाटिका संहनन छठा संहनन है । यह हम आपके मौजूद है पंचमकाल में,और जो पशु पक्षी हैं उनके भी यह संहनन चल रहा है । यह संहनन बहुत दुर्बल संहनन है । थोड़ा सा भी झिटका लग जाय तो कहो शरीर की हड्डी टूट जाय । वह मिथ्यात्व के उदय में ही बंधता है । जिन जीवों के मिथ्यात्व का उदय नहीं उनके ऐसा संहनन नहीं बनता । एकेंद्रिय,स्थावर,आतप,सूक्ष्मपना,अपर्याप्त,दो इंद्रिय,तीन इंद्रिय,चार इंद्रिय इन साधारण,प्रकृतियों का संवर सम्यग्दृष्टि के होता है । इससे यह भी जानें कि सम्यग्दृष्टि पुरुष इन जगहों में उत्पन्न नहीं होता । उदय ही न आयगा । तो ऐसे सम्यग्दृष्टि के एकेंद्रिय,दोइंद्रिय आदिक प्रकृतियों का संवर चलता है । नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु आदिक का बंध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व नहीं है सो इन प्रकृतियों का संवर होता है । कर्म 8 बताये गए है और विनतियों में लोग सुनते हैं,उन 8 कर्मों के और भेद होने से 148 कर्म प्रकृतियां हो जाती हैं । जीव के साथ ये प्रकृतियां बंधी रहती है । उनका उदय होता है और जीव को अनेक प्रकार की वेदनायें होने लगती है । विकार हो जाते हैं । तो ये प्रकृतियाँ तो हम लोगों के संसार संकट का कारण है,इनका क्षय हो तो मुक्ति मिले । तो इन कर्मों का क्षय हो,कर्मों का क्षय हो,ऐसी माला जपने से या मंत्र आदिक बोलने से या इनकी चर्चा करने से कर्मों का क्षय न होगा किंतु आत्मा का अविकार स्वभाव यह मैं हूँ चैतन्यमात्र हूँ मैं अन्य कुछ नहीं हूं,इस प्रकार की अनुभूति के बल से कर्मो का क्षय अपने आप होता है ।</p> | ||
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<p style="text-align: justify;"><strong>अविरत सम्यग्दृष्टि के संवृत 41 प्रकृतियों में अनंतानुबंधीकषाय प्रत्ययक 25 प्रकृतियों का नाम निर्देश</strong>―सम्यग्दृष्टि जीव के उक्त 16 प्रकृतियों का संवर है और अनंतानुबंधी कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का बंध होता है उनका भी संवर है । वे प्रकृतियों कौन हैं? तो अनंतानुबंधी क्रोध,मान,माया,लोभ जहाँ अनंतानुबंधी कषाय न रही ज्ञानी पुरुष के उसके यह कषाय क्यों बंधेगी? स्त्यानगृद्धि ,निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला ये तीन नींद की खोटी प्रकृतियाँ हैं । नींद आनेपर भी नींद आती रहे,इसकी प्रकृति से बहुत तेज नींद आये वह निद्रा निद्रा है । नींद में ही लार बहे,अनेक प्रकार की जहाँ अंग की चेष्टायें होती रहे यह प्रचला प्रचला है । सोते हुए में कोई बड़ा काम कर आये,काम करके फिर सो गए और जगनेपर उसका कुछ ख्याल ही न रहे । जो किया सोते में किया,जगनेपर उस किए हुए का कुछ पता ही न रहे,यह स्त्यानगृद्धि है । बचपन में हमारे एक साथीने बताया था―जब हम सागर विद्यालय में पढ़ते थे तब की बात है तो उस साथीने मेरे से बताया कि आज रात्रि को तुम 12 बजे के करीब उठकर मंदिर के द्वार तक जाकर मंदिर के किवाड़ खटखटा रहे थे । पूछा कि रात्रि में तुम क्यों गए थे? तो मैने कहा―कहा मैं गया था,मुझे तो कुछ नहीं मालूम । तो ऐसी स्थिति बन जाती है स्त्यानगृद्धि में । मे नींद की तीन खोटी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि पुरुष के नहीं होतीं । इनका संवर होता है । और भी जो खोटी प्रकृतियां हैं―दुर्भग,दु:स्वर,अनादेय,न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान,स्वातिसंस्थान,कुब्बज संस्थान,वामनसंस्थान,वज्रनाराचसंहनन,नाराच संहनन,अर्द्धनाराचसंहनन,कीलकसंहनन,अप्रशस्तविहायोगति,स्त्रीपना,नीचगोत्र,तिर्यग्गति,तिर्यग्गत्यानुपूर्वी,तिर्यंचआयु,उद्योत इनका भी सम्यग्दृष्टि पुरुष के संवर होता है ।</p> | <p style="text-align: justify;"><strong>अविरत सम्यग्दृष्टि के संवृत 41 प्रकृतियों में अनंतानुबंधीकषाय प्रत्ययक 25 प्रकृतियों का नाम निर्देश</strong>―सम्यग्दृष्टि जीव के उक्त 16 प्रकृतियों का संवर है और अनंतानुबंधी कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का बंध होता है उनका भी संवर है । वे प्रकृतियों कौन हैं? तो अनंतानुबंधी क्रोध,मान,माया,लोभ जहाँ अनंतानुबंधी कषाय न रही ज्ञानी पुरुष के उसके यह कषाय क्यों बंधेगी? स्त्यानगृद्धि ,निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला ये तीन नींद की खोटी प्रकृतियाँ हैं । नींद आनेपर भी नींद आती रहे,इसकी प्रकृति से बहुत तेज नींद आये वह निद्रा निद्रा है । नींद में ही लार बहे,अनेक प्रकार की जहाँ अंग की चेष्टायें होती रहे यह प्रचला प्रचला है । सोते हुए में कोई बड़ा काम कर आये,काम करके फिर सो गए और जगनेपर उसका कुछ ख्याल ही न रहे । जो किया सोते में किया,जगनेपर उस किए हुए का कुछ पता ही न रहे,यह स्त्यानगृद्धि है । बचपन में हमारे एक साथीने बताया था―जब हम सागर विद्यालय में पढ़ते थे तब की बात है तो उस साथीने मेरे से बताया कि आज रात्रि को तुम 12 बजे के करीब उठकर मंदिर के द्वार तक जाकर मंदिर के किवाड़ खटखटा रहे थे । पूछा कि रात्रि में तुम क्यों गए थे? तो मैने कहा―कहा मैं गया था,मुझे तो कुछ नहीं मालूम । तो ऐसी स्थिति बन जाती है स्त्यानगृद्धि में । मे नींद की तीन खोटी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि पुरुष के नहीं होतीं । इनका संवर होता है । और भी जो खोटी प्रकृतियां हैं―दुर्भग,दु:स्वर,अनादेय,न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान,स्वातिसंस्थान,कुब्बज संस्थान,वामनसंस्थान,वज्रनाराचसंहनन,नाराच संहनन,अर्द्धनाराचसंहनन,कीलकसंहनन,अप्रशस्तविहायोगति,स्त्रीपना,नीचगोत्र,तिर्यग्गति,तिर्यग्गत्यानुपूर्वी,तिर्यंचआयु,उद्योत इनका भी सम्यग्दृष्टि पुरुष के संवर होता है ।</p> | ||
<p style="text-align: justify;"><strong>सम्यग्दृष्टि के कर्मप्रकृतियों के संवर के अनुसार फलित अर्थ का प्रकाश</strong>―सम्यग्दृष्टि पुरुष केवल वज्रवृभषभनाराचसंहृन का बंध कर सकता है । इस प्रकृति के उदय में शरीर का आकार बड़ा सुंदर होता है जैसा कि तीर्थकर महाराज का शरीर बताया जिसकी हड्डी बज्र जैसी मजबूत होती हैं,इस संहनन से मोक्ष होता है,अन्य संहनन वाले पुरुष का मोक्ष नहीं होता,कारण यह है कि इतना ऊंचा ध्यान अन्य संहनन में नहीं बनता जिससे आत्मा-आत्मा में ही मग्न हो सके । इसके अतिरिक्त अप्रशस्त विहायोगति,स्त्री वेद,नीच गोत्र,इन प्रकृतियों का बंध सम्यग्दृष्टि के नहीं है और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और तिर्यंचायु इनका भी बंध नहीं है ।इसी से ही यह बात जानी जा सकती कि जब सम्यग्दृष्टि के इन प्रकृतियों का बंध नहीं है,पहले से ही रुक गया तो तिर्यंचायु में जाने का सवाल क्या? सो ही बात बतायी गई थी । सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नरक में नहीं जाता । यदि कोई ऐसी स्थिति हो कि उस जीवने पहले नरकायु बांधा,बाद में क्षायिक सम्यक्त्व हो गया तो वह पहले नरक में जा सकता,उससे नीचे नहीं,इसी प्रकार यदि किसी जीवने तिर्यंचायु,खोटी भी आयु बांधी पर सम्यग्दर्शन होने पर क्षायिक सम्यक्त्व होने पर वह तिर्यंच में तो जायगा मगर भोगभूमिया तिर्यंच में उत्पन्न होगा ऐसे ही सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर कर्मभूमिया मनुष्य नहीं बनता । जैसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर विदेह क्षेत्र में भी नही जा सकता । हां जितने जीव विदेह क्षेत्र में जायेंगे ज्ञानी पुरुष,उनके मरणकाल में सम्यक्त्व न रहेगा । वहाँ जाकर 8 वर्ष बाद सम्यक्त्व हो जाय यह उनकी योग्यता की बात है । हां तो किसी कर्मभूमिया सम्यग्दृष्टि मनुष्यने पहले मनुष्यायु बांध ली,याद में क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो वह भोगभूमिया मनुष्य होगा । क्षायिक सम्यक्त्व क्षयोपशम सम्यक्त्व के बाद ही होता है । इन सब प्रकरणों से यह जानना कि सम्यग्दर्शन होनेपर फिर दुर्दशा नहीं होती ।</p> | <p style="text-align: justify;"><strong>सम्यग्दृष्टि के कर्मप्रकृतियों के संवर के अनुसार फलित अर्थ का प्रकाश</strong>―सम्यग्दृष्टि पुरुष केवल वज्रवृभषभनाराचसंहृन का बंध कर सकता है । इस प्रकृति के उदय में शरीर का आकार बड़ा सुंदर होता है जैसा कि तीर्थकर महाराज का शरीर बताया जिसकी हड्डी बज्र जैसी मजबूत होती हैं,इस संहनन से मोक्ष होता है,अन्य संहनन वाले पुरुष का मोक्ष नहीं होता,कारण यह है कि इतना ऊंचा ध्यान अन्य संहनन में नहीं बनता जिससे आत्मा-आत्मा में ही मग्न हो सके । इसके अतिरिक्त अप्रशस्त विहायोगति,स्त्री वेद,नीच गोत्र,इन प्रकृतियों का बंध सम्यग्दृष्टि के नहीं है और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और तिर्यंचायु इनका भी बंध नहीं है ।इसी से ही यह बात जानी जा सकती कि जब सम्यग्दृष्टि के इन प्रकृतियों का बंध नहीं है,पहले से ही रुक गया तो तिर्यंचायु में जाने का सवाल क्या? सो ही बात बतायी गई थी । सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नरक में नहीं जाता । यदि कोई ऐसी स्थिति हो कि उस जीवने पहले नरकायु बांधा,बाद में क्षायिक सम्यक्त्व हो गया तो वह पहले नरक में जा सकता,उससे नीचे नहीं,इसी प्रकार यदि किसी जीवने तिर्यंचायु,खोटी भी आयु बांधी पर सम्यग्दर्शन होने पर क्षायिक सम्यक्त्व होने पर वह तिर्यंच में तो जायगा मगर भोगभूमिया तिर्यंच में उत्पन्न होगा ऐसे ही सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर कर्मभूमिया मनुष्य नहीं बनता । जैसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर विदेह क्षेत्र में भी नही जा सकता । हां जितने जीव विदेह क्षेत्र में जायेंगे ज्ञानी पुरुष,उनके मरणकाल में सम्यक्त्व न रहेगा । वहाँ जाकर 8 वर्ष बाद सम्यक्त्व हो जाय यह उनकी योग्यता की बात है । हां तो किसी कर्मभूमिया सम्यग्दृष्टि मनुष्यने पहले मनुष्यायु बांध ली,याद में क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो वह भोगभूमिया मनुष्य होगा । क्षायिक सम्यक्त्व क्षयोपशम सम्यक्त्व के बाद ही होता है । इन सब प्रकरणों से यह जानना कि सम्यग्दर्शन होनेपर फिर दुर्दशा नहीं होती ।</p> | ||
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Revision as of 11:56, 17 May 2021
सम्यग्दर्शन शुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि ।
दुष्कुल विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजंति नाप्यव्रतिका:।।35।।
सम्यग्दृष्टि का दुर्भवों में अनुत्पाद―जो जीव सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ है,सम्यग्दृष्टि है वह पुरुष मरण करके कहां-कहां जन्म धारण नहीं कर सकता,उसका वर्णन इस आर्याछंदमें कहा गया है । सम्यग्दृष्टि जीव नरक में जन्म नहीं लेता,केवल एक अपवाद है कि जिसके क्षायिक सम्यक्त्व हो और उससे पहले नरकायु का बंध किया वह सम्यक्त्व में मरकर प्रथम नरक तक जा सकता है । तो इस अपवाद को छहढाला में स्पष्ट किया है । प्रथम नरक बिना षट्भू,पहले नरक को छोड़कर शेष 6 पृथ्वियों में सम्यग्दृष्टि पुरुष का जन्म नहीं होता । किसी को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है और पहले नरकायु का बंध कर लिया तो उसके मरण समय में क्षयोपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जायगा और वह तीसरे नरक तक जन्म ले सकता है । पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव का सम्यक्त्व छूटता ही नहीं,मरण भी सम्यक्त्व में होगा और उसका पहले नरक से नीचे गमन नहीं हो सकता । वहाँ जन्म नहीं होता । तो सम्यग्दृष्टि जीव का नरक में जन्म नहीं होता,तिर्यंच में भी जन्म नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व में मरण करके तिर्यंच का कोई भी भव धारण नहीं कर पाते । अगर कोई तिर्यंच सम्यग्दृष्टि है तो वह भी मरण करके तिर्यंच में जन्म न लेगा । सम्यग्दृष्टि जीव नपुंसक और स्त्री पर्याय में जन्म नहीं लेता । भले ही कोई नपुंसक अपने जीवन में सम्यक्त्व प्राप्त करले,भले ही कोई स्त्री अपने जीवन में सम्यक्त्व प्राप्त करले पर सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व में मरण कर उन भवों में उत्पन्न नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव खोटे कुल में,खोंटे अंग वाले अर्थात् लंगड़े,लूले,बहिरे जैसे अंगों वाले क्षुद्र आयु में उत्पन्न नहीं होता । उसके दरिद्रता भी नहीं होती ।
सम्यग्दृष्टि के दरिद्रता की अप्राप्ति―जिसके सम्यग्दर्शन हो,सम्यक्त्व में मरण हो तो आगे भव में जब उत्पन्न होगा,तो संपन्न घर में उत्पन्न होगा,और कोई दरिद्र घर में हो,वहाँ सम्यग्दर्शन हो जाय तो दरिद्रता वहाँ नहीं रहती । दरिद्रता कहते किसे हैं,और धनवान होना कहते किसे हैं? आप उसकी कोई सीमा रख सकते हैं क्या? बताओ कितना धन हो तो धनिक कहलाये? सारे विश्व के धनिक लोग एक गोष्ठी करके यह निर्णय तो दे दें कि कितना धन हो जाये तो धनिक कहलाये । तो धनिक कहलानेकी कोई सीमा नहीं होती । एक हजारपति लखपति के आगे अपने की निर्धन अनुभव करता,लखपति करोड़पति के आगे अपने को निर्धन अनुभव करता...,यों अपने से अधिक धनिकों के आगे लोग अपने को गरीब अनुभव करते है । यह धन वैभव कितना ही हो जाय पर इससे अपना बड़प्पन न मानिये । सबसे बड़ा धन तो है संतोष धन । चाहे कैसी ही स्थिति हो,यदि संतोष धन है तो सब कुछ है,नहीं तो कुछ नहीं है । क्या साधारण स्थिति वाले लोगो का गुजारा नहीं होता? क्या वे नहीं खाते पीते पहिनते ओढ़ते? अरे उनका भी सब गुजारा चल रहा है । साधारण रोटी कपड़े के गुजारे के लिए कोई अधिक परिश्रम करने की जरूरत नहीं । अधिक परिश्रम करके धन का संचय तो लोग इस पर्यायबुद्धि के कारण करते है । मैं दुनिया में बड़ा कहलाऊं सेठ साहूकार कहलाऊँ...,सेठ का अर्थ है श्रेष्ठ पर रूढ़ि हो गई सेठ शब्द बोलने की । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष जब अपना ही प्रकाश पाये हुए है,उसे किसी भी पर पदार्थ के प्रति आशा का भाव नहीं रहा,फिर उसके लिए दरिद्रता क्या है? आत्मानुशासन में बताया है कि निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेथ हिजीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता । निर्धनता को जिसने धन समझा याने मुनि महाराज,परिग्रह ही कोई धन नहीं,उस निर्धनता को ही अपना धन समझ रहे,संतोष है ना उन्हें,मृत्यु ही जिनके लिए जीवन बन गया,आत्मस्वरूप को समझने वाले पुरुष को मृत्यु क्या चीज हैं? जैसे कहीं बैठे हुए किसी पुरुष से कहा गया कि आप यहाँ बैठ जाइये,तो वहाँ से उठकर वह वहाँ बैठ गया,बताओ इससे उस पुरुष का क्या घट गया? ऐसे ही यह आत्मा अभी इस मनुष्य भव में है,इस शरीर में न रहा अन्य नये शरीर के स्थान में पहुँच गया तो इस आत्मा का क्या घट गया? कुछ भी नहीं घटा । ज्ञानी पुरुष के लिए मृत्यु-मृत्यु नहीं है,वह तो उसके लिए नया जीवन है । तो ऐसे जीव का कर्म अब क्या कर लेंगे? कर्म अधिक से अधिक दो खोटी बातें कर सकते थे कि निर्धन बना दें या मरण करा दें,पर जो मरण में प्रसन्न हैं,निर्धनता में प्रसन्न हैं,उन पर कर्म अपना क्या प्रभाव बनायेंगे? तौ ऐसी दरिद्रता की बात कही जा रही है कि जो अपने स्वभाव को देखकर परमात्मस्वरूप की तरह मान रहा,ज्ञानानंद से संपन्न समझ रहा उसे कैसे दरिद्र कहा जा सकता? जिसको अपने ज्ञानानंदसंपंन आत्माकी सुध नहीं वह करोड़पति हो तो भी दरिद्र है और जिसको अपने ज्ञानानंदस्वभाव की सुध है वह कैसी ही अवस्था में हो तो भी संपन्न है । तो सम्यग्दृष्टि पुरुष ऐसी दुर्दशावों में जन्म नहीं लेता ।
अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के संवृत 41 प्रकृतियों में मिथ्यात्वप्रत्ययक 16 प्रकृतियों का नाम निर्देश―सम्यग्दृष्टि पुरुषचाहेव्रतरहित भी हो याने अविरत सम्यग्दृष्टि है उसके भी41 कर्म प्रकृतियों को बंध नहीं होता । उन 41 प्रकृतियों में कुछ तो है मिथ्यात्व के कारण बनने वाले और कुछ हैं अनंतानुबंधी कषाय के कारण बनने वाले । सम्यग्दृष्टि पुरुष के न मिथ्यात्व का उदय है न अनंतानुबंधी कषाय का उदय है इस कारण इन प्रकृतियों की वजह से बनने वाली कर्म प्रकृतियों का सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता । वे प्रकृतियाँ कौन हैं जो मिथ्यात्वप्रकृति के कारण बंधतीहैं? मिथ्यात्व । मिथ्यात्व प्रकृति का बंध मिथ्यात्व के उदय से ही संभव है । जब मिथ्यात्व का उदय नहीं रहतातो मिथ्यात्व प्रकृतिकाबंध नहीं होता । इस संबंध में एक बात और समझ लीजिए कि जिस प्रकृतिका, आगे उदय न आ सकेगा उसके बंध की जरूरत क्या है? वेप्रकृतियाँ प्राय: नहीं बंधती । मिथ्यात्व के उदयमें ही हुंडक संस्थान का बँध होता है । हुंडक संस्थान छठा संस्थान है । कीड़ा मकोड़ा एकेंद्रिय पशु पक्षी इनमें हुंडक संस्थान ही तो पाया जाता है । इससे शरीर का आकार सुंदर नहीं रहता,विडरूप रहता है । कैसा ही कितना फैला हो,कैसी शाखायें बन रही,कैसे लंबे-लंबे केंचुवे कैसा विडरूप आकार रहता है तो हुंडक संस्थान के उदय में खोटा आकार रहता है । तो मिथ्यात्व प्रकृति के न रहनेपर इसके हुंडक संस्थान नहीं रहता । नपुंसकवेद यह बहुत खोटा वेद है इसमें बड़ा खोटा भाव होता है । नपुंसक वेद मिथ्यात्व के उदय में होता है । मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व नहीं है इसलिए नपुंसक वेद का संवर है । उसके यह कर्मप्रकृति नहीं बंधती । असृपाटिका संहनन छठा संहनन है । यह हम आपके मौजूद है पंचमकाल में,और जो पशु पक्षी हैं उनके भी यह संहनन चल रहा है । यह संहनन बहुत दुर्बल संहनन है । थोड़ा सा भी झिटका लग जाय तो कहो शरीर की हड्डी टूट जाय । वह मिथ्यात्व के उदय में ही बंधता है । जिन जीवों के मिथ्यात्व का उदय नहीं उनके ऐसा संहनन नहीं बनता । एकेंद्रिय,स्थावर,आतप,सूक्ष्मपना,अपर्याप्त,दो इंद्रिय,तीन इंद्रिय,चार इंद्रिय इन साधारण,प्रकृतियों का संवर सम्यग्दृष्टि के होता है । इससे यह भी जानें कि सम्यग्दृष्टि पुरुष इन जगहों में उत्पन्न नहीं होता । उदय ही न आयगा । तो ऐसे सम्यग्दृष्टि के एकेंद्रिय,दोइंद्रिय आदिक प्रकृतियों का संवर चलता है । नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु आदिक का बंध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व नहीं है सो इन प्रकृतियों का संवर होता है । कर्म 8 बताये गए है और विनतियों में लोग सुनते हैं,उन 8 कर्मों के और भेद होने से 148 कर्म प्रकृतियां हो जाती हैं । जीव के साथ ये प्रकृतियां बंधी रहती है । उनका उदय होता है और जीव को अनेक प्रकार की वेदनायें होने लगती है । विकार हो जाते हैं । तो ये प्रकृतियाँ तो हम लोगों के संसार संकट का कारण है,इनका क्षय हो तो मुक्ति मिले । तो इन कर्मों का क्षय हो,कर्मों का क्षय हो,ऐसी माला जपने से या मंत्र आदिक बोलने से या इनकी चर्चा करने से कर्मों का क्षय न होगा किंतु आत्मा का अविकार स्वभाव यह मैं हूँ चैतन्यमात्र हूँ मैं अन्य कुछ नहीं हूं,इस प्रकार की अनुभूति के बल से कर्मो का क्षय अपने आप होता है ।
अविरत सम्यग्दृष्टि के संवृत 41 प्रकृतियों में अनंतानुबंधीकषाय प्रत्ययक 25 प्रकृतियों का नाम निर्देश―सम्यग्दृष्टि जीव के उक्त 16 प्रकृतियों का संवर है और अनंतानुबंधी कषाय के कारण जिन प्रकृतियों का बंध होता है उनका भी संवर है । वे प्रकृतियों कौन हैं? तो अनंतानुबंधी क्रोध,मान,माया,लोभ जहाँ अनंतानुबंधी कषाय न रही ज्ञानी पुरुष के उसके यह कषाय क्यों बंधेगी? स्त्यानगृद्धि ,निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला ये तीन नींद की खोटी प्रकृतियाँ हैं । नींद आनेपर भी नींद आती रहे,इसकी प्रकृति से बहुत तेज नींद आये वह निद्रा निद्रा है । नींद में ही लार बहे,अनेक प्रकार की जहाँ अंग की चेष्टायें होती रहे यह प्रचला प्रचला है । सोते हुए में कोई बड़ा काम कर आये,काम करके फिर सो गए और जगनेपर उसका कुछ ख्याल ही न रहे । जो किया सोते में किया,जगनेपर उस किए हुए का कुछ पता ही न रहे,यह स्त्यानगृद्धि है । बचपन में हमारे एक साथीने बताया था―जब हम सागर विद्यालय में पढ़ते थे तब की बात है तो उस साथीने मेरे से बताया कि आज रात्रि को तुम 12 बजे के करीब उठकर मंदिर के द्वार तक जाकर मंदिर के किवाड़ खटखटा रहे थे । पूछा कि रात्रि में तुम क्यों गए थे? तो मैने कहा―कहा मैं गया था,मुझे तो कुछ नहीं मालूम । तो ऐसी स्थिति बन जाती है स्त्यानगृद्धि में । मे नींद की तीन खोटी प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि पुरुष के नहीं होतीं । इनका संवर होता है । और भी जो खोटी प्रकृतियां हैं―दुर्भग,दु:स्वर,अनादेय,न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान,स्वातिसंस्थान,कुब्बज संस्थान,वामनसंस्थान,वज्रनाराचसंहनन,नाराच संहनन,अर्द्धनाराचसंहनन,कीलकसंहनन,अप्रशस्तविहायोगति,स्त्रीपना,नीचगोत्र,तिर्यग्गति,तिर्यग्गत्यानुपूर्वी,तिर्यंचआयु,उद्योत इनका भी सम्यग्दृष्टि पुरुष के संवर होता है ।
सम्यग्दृष्टि के कर्मप्रकृतियों के संवर के अनुसार फलित अर्थ का प्रकाश―सम्यग्दृष्टि पुरुष केवल वज्रवृभषभनाराचसंहृन का बंध कर सकता है । इस प्रकृति के उदय में शरीर का आकार बड़ा सुंदर होता है जैसा कि तीर्थकर महाराज का शरीर बताया जिसकी हड्डी बज्र जैसी मजबूत होती हैं,इस संहनन से मोक्ष होता है,अन्य संहनन वाले पुरुष का मोक्ष नहीं होता,कारण यह है कि इतना ऊंचा ध्यान अन्य संहनन में नहीं बनता जिससे आत्मा-आत्मा में ही मग्न हो सके । इसके अतिरिक्त अप्रशस्त विहायोगति,स्त्री वेद,नीच गोत्र,इन प्रकृतियों का बंध सम्यग्दृष्टि के नहीं है और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और तिर्यंचायु इनका भी बंध नहीं है ।इसी से ही यह बात जानी जा सकती कि जब सम्यग्दृष्टि के इन प्रकृतियों का बंध नहीं है,पहले से ही रुक गया तो तिर्यंचायु में जाने का सवाल क्या? सो ही बात बतायी गई थी । सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नरक में नहीं जाता । यदि कोई ऐसी स्थिति हो कि उस जीवने पहले नरकायु बांधा,बाद में क्षायिक सम्यक्त्व हो गया तो वह पहले नरक में जा सकता,उससे नीचे नहीं,इसी प्रकार यदि किसी जीवने तिर्यंचायु,खोटी भी आयु बांधी पर सम्यग्दर्शन होने पर क्षायिक सम्यक्त्व होने पर वह तिर्यंच में तो जायगा मगर भोगभूमिया तिर्यंच में उत्पन्न होगा ऐसे ही सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर कर्मभूमिया मनुष्य नहीं बनता । जैसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य सम्यक्त्व में मरकर विदेह क्षेत्र में भी नही जा सकता । हां जितने जीव विदेह क्षेत्र में जायेंगे ज्ञानी पुरुष,उनके मरणकाल में सम्यक्त्व न रहेगा । वहाँ जाकर 8 वर्ष बाद सम्यक्त्व हो जाय यह उनकी योग्यता की बात है । हां तो किसी कर्मभूमिया सम्यग्दृष्टि मनुष्यने पहले मनुष्यायु बांध ली,याद में क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो वह भोगभूमिया मनुष्य होगा । क्षायिक सम्यक्त्व क्षयोपशम सम्यक्त्व के बाद ही होता है । इन सब प्रकरणों से यह जानना कि सम्यग्दर्शन होनेपर फिर दुर्दशा नहीं होती ।
सम्यग्दृष्टि जीवों की उदात्तता―वे पुरुष धन्य है जिन्होंने इस शरीर से निराले अपने आपके आत्मा में उस सहज चैतन्यस्वभाव का अनुभव किया है । मैं यह हूँ,जिसको सम्यक्त्व हो जाता है वह इस शरीर के मान और अपमान के विकल्प नहीं करता । वह तो योग्य बात ही करेगा । अयोग्य बात कभी न करेगा । अयोग्य कार्य करने में तो अपमान होता ही है । अज्ञानी जीव ज्ञानी जीव को प्राय: भली निगाह से नहीं देख सकते क्योंकि अज्ञानी की प्रकृति है अज्ञान में रमने की । तो अज्ञान में रमने वाले योग उस अज्ञानी के नित्य हुआ करते हैं,इसलिए अज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में ज्ञानी पुरुष घृणा के योग्य होते है । और कहने भी लगते है कि ये लोग तो बेकार हैं,इनसे देश को क्या लाभ है? यदि ये खुद कमाने लगते तो देश का कुछ अंश तो ठीक होता... इस तरह बोलने लगते । तो अज्ञानीजन ज्ञानीजनों का कभी समान नहीं कर सकते,संसार में अज्ञानियों का समुदाय विशेष है,ज्ञानी तो बिरले ही होते हैं । तो अज्ञानीजनों के द्वारा किया गया अपमान ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पर कुछ प्रभाव नहीं उत्पन्न करता । वह तो अपने ज्ञान की ही धुन में रहा करता है । इसी तरह अज्ञानीजन या कोई भी पुरुष ज्ञानी का सम्मान भी करें तो समझो कि ज्ञानीने अपने धर्म का सम्मान किया है,किसी व्यक्ति का नहीं । और जिसका सम्मान होता वह सम्यग्दृष्टि जीव उससे प्रभावित नहीं होता । अपने देह के मान अपमान का ज्ञानी जीव को कोई असर नहीं होता । वह अपनी ही योग्य साधना में रहा करता है । ऐसा सम्यग्दृष्टि पुरुष चाहे क्रोध सहित हो तो भी दुर्दशा को प्राप्त नहीं होता ।
ज्ञानी की अंत: निरापदता―देखिये कर्मबंध ज्ञानी सम्यग्दृष्टि के प्राय: पुण्य प्रकृति का होता है । भले ही पूर्व पाप के उदय से ज्ञानी पुरुष को कोई उपसर्ग सहना पड़े पर चूंकि पाप प्रकृति का बंध नहीं हो सकता इसलिए उसके अगले भव में किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आ सकती । और जो आज वर्तमान में विपत्ति आयी हो,जैसे सुकुमाल सुकौशल आदिक को गीदड़ीने चीथा तो भी उनके पूर्वकृत पापकर्म का उदय है । ज्ञान का दोष नहीं है और ज्ञान के कारण उपसर्ग समय भी वे अपने आपके स्वरूप में मग्न रहे । तो इस जगत में सम्यग्दर्शन से बढ़कर अन्य कुछ वैभव नहीं है । एक निर्णय हो जाय जिसका कि मेरा जीवन धर्म के लिए है,धर्म के लिए ही मेरा सर्वस्व है ऐसा जिसका निर्णय हो जाय उस पुरुष के पुण्य प्रकृतियों का ही बंध होगा,पापप्रकृतियों का बंध न चलेगा । यद्यपि जब तक संसार में हैं तब तक पुण्य के साथ पाप भी चलते हैं मगर मुख्यतया उसके पुण्य का ही आस्रव होता है । जो भीतर में मोक्षमार्ग में बढ़ रहा है उसके शुद्ध ज्ञान ध्यान बन रहा है । तो सम्यग्दर्शन की अपूर्व महिमा है । एक इस भव में जिस किसी भी उपाय से सम्यक्त्व उत्पन्न कर लिया तो समझो कि मैंने कुछ कमायी की और भविष्य में मैं सब संकटों से बच गया ।