कथा (सत्कथा व विकथा आदि): Difference between revisions
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<p class="HindiText">म.पु./१/११८ पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा। = मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा कहलाती है।<br /> | |||
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<li name="1" id="1"><span class="HindiText"><strong> कथा के भेद</strong><br /> | |||
म.पु./१/११८-१२० <strong>-</strong>(सत्कथा, विकथा व धर्मकथा)। </span><br /> | |||
भ.आ./मू./६५५/८५२ <span class="PrakritText">आक्खेवणी य विक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स।</span>=<span class="HindiText">आक्षेपिणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी <strong>-</strong>ऐसे (धर्म) कथा के चार भेद हैं। (ध.१/१,१,२/१०४/६), (गो. जी./जी.प्र./३५७/७६५/१८) (अन. ध./७/८८/७१६)।<br /> | |||
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<li name="2" id="2"><span class="HindiText"><strong> धर्मकथा व सत्कथा के लक्षण</strong></span><br /> | |||
ध.९/४,१ ५५/२६३/४ <span class="PrakritText">एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्वो। </span><br /> | |||
= <span class="HindiText">एक अंग के एक अधिकार के उपसंहार का नाम धर्मकथा है। उसमें जो उपयोग है वह भी <strong>धर्मकथा</strong> है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (ध.१४/५.६.१४/९/६)।</span><br /> | |||
म.पु./१/१२०,११८ <span class="SanskritText">यतोऽभ्युदयनि:श्रेयसार्थ संसिद्धिरञ्जसा। सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता।१२०।... । तत्रापि सत्कथां धर्म्यामामनन्ति मनीषिण:।११८। </span><br /> | |||
=<span class="HindiText">जिससे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वास्तव में वही धर्म कहलाता हे। उससे सम्बन्ध रखने वाली जो कथा है उसे <strong>सद्धर्मकथा</strong> कहते हैं।१२०। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान पुरुष सत्कथा कहते हैं।११८।</span><br /> | |||
गो. क./जी.प्र./८८/७४/८ <span class="SanskritText">अनुयोगादि धर्मकथा च भवति।</span>= <span class="HindiText">प्रथमानुयोगादि रूप शास्त्र सो धर्मकथा कहिए।<br /> | |||
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<li name="3" id="3"><span class="HindiText"><strong> आक्षेपणी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू. व वि./५५६/८५३ <span class="SanskritText">आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ।...।६५६। आक्षेपणी कथा भण्यते। यस्यां कथायां ज्ञानं चारित्रं चोपदिश्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसमें मति आदि सम्यग्ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यग्चारित्रों का निरूपण किया जाता है वह आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
ध. १/१,१,२/१०५/१ तथा श्लो. ७५/१०६ <span class="PrakritText">तत्थ अक्खेवणीणाम छद्दव्वणवपयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धिं करेंती परूवेदि। उक्तं च-आक्षेपणीं तत्त्वविधानभूतां।...।७५। </span>=<span class="HindiText">जो नाना प्रकार की एकान्तदृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। ... कहा भी है–तत्त्वों का निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
गो.जी./जी.प्र./३५७/७६५/१९ <span class="SanskritText">तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीर्थंकरादिवृत्तान्तलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा </span>=<span class="HindiText">तहाँ तीर्थंकरादि के वृत्तान्तरूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णनरूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनका कथन अर परमत की शंका दूर करिए सो आक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
अन.ध./७/८८/७१६ <span class="SanskritText">आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी,...।</span>=<span class="HindiText">जिसके द्वारा अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त का यथायोग्य समर्थन हो उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।<br /> | |||
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<li name="4" id="4"><span class="HindiText"><strong> विक्षेपणी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू. व वि./६५६/८५३ <span class="SanskritText">ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम।६५६। - या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी भण्यते। सर्वथानित्यं...इत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्श्य कथंचिन्नित्यं...इत्यादि स्वसमयनिरूपणा च <strong>-</strong> विक्षेपणी। </span>=<span class="HindiText">जिस कथा में जैन मत के सिद्धान्तों का और परमत का निरूपण हैउसको विक्षेपणी कथा कहते हैं। जैसे ‘वस्तु सर्वथा नित्य ही है’ इत्यादि अन्य मतों के एकान्त सिद्धान्तों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर पक्ष में वे सिद्धान्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, ऐसा सिद्ध करके, वस्तु का स्वरूप कथंचित् नित्य इत्यादि रूप से जैनमत के अनेकान्त को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है।</span><br /> | |||
ध.१/१,१,२/१०५/२ तथा श्लो.नं. ७५/१०६ <span class="PrakritText">विक्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करेंती स-समयं थावंती छदव्व-णव-पयत्थे परूवेदि।...उक्तं च <strong>-</strong> विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तरशुद्धिम्।...।७५। </span>=<span class="HindiText">जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं। अनन्तर परसमय की आधारभूत अनेक एकान्तदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छहद्रव्य नौ पदार्थौं का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। कहा भी है <strong>-</strong> तत्त्व से दिशान्तर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करनेवाली अर्थात् परमत की एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६५/२०) (अन.ध./७/८८/७१६)।<br /> | |||
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/ | <li name="5" id="5"><span class="HindiText"><strong> संवेजनी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
भ.आ./मू. व वि./६५७/८५४ <span class="PrakritText">संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तववीरिय इट्ठिगदा/६५७/... संवेजनी पुन: कथा ज्ञानचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपन्निरूपणपरा। </span><br /> | |||
=<span class="HindiText">ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मा में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथा को संवेजनी कथा कहते हैं।</span><br /> | |||
ध.१/१,१,२/१०५/४ तथा श्लो.७५/१०६<span class="PrakritText"> संवेयणी णाम पुण्य-फल-संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्तं च – ‘संवेगनी धर्मफलप्रपञ्चा...।७५। </span>=<span class="HindiText">पुण्य के फल का कथन करनेवाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्य के फल कौन से हैं ? तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। कहा भी है – विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६६/१) (अन.ध./७/८८/७१६)।<br /> | |||
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<li name="6" id="6"><span class="HindiText"><strong> निर्वेजनी कथा का लक्षण</strong></span><br /> | |||
भ.आ.मू.व.वि./६५७/८५४ <span class="SanskritText">णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य।६५७।...निर्वेजनी पुन: कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावा: प्राणप्रभृत: इति शरीरतत्त्वाश्रयणात्। तथा भोगा दुर्लभा:...लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्तिं जनयन्ति। अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति। देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दु:खबहुलौ अल्पसुखौ इति निरूपणात्। </span><br /> | |||
=<span class="HindiText">शरीर, भोग और जन्म परम्परा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथा का निर्वेजनी कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासा <strong>-</strong> शरीर अपवित्र है, शरीर के आश्रय से आत्मा की अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होने से अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जाने से महान् दु:ख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दु:खों से भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इसप्रकार का वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है (अन.ध./७/८८/७१६)।</span><br /> | |||
ध.१/१,१,२/१०५/५ तथा श्लोक ७५/१०६ <span class="SanskritText">णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि। णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिव्वेयणी णाम। उक्तं च <strong>-</strong> निर्वेगिनी चाह कथां विरागाम्।७५। </span><span class="HindiText">=पाप के फल का वर्णन करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल कौन से हैं ? नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। - अथवा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं । कहा भी है <strong>-</strong> वैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६६/१) ।<br /> | |||
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<li name="7" id="7"><span class="HindiText"><strong> विकथा के भेद</strong></span><br /> | |||
नि.सा./मू./६७ <span class="PrakritText">थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स।...। </span>= <span class="HindiText">पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है।</span><br /> | |||
मू.आ./मू./८५५-८५६<span class="PrakritText"> इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकव्वडाणं च। रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।८५५। णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अज्जउललंघियाणं कहासु ण विरज्जए धीरा:।८५६। </span>=<span class="HindiText">त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, केवल पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि सम्बन्धी कथा।८५५। नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपटजीवी व्याध व ज्वारी की कथा, हिंसकों की कथा, ये सब लौकिकी कथा (विकथा) है। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।८५६।</span><br /> | |||
गो.जी./जी.प्र./४४/८४/१७ <span class="SanskritText">तद्यथा <strong>-</strong> स्त्रीकथा अर्थकथा भोजनकथा राजकथा चोरकथा वैरकथा परपाखण्डकथा देशकथा भाषाकथा गुणबन्धकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कन्दर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवादकथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारम्भकथा संगीतवाद्यकथा चेति विकथा पञ्चविंशति:। </span>=<span class="HindiText">स्त्रीकथा, अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा, भाषा कथा (कहानी इत्यादि), गुणप्रतिबन्धकथा, देवीकथा, निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कन्दर्प (काम) कथा, देशकाल के अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिन्दा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरम्भ कथा, संगीतवादित्रादि कथा <strong>-</strong>ऐसे विकथा २५ भेद संयुक्त हैं।<br /> | |||
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<li name="8" id="8"><span class="HindiText"><strong> स्त्रीकथा आदि चार विकथाओं के लक्षण</strong></span><br /> | |||
नि.सा./ता.वृ./६७ <span class="SanskritText">अतिप्रवृद्धकामै: कामुकजनै: त्रीणा संयोगविप्रलम्भजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव त्रीकथा। राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपञ्च:। चौराणांचौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम्। अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमण्डकावलीखण्डदधिखण्डसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा।</span> = <span class="HindiText">जिन्होंके काम अति वृद्धि को प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियों की संयोग-वियोगजनित विविधवचन रचना, वही <strong>त्रीकथा</strong> है। राजाओं का युद्धहेतुक कथन <strong>राजकथा</strong> प्रपञ्च है। चोरों का चोर-प्रयोग कथन <strong>चोरकथाविधान</strong> है। अति वृद्धि को प्राप्त भोजन की प्रीति द्वारा मैदा की पूरी और शक्कर, दही-शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेकप्रकार के अशन-पान की प्रशंसा भक्तकथा या <strong>भोजन कथा</strong> है।<br /> | |||
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<li name="9" id="9"><span class="HindiText"><strong> अर्थ व काम कथाओं में धर्मकथा व विकथापना</strong></span><br /> | |||
म.पु./१/११९ <span class="SanskritText">तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा। अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्रवकारणम्।११९।</span>=<span class="HindiText">धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा (धर्मकथा) कहलाती है। यदि यही अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापास्रव का ही कारण होगी।११९। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> किसको कब कौन कथा का उपदेश देना चाहिए – दे</strong>०<strong> उपदेश ३।</strong> </span></li> | |||
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Revision as of 14:30, 24 December 2013
म.पु./१/११८ पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा। = मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा कहलाती है।
- कथा के भेद
म.पु./१/११८-१२० -(सत्कथा, विकथा व धर्मकथा)।
भ.आ./मू./६५५/८५२ आक्खेवणी य विक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स।=आक्षेपिणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी -ऐसे (धर्म) कथा के चार भेद हैं। (ध.१/१,१,२/१०४/६), (गो. जी./जी.प्र./३५७/७६५/१८) (अन. ध./७/८८/७१६)।
- धर्मकथा व सत्कथा के लक्षण
ध.९/४,१ ५५/२६३/४ एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्वो।
= एक अंग के एक अधिकार के उपसंहार का नाम धर्मकथा है। उसमें जो उपयोग है वह भी धर्मकथा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (ध.१४/५.६.१४/९/६)।
म.पु./१/१२०,११८ यतोऽभ्युदयनि:श्रेयसार्थ संसिद्धिरञ्जसा। सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता।१२०।... । तत्रापि सत्कथां धर्म्यामामनन्ति मनीषिण:।११८।
=जिससे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वास्तव में वही धर्म कहलाता हे। उससे सम्बन्ध रखने वाली जो कथा है उसे सद्धर्मकथा कहते हैं।१२०। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान पुरुष सत्कथा कहते हैं।११८।
गो. क./जी.प्र./८८/७४/८ अनुयोगादि धर्मकथा च भवति।= प्रथमानुयोगादि रूप शास्त्र सो धर्मकथा कहिए।
- आक्षेपणी कथा का लक्षण
भ.आ./मू. व वि./५५६/८५३ आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ।...।६५६। आक्षेपणी कथा भण्यते। यस्यां कथायां ज्ञानं चारित्रं चोपदिश्यते।=जिसमें मति आदि सम्यग्ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यग्चारित्रों का निरूपण किया जाता है वह आक्षेपणी कथा है।
ध. १/१,१,२/१०५/१ तथा श्लो. ७५/१०६ तत्थ अक्खेवणीणाम छद्दव्वणवपयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धिं करेंती परूवेदि। उक्तं च-आक्षेपणीं तत्त्वविधानभूतां।...।७५। =जो नाना प्रकार की एकान्तदृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। ... कहा भी है–तत्त्वों का निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है।
गो.जी./जी.प्र./३५७/७६५/१९ तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीर्थंकरादिवृत्तान्तलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा =तहाँ तीर्थंकरादि के वृत्तान्तरूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णनरूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनका कथन अर परमत की शंका दूर करिए सो आक्षेपणी कथा है।
अन.ध./७/८८/७१६ आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी,...।=जिसके द्वारा अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त का यथायोग्य समर्थन हो उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।
- विक्षेपणी कथा का लक्षण
भ.आ./मू. व वि./६५६/८५३ ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम।६५६। - या कथा स्वसमयं परसमयं वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी भण्यते। सर्वथानित्यं...इत्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्श्य कथंचिन्नित्यं...इत्यादि स्वसमयनिरूपणा च - विक्षेपणी। =जिस कथा में जैन मत के सिद्धान्तों का और परमत का निरूपण हैउसको विक्षेपणी कथा कहते हैं। जैसे ‘वस्तु सर्वथा नित्य ही है’ इत्यादि अन्य मतों के एकान्त सिद्धान्तों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर पक्ष में वे सिद्धान्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, ऐसा सिद्ध करके, वस्तु का स्वरूप कथंचित् नित्य इत्यादि रूप से जैनमत के अनेकान्त को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है।
ध.१/१,१,२/१०५/२ तथा श्लो.नं. ७५/१०६ विक्खेवणी णाम पर-समएण स-समयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करेंती स-समयं थावंती छदव्व-णव-पयत्थे परूवेदि।...उक्तं च - विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तरशुद्धिम्।...।७५। =जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं। अनन्तर परसमय की आधारभूत अनेक एकान्तदृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छहद्रव्य नौ पदार्थौं का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं। कहा भी है - तत्त्व से दिशान्तर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करनेवाली अर्थात् परमत की एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६५/२०) (अन.ध./७/८८/७१६)।
- संवेजनी कथा का लक्षण
भ.आ./मू. व वि./६५७/८५४ संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तववीरिय इट्ठिगदा/६५७/... संवेजनी पुन: कथा ज्ञानचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपन्निरूपणपरा।
=ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मा में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथा को संवेजनी कथा कहते हैं।
ध.१/१,१,२/१०५/४ तथा श्लो.७५/१०६ संवेयणी णाम पुण्य-फल-संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्तं च – ‘संवेगनी धर्मफलप्रपञ्चा...।७५। =पुण्य के फल का कथन करनेवाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्य के फल कौन से हैं ? तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। कहा भी है – विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६६/१) (अन.ध./७/८८/७१६)।
- निर्वेजनी कथा का लक्षण
भ.आ.मू.व.वि./६५७/८५४ णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य।६५७।...निर्वेजनी पुन: कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावा: प्राणप्रभृत: इति शरीरतत्त्वाश्रयणात्। तथा भोगा दुर्लभा:...लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्तिं जनयन्ति। अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति। देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दु:खबहुलौ अल्पसुखौ इति निरूपणात्।
=शरीर, भोग और जन्म परम्परा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथा का निर्वेजनी कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासा - शरीर अपवित्र है, शरीर के आश्रय से आत्मा की अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होने से अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जाने से महान् दु:ख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दु:खों से भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इसप्रकार का वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है (अन.ध./७/८८/७१६)।
ध.१/१,१,२/१०५/५ तथा श्लोक ७५/१०६ णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि। णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिव्वेयणी णाम। उक्तं च - निर्वेगिनी चाह कथां विरागाम्।७५। =पाप के फल का वर्णन करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। पाप के फल कौन से हैं ? नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। - अथवा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं । कहा भी है - वैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/७६६/१) ।
- विकथा के भेद
नि.सा./मू./६७ थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स।...। = पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है।
मू.आ./मू./८५५-८५६ इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकव्वडाणं च। रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।८५५। णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अज्जउललंघियाणं कहासु ण विरज्जए धीरा:।८५६। =त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, केवल पर्वत से घिरे हुए स्थान की कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि सम्बन्धी कथा।८५५। नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपटजीवी व्याध व ज्वारी की कथा, हिंसकों की कथा, ये सब लौकिकी कथा (विकथा) है। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।८५६।
गो.जी./जी.प्र./४४/८४/१७ तद्यथा - स्त्रीकथा अर्थकथा भोजनकथा राजकथा चोरकथा वैरकथा परपाखण्डकथा देशकथा भाषाकथा गुणबन्धकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कन्दर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवादकथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारम्भकथा संगीतवाद्यकथा चेति विकथा पञ्चविंशति:। =स्त्रीकथा, अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा, भाषा कथा (कहानी इत्यादि), गुणप्रतिबन्धकथा, देवीकथा, निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कन्दर्प (काम) कथा, देशकाल के अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिन्दा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरम्भ कथा, संगीतवादित्रादि कथा -ऐसे विकथा २५ भेद संयुक्त हैं।
- स्त्रीकथा आदि चार विकथाओं के लक्षण
नि.सा./ता.वृ./६७ अतिप्रवृद्धकामै: कामुकजनै: त्रीणा संयोगविप्रलम्भजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव त्रीकथा। राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपञ्च:। चौराणांचौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम्। अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमण्डकावलीखण्डदधिखण्डसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा। = जिन्होंके काम अति वृद्धि को प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियों की संयोग-वियोगजनित विविधवचन रचना, वही त्रीकथा है। राजाओं का युद्धहेतुक कथन राजकथा प्रपञ्च है। चोरों का चोर-प्रयोग कथन चोरकथाविधान है। अति वृद्धि को प्राप्त भोजन की प्रीति द्वारा मैदा की पूरी और शक्कर, दही-शक्कर, मिसरी इत्यादि अनेकप्रकार के अशन-पान की प्रशंसा भक्तकथा या भोजन कथा है।
- अर्थ व काम कथाओं में धर्मकथा व विकथापना
म.पु./१/११९ तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा। अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्रवकारणम्।११९।=धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत: धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा (धर्मकथा) कहलाती है। यदि यही अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापास्रव का ही कारण होगी।११९।
- किसको कब कौन कथा का उपदेश देना चाहिए – दे० उपदेश ३।