पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 135 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>तृषातुर, क्षुधातुर या दुखित किसी प्राणी को देखकर जो | <p>तृषातुर, क्षुधातुर या दुखित किसी प्राणी को देखकर जो <span class="AnvayArth">हि दुहिदमणो</span> जो वास्तव में दुखित मन होता हुआ <span class="AnvayArth">पडिवज्जदि तं किवया</span> उस प्राणी को कृपा पूर्वक स्वीकार करता है, <span class="AnvayArth">तस्सेसा होदि अणुकंपा</span> उसके यह अनुकम्पा होती है ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- तीव्र प्यास, तीव्र क्षुधा, तीव्र रोग आदि से पीड़ित को देखकर 'किसी भी उपाय से प्रतीकार करता हूँ' -- इसप्रकार अज्ञानी जीव व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; परंतु ज्ञानी तो स्वयं की भावना / आत्मलीनता को प्राप्त न करता हुआ संक्लेश के परित्याग पूर्वक यथा-सम्भव प्रतिकार करता है, तथा उस दुखी को देखकर विशेष संवेग-वैराग्य भावना करता है, ऐसा सूत्र तात्पर्य है ॥१४५॥</p> | <p>वह इसप्रकार -- तीव्र प्यास, तीव्र क्षुधा, तीव्र रोग आदि से पीड़ित को देखकर 'किसी भी उपाय से प्रतीकार करता हूँ' -- इसप्रकार अज्ञानी जीव व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; परंतु ज्ञानी तो स्वयं की भावना / आत्मलीनता को प्राप्त न करता हुआ संक्लेश के परित्याग पूर्वक यथा-सम्भव प्रतिकार करता है, तथा उस दुखी को देखकर विशेष संवेग-वैराग्य भावना करता है, ऐसा सूत्र तात्पर्य है ॥१४५॥</p> | ||
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Revision as of 16:51, 24 August 2021
तृषातुर, क्षुधातुर या दुखित किसी प्राणी को देखकर जो हि दुहिदमणो जो वास्तव में दुखित मन होता हुआ पडिवज्जदि तं किवया उस प्राणी को कृपा पूर्वक स्वीकार करता है, तस्सेसा होदि अणुकंपा उसके यह अनुकम्पा होती है ।
वह इसप्रकार -- तीव्र प्यास, तीव्र क्षुधा, तीव्र रोग आदि से पीड़ित को देखकर 'किसी भी उपाय से प्रतीकार करता हूँ' -- इसप्रकार अज्ञानी जीव व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; परंतु ज्ञानी तो स्वयं की भावना / आत्मलीनता को प्राप्त न करता हुआ संक्लेश के परित्याग पूर्वक यथा-सम्भव प्रतिकार करता है, तथा उस दुखी को देखकर विशेष संवेग-वैराग्य भावना करता है, ऐसा सूत्र तात्पर्य है ॥१४५॥