चारित्रपाहुड - गाथा 17: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
मिच्छादंसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं ।
वज्झंति मूढजीवा मिच्छत्ताबुद्धिउदएण ।।17।।
(59) सम्यक्त्वाचरण की हितकारिता―सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण यह तो है सन्मार्ग और ये दोनों न बन सके और मिथ्याबुद्धि में मस्त रहे उसकी जो वृत्ति है वह कहलाता है मिथ्यामार्ग । तो मिथ्यामार्ग की प्रवृत्ति किस कारण होती है इसका वर्णन इस गाथा में किया है । जो मोही जीव हैं वे अज्ञान, मोह मिथ्यात्व इन दोषों से मलिन जो खोटे दर्शन हैं उनमें प्रवृत्ति होती है, सो यह सब मिथ्यात्व के उदय का माहात्म्य है । कितने ही लोग बहुत बुद्धिमान वैज्ञानिक बड़ा सूक्ष्म प्रयोग बनायें, इतनी तेज बुद्धि पाकर भी अगर प्रत्येक पदार्थ के स्वतंत्र सत्व का बोध नहीं रख रहा तो उसकी आत्मा की ओर से बेहोश कहा जायेगा । सर्व ज्ञानों में प्रधान ज्ञान यह है कि यह दृष्टि में रहे कि यदि कोई चीज है पुद्गल पिंड, पेन, दवात कुछ भी है तो यह अनंत परमाणुओं का पिंड है और वे अनंत परमाणु प्रत्येक एक-एक परमाणु अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रख रहे हैं और एक का दूसरा कुछ नहीं लगता, पर योग ऐसा है कि वे अनंत परमाणु मिलकर एक स्कंधरूप अवस्था में हैं, पर इस वक्त भी प्रत्येक परमाणु अपनी स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्ता रखता है । ये जीव जो दिखने में आते हैं पुरुष स्त्री, बच्चे, पशु, पक्षी ये क्या चीज हैं? ये सब अनंत परमाणुओं के पिंड है । जो मनुष्य बैठा है उसमें एक तो जीव है और अनंत परमाणु शरीर के हैं, अनंत परमाणु कर्म के हैं तो शरीर कर्म और जीव इनका यह एक पिंडोला है जो दिख रहा है, और जो अनेक द्रव्यों का पिंडोला हो उसे माया कहते हैं ।
(60) माया में प्रवर्तन न करने का अनुरोध―माया में मत लगो इसका अर्थ यह है कि जो अनेक द्रव्यो का पिंडोला है इसे तुम सत्य मत समझो । जो दिख रहा यह सब सत्य कुछ नहीं है । है तो सही मगर परमार्थ कुछ नहीं है । जीव निकल जायेगा देह को छोड़कर देह के भी परमाणु बिखर जायेंगे, यहाँ सच्चाई क्या रही? तो यह ज्ञान दृढ़ता से बनाने की आवश्यकता है कि जो दिख रहा है वह सब माया है, वह अनेक पदार्थों का मिलकर बना है । उसका क्या विश्वास? वह विघट जायेगा । जैसे यहाँ जीवन का क्या विश्वास? जीव अलग हो जायेगा । क्यों हो गया अलग कि वह अलग तो था ही, जब शरीर में रह रहा था तो उसकी अलग सत्ता थी, वह अब यहाँ न रहा, अन्य जगह चला गया । तो जो दिख रहा है यह विश्वास के काबिल नहीं है याने यह परमार्थ है । हितरूप है, इसके संग्रह से ही मेरा उद्धार है । यह बात रंच भी नहीं है क्योंकि सब माया है । केवल एक परमाणु है वह है परमार्थ । अगर परमाण से ही प्रेम है तो एक-एक परमाणु से करो प्रेम । तो कोई कर सकेगा क्या? एक की तो बात क्या? संख्यात असंख्यात परमाणुओं का पिंड भी आंखों से नहीं दिखता, उपयोग में नहीं आ सकता, जो भी दिख रहा हे छोटा से भी छोटा कंकड़ तो वह भी अनंत परमाणुओं का पिंड है । तो परमार्थ से कौन प्रीति करता है? जो भी प्रीति करता है वह माया से प्रीति करता है । जिसकी परिस्थिति यह है वह माया से अलग नहीं हो पा रहा फिर भी उसका लक्ष्य विशुद्ध है और परमार्थ को वह प्राप्त कर सकता । तो यह सब माया जो कि अनेक पदार्थों का पिंड है उसमें जो मुग्ध होता है सो यह सब मिथ्यात्व के उदय से होता है । और जो अनेक दर्शन है, जो वस्तु के स्वतंत्र-स्वतंत्र सत्त्व का सही प्रतिपादन नहीं करते किंतु ऐसा ही वर्णन करते हैं कि जिससे स्वतंत्र सत्ता का भान रहे और एक दूसरे से संबंध की बात चित्त में आये और उस ही को ग्रहण करले तो वह खोटा दर्शन है । उसमें अज्ञानी जीव ही प्रवृत हो सकते हैं ।
(61) परमार्थदर्शन के अभ्यास की आवश्यकता―जिसे अपना कल्याण करना है उसको यह बात खूब सीखना चाहिए और उसका ज्ञान में बहुत-बहुत प्रयोग करना चाहिए, क्या कि जो भी दिखे उसमे ऐसा निरखें कि इसमें जो एक-एक परमाणु है वह तो सच है, वह परमार्थ है वह द्रव्य है और यह जो अनेक द्रव्य है, और यह जो अनेक द्रव्यों का मिलकर बना पिंड है यह माया रूप है अपरमार्थ है । कभी-कभी बरसात के दिनों में देखा होगा कि बच्चे लोग मिट्टी के रेत को अपने पैर में रखकर उसे थपथपाकर भदूना बनाते हैं और उसे अपना घर बताते हैं, मगर यह दृष्टि वे नहीं रखते कि यह कोई पक्की चीज है । वे जानते हैं कि यह तो रेत का भदूना है और थोड़ी ही देर में उसे पैर से मिटा देते हैं, तो वह रेत का भदूना जरा जल्दी मिट जाता और ये भींट, टेबुल, दवात वगैरह य सब चीजें जरा कठिन भदूना बन गई सो ये कुछ अधिक देर में मिटते, सोना, चांदी वगैरह से बनी चीजें जरा कुछ उससे भी अधिक देर में मिटते, मगर इनमें जो एक-एक अणु है वही वास्तविक द्रव्य है और वहाँ मिलकर यह आकार बन गया । तो ज्ञानी जीव इस आकार में मुग्ध नहीं होता । तो यह बात बार-बार ध्यान में लावे कि जो भी चीज यहाँ आँखों दिखती है वह सही चीज नहीं है । इसमें जो एक-एक परमाणु है वह सही द्रव्य है, वह कभी नष्ट नहीं होता और यह मिलावट का आकार तो नष्ट हो जाता है । जीवों में भी प्रत्येक जीव के प्रति, और खासकर खुद में घर में रहने वाले जीवों के प्रति यही बात विचारे कि ये कोई परमार्थ वस्तु नहीं है, यह सब अनंत परमाणु और जीव का मिलावट है, ये सब बिखर जायेंगे यहाँ किससे मोह रखना? ऐसा निरखे तो वह माया को भी परमार्थ दिख रहा । और जो इस परमार्थ को नहीं देख सकता वह माया में आसक्त रहता है । उस ही को अपना सर्वस्व हितरूप रूम समझता, कर्मबंध होता, संसार में रुलता, तो यथार्थ परिचय बनता सबसे बड़ा भारी वैभव है । मान लो जीवन में भारी दरिद्रता आ जाये और दुनिया के लोग मुझे मत मानें, कुछ भी बात आ जाये तो ये कोई उपद्रव नहीं पर एक मेरा ज्ञान बेहोश न हो, मेरे ज्ञान में मेरा ज्ञानस्वरूप समाया रहे, यह स्थिति चाहिए, मगर मेरे जान में ज्ञानस्वरूप आये और मर भी जायेंगे तो बस इस ज्ञान प्रकाश को साथ लेते हुए जायेंगे तो आगे भी सुखी रहेंगे और इसकी सुध छोड़ दी, माया ने आसक्त हो गए तो यह भव भी बिगड़ा और भविष्य भी बिगड़ा, इस कारण से मिथ्यादर्शन में उपयोग न देना और अभिप्राय निर्मल बनाकर ज्ञान का स्वाद लेते रहें, यह कल्याणार्थी का कर्तव्य है ।