कषाय पाहुड: Difference between revisions
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<p class="HindiText">यह ग्रन्थ मूल सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसे आ॰ गुणधर (वि.पू.श.१) ने ज्ञान विच्छेद के भय से पहले केवल १८० गाथाओं में निबद्ध किया था। आचार्य परम्परा से उसके ज्ञान को प्राप्त करके आचार्य आर्यमंक्षु व नागहस्ति ने ई० ९३-१६२ में पीछे इसे २१५ गाथा प्रमाण कर दिया। उनके सान्निध्य में ही ज्ञान प्राप्त करके यतिवृषभाचार्य ने ई० १५०-१८० में इसको १५ अधिकार में विभाजित करके इस पर ६००० चूर्णसूत्रों की रचना की। इन्हीं चूर्णसूत्रों के आधार पर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखी। इसी उच्चारणा के आधार पर आ० बप्पदेव ने ई० श० ५-६ में एक और भी संक्षिप्त उच्चारणा लिखी। इन्हीं आचार्य बप्पदेव से सिद्धान्तज्ञान प्राप्त करके पीछे ई० ८१६ में आ० वीरसेन स्वामी ने इस पर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला नाम की अधूरी टीका लिखी, जिसे उनके पश्चात् उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने ई० ८३७ में ४०,००० श्लोक प्रमाण और भी रचना करके पूरी की। इस ग्रन्थ पर उपरोक्त प्रकार अनेकों टीकाएँ लिखी गयीं। आचार्य नागहस्ती द्वारा रची गयी ३५ गाथाओं के सम्बंध में आचार्यों का कुछ मतभेद है यथा— </p> | |||
<p class="HindiText"><strong>२. ३५ गाथाओं के रचयिता सम्बंधी दृष्टि भेद</strong></p> | |||
<p>क.पा.१/१,१३/१४७-१४८/१८३/२<span class="HindiText"> संकमम्मि वुत्तपणतीसवित्तिगाहाओ बंधगत्थाहियारपडिबद्धाओ त्ति असीदिसदगाहासु पवेसिय किण्ण पइज्जा कदा। वुच्चदे, एदाओ पणतीसगाहाओ तीहि गाहाहि परूविदपंचसु अत्थाहियारेसु तत्थ बंधगोत्थि अत्थाहियारे पडिबद्धाओ। अहवा अत्थावत्तिलब्भाओ त्ति ण तत्थ एदाओ पवेसिय वुत्ताओ। असीदि-सदगाहाओ मोत्तूण अवसेससंबंधद्धापरिमाणणिद्देस-संकमणगाहाओ जेण णागहत्थि आइरियकयाओ तेण ‘गाहासदे असीदे’ त्ति भणिदूण णागहत्थि आइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्खाणाइरिया भणंति; तण्ण धडदे; संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणिद्देसगाहाहि संकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणंतस्स गुणहरभडारयस्स अयाणत्तप्पसंगादो। तम्हा पुव्वुत्थो चेव घेत्तव्वो।=<strong>प्रश्न</strong>—संक्रमण में कही गयीं पैंतीस वृत्तिगाथाएँ बन्धक नामक अधिकार से प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन्हें १८० गाथाओं में सम्मिलित करके प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ? अर्थात् १८० के स्थान पर २१५ गाथाओं की प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ?<strong> उत्तर—</strong>ये पैंतीस गाथाएँ तीन गाथाओं के द्वारा प्ररूपित किये गये पाँच अर्थाधिकारों में से बन्धक नाम के ही अर्थाधिकार में प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन ३५ गाथाओं को १८० गाथाओं में सम्मिलित नहीं किया, क्योंकि तीन गाथाओं के द्वारा प्ररूपित अर्थाधिकार में से एक अर्थाधिकार में ही वे ३५ गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं। अथवा यह बात अर्थापत्ति से ज्ञात हो जाती है कि ये ३५ गाथाएँ बन्धक अधिकार में प्रतिबद्ध हैं। ’चूँकि १८० गाथाओं को छोड़कर सम्बन्ध अद्धापरिमाण और संक्रमण का निर्देश करने वाली शेष गाथाएँ नागहस्ति आचार्य ने रची हैं; इसलिए ‘गाहासदे असीदे’ ऐसा कहकर नागहस्ति आचार्य ने १८० गाथाओं की प्रतिज्ञा की है, ऐसा कुछ व्याख्यानाचार्य कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सम्बन्ध गाथाओं, अद्धापरिमाण का निर्देश करने वाली गाथाओं और संक्रम गाथाओं के बिना १८० गाथाएँ ही गुणधर भट्टारक ने कही हैं। यदि ऐसा माना जाय तो गुणधर भट्टारक को अज्ञपने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए। (विशेष देखें - [[ परिशिष्ट#1 | परिशिष्ट / १]]) </span></p> | |||
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Revision as of 21:16, 24 December 2013
यह ग्रन्थ मूल सिद्धान्त ग्रन्थ है जिसे आ॰ गुणधर (वि.पू.श.१) ने ज्ञान विच्छेद के भय से पहले केवल १८० गाथाओं में निबद्ध किया था। आचार्य परम्परा से उसके ज्ञान को प्राप्त करके आचार्य आर्यमंक्षु व नागहस्ति ने ई० ९३-१६२ में पीछे इसे २१५ गाथा प्रमाण कर दिया। उनके सान्निध्य में ही ज्ञान प्राप्त करके यतिवृषभाचार्य ने ई० १५०-१८० में इसको १५ अधिकार में विभाजित करके इस पर ६००० चूर्णसूत्रों की रचना की। इन्हीं चूर्णसूत्रों के आधार पर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखी। इसी उच्चारणा के आधार पर आ० बप्पदेव ने ई० श० ५-६ में एक और भी संक्षिप्त उच्चारणा लिखी। इन्हीं आचार्य बप्पदेव से सिद्धान्तज्ञान प्राप्त करके पीछे ई० ८१६ में आ० वीरसेन स्वामी ने इस पर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधवला नाम की अधूरी टीका लिखी, जिसे उनके पश्चात् उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने ई० ८३७ में ४०,००० श्लोक प्रमाण और भी रचना करके पूरी की। इस ग्रन्थ पर उपरोक्त प्रकार अनेकों टीकाएँ लिखी गयीं। आचार्य नागहस्ती द्वारा रची गयी ३५ गाथाओं के सम्बंध में आचार्यों का कुछ मतभेद है यथा—
२. ३५ गाथाओं के रचयिता सम्बंधी दृष्टि भेद
क.पा.१/१,१३/१४७-१४८/१८३/२ संकमम्मि वुत्तपणतीसवित्तिगाहाओ बंधगत्थाहियारपडिबद्धाओ त्ति असीदिसदगाहासु पवेसिय किण्ण पइज्जा कदा। वुच्चदे, एदाओ पणतीसगाहाओ तीहि गाहाहि परूविदपंचसु अत्थाहियारेसु तत्थ बंधगोत्थि अत्थाहियारे पडिबद्धाओ। अहवा अत्थावत्तिलब्भाओ त्ति ण तत्थ एदाओ पवेसिय वुत्ताओ। असीदि-सदगाहाओ मोत्तूण अवसेससंबंधद्धापरिमाणणिद्देस-संकमणगाहाओ जेण णागहत्थि आइरियकयाओ तेण ‘गाहासदे असीदे’ त्ति भणिदूण णागहत्थि आइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्खाणाइरिया भणंति; तण्ण धडदे; संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणिद्देसगाहाहि संकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणंतस्स गुणहरभडारयस्स अयाणत्तप्पसंगादो। तम्हा पुव्वुत्थो चेव घेत्तव्वो।=प्रश्न—संक्रमण में कही गयीं पैंतीस वृत्तिगाथाएँ बन्धक नामक अधिकार से प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन्हें १८० गाथाओं में सम्मिलित करके प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ? अर्थात् १८० के स्थान पर २१५ गाथाओं की प्रतिज्ञा क्यों नहीं की ? उत्तर—ये पैंतीस गाथाएँ तीन गाथाओं के द्वारा प्ररूपित किये गये पाँच अर्थाधिकारों में से बन्धक नाम के ही अर्थाधिकार में प्रतिबद्ध हैं, इसलिए इन ३५ गाथाओं को १८० गाथाओं में सम्मिलित नहीं किया, क्योंकि तीन गाथाओं के द्वारा प्ररूपित अर्थाधिकार में से एक अर्थाधिकार में ही वे ३५ गाथाएँ प्रतिबद्ध हैं। अथवा यह बात अर्थापत्ति से ज्ञात हो जाती है कि ये ३५ गाथाएँ बन्धक अधिकार में प्रतिबद्ध हैं। ’चूँकि १८० गाथाओं को छोड़कर सम्बन्ध अद्धापरिमाण और संक्रमण का निर्देश करने वाली शेष गाथाएँ नागहस्ति आचार्य ने रची हैं; इसलिए ‘गाहासदे असीदे’ ऐसा कहकर नागहस्ति आचार्य ने १८० गाथाओं की प्रतिज्ञा की है, ऐसा कुछ व्याख्यानाचार्य कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सम्बन्ध गाथाओं, अद्धापरिमाण का निर्देश करने वाली गाथाओं और संक्रम गाथाओं के बिना १८० गाथाएँ ही गुणधर भट्टारक ने कही हैं। यदि ऐसा माना जाय तो गुणधर भट्टारक को अज्ञपने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए। (विशेष देखें - परिशिष्ट / १)