चारित्रपाहुड - गाथा 30: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 10: | Line 10: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 31 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 31 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - चारित्रपाहुड प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - चारित्रपाहुड प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: चारित्रपाहुड]] | [[Category: चारित्रपाहुड]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य ।
तुरियं अवभविरई पंचम संगम्मि विरई य ।।30।।
(75) पंच महाव्रतों का निर्देश-―व्रतों का स्वरूप इस गाथा में कहा है । मुनि का प्रथम पद है अहिंसा महाव्रत, धर्म का परिपूर्ण पालन । संकल्पी, उद्यमी, आरंभी और विरोधी, इन चार प्रकार की हिंसाओं का त्याग अहिंसा महाव्रत में है । सागार संयमाचरण में संकल्पी हिंसा का त्याग था, पर आरंभी, उद्यमी, विरोधी हिंसा का त्याग न कर सका । अब मुनि अवस्था में चूंकि उसके मोक्षमार्ग में प्रगति हुई है तो यहाँ सर्व हिंसाओं का त्याग है, अपने में अविकार भाव का असर होना और विकार रहित परिणति होना यह है वास्तविक हिंसा महाव्रत और इसके होते संते बाह्य अहिंसा महाव्रत तो पालता ही है । दूसरा महाव्रत है सत्य महाव्रत―सत्य ही वचन बोलना, किसी को कष्ट न पहुंचे, ऐसा भाव बनाये रहना, यह है सत्य महाव्रत । तीसरा है अचौर्य महाव्रत । अदत्त विरति―दूसरे के द्वारा प्रीतिपूर्वक न दिए गए द्रव्य को न लेना यह है अब्रह्मविरति । चौथा महाव्रत है अब्रह्मविरति । आत्मा के न करने योग्य कार्य से विरक्त रहना । आत्मा का स्वभाव है ज्ञान । तो ज्ञान के अनुकूल विरति रहना अब्रह्मविरति है । इस ब्रह्म में यद्यपि पांचों इंद्रिय के विषयों से राग करना, अपने आत्मा के स्वरूप में लीन होना इसमें ही इस व्रत की उच्चता है, सफलता है, पर ऐसा करना सबके लिए जब शक्य नहीं है तो सागार संयमाचरण बताया है कि एकदेश पाप का त्याग होना । मगर यहाँ तो सर्वदेश त्याग है । तो पंचेंद्रिय के विषयों से निवृत्त होना और कुशील नामक पाप का सर्वदेश से त्याग होना यह है ब्रह्मचर्य महाव्रत । 5वां है संगतिविरति । परिग्रह से विरक्त रहना । परिग्रह खेत, मकान, वन-धान्यादिक बताये गए हैं । इनकी तो कभी भी इच्छा न जगना । जिसको ज्ञान जग जाता है उसके फिर इन बाह्य पदार्थ विषयक इच्छा नहीं रहती । उसका स्पष्ट निर्णय है कि मुझे तो इस अविकार सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा में पहुंचना है, मेरा दूसरा कुछ काम है ही नहीं । तो ऐसे अविकार सहज चैतन्यस्वरूप की प्रबल दृष्टि रखने वाले साधु पुरुष इन 5 पापों से तो पूर्णतया निवृत्त रहते ही हैं । तो ऐसे ये 5 महाव्रत बताये गए हैं, यह निरागार संयमाचरण का मूल आधार है । इसकी अंतरंग से व्रतों की परिपूर्णता के लिए अन्य व्रत सब परिकर रूप हैं । यों सराग संयमाचरण में 5 महाव्रतों का स्वरूप बताया । अब आगे यह बतायेंगे कि इनको महाव्रत क्यों कहा गया है?