पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 19 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="G_HindiText"> | <div class="G_HindiText"> | ||
<p>अब इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिक-नय से सत का विनाश नहीं है और असत का उत्पाद नहीं है, इसे निश्चित करते हैं--</p> | <p>अब इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिक-नय से सत का विनाश नहीं है और असत का उत्पाद नहीं है, इसे निश्चित करते हैं--</p> | ||
<p> | <p><span class="AnvayArth">एवं सदो विणासो असदो भावस्स णत्थि उप्पादो</span> इसप्रकार पूर्वोक्त तीन गाथाओं में किए पर्यायार्थिक-नय के व्याख्यान द्वारा मनुष्य नारकादि रूप से उत्पाद-विनाशत्व घटित होता है; तथापि द्रव्यार्थिक-नय से सत / विद्यमान का विनाश और असत / अविद्यमान का उत्पाद नहीं है । यह किसका नहीं है? जीव पदार्थ का नहीं है ।</p> | ||
<p></p> | <p></p> | ||
<p>प्रश्न - यदि उत्पाद-व्यय नहीं होगा तो भोगभूमि में तीन पल्य प्रमाण रहकर बाद में मरता है; देवलोक-नरकलोक में तेंतीस सागरोपम रहता है, बाद में मरता है इत्यादि व्याख्यान कैसे घटित होता है? </p> | <p>प्रश्न - यदि उत्पाद-व्यय नहीं होगा तो भोगभूमि में तीन पल्य प्रमाण रहकर बाद में मरता है; देवलोक-नरकलोक में तेंतीस सागरोपम रहता है, बाद में मरता है इत्यादि व्याख्यान कैसे घटित होता है? </p> | ||
<p>उत्तर - | <p>उत्तर - <span class="AnvayArth">तावादिओ जीवाणं देवो मणुसोत्ति गदिणामो</span> जीवों का जो तीन पल्य आदि रूप परिमाण और देव-मनुष्य इत्यादि कहा जाता है, वह तो वेणुदण्ड के समान जो गति नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न पर्याय है, उसका परिमाण है, जीव-द्रव्य का नहीं; अत: विरोध नहीं है । वह इसप्रकार-- जैसे एक विशाल वेणुदण्ड (बाँस) के अनेक पर्व (पोरें / दो गाँठों के बीच का भाग) अपने स्थान पर होने की योग्यता रूप में विद्यमान है, अन्य पर्व स्थानों पर नहीं होने की योग्यता रूप में विद्यमान नहीं है । वंश दण्ड (बाँस) तो सभी पर्व स्थानों में अन्वय रूप से विद्यमान होने पर भी प्रथम पर्व रूप से द्वितीय पर्व में नहीं; अत: वहाँ अविद्यमान भी कहलाता है; उसीप्रकार वेणुदण्ड स्थानीय जीव में पर्व-स्थानीय मनुष्य, नारक आदि रूप अनेक पर्यायें अपने आयु-कर्म के उदयकाल में विद्यमान हैं, दूसरी पर्याय के काल में विद्यमान नहीं हैं और जीव तो अन्वय रूप से सर्व पर्व स्थानीय सभी पर्यायों में विद्यमान होने पर भी, मनुष्यादि पर्याय रूप से देवादि पर्यायों में नहीं है; अत: अविद्यमान भी कहलाता है।</p> | ||
<p></p> | <p></p> | ||
<p>(एक में ही) वही नित्य, वही अनित्य कैसे घटित होता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- जैसे एक देवदत्त के पुत्र विवक्षा काल में पिता की विवक्षा गौण है, पिता की विवक्षा के समय पुत्र विवक्षा गौण है; उसीप्रकार एक जीव या जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक-नय से नित्यत्व की विवक्षा के समय पर्यायरूप से अनित्यता गौण है । पर्यायरूप से अनित्यता की विवक्षा के समय द्रव्यरूप से नित्यता गौण है । ऐसा कैसे होता है? 'विवक्षित (जिसे हम कहना चाहते हैं वह) मुख्य होता है' -ऐसा वचन होने से यह बन जाता है ।</p> | <p>(एक में ही) वही नित्य, वही अनित्य कैसे घटित होता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- जैसे एक देवदत्त के पुत्र विवक्षा काल में पिता की विवक्षा गौण है, पिता की विवक्षा के समय पुत्र विवक्षा गौण है; उसीप्रकार एक जीव या जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक-नय से नित्यत्व की विवक्षा के समय पर्यायरूप से अनित्यता गौण है । पर्यायरूप से अनित्यता की विवक्षा के समय द्रव्यरूप से नित्यता गौण है । ऐसा कैसे होता है? 'विवक्षित (जिसे हम कहना चाहते हैं वह) मुख्य होता है' -ऐसा वचन होने से यह बन जाता है ।</p> |
Revision as of 16:51, 24 August 2021
अब इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिक-नय से सत का विनाश नहीं है और असत का उत्पाद नहीं है, इसे निश्चित करते हैं--
एवं सदो विणासो असदो भावस्स णत्थि उप्पादो इसप्रकार पूर्वोक्त तीन गाथाओं में किए पर्यायार्थिक-नय के व्याख्यान द्वारा मनुष्य नारकादि रूप से उत्पाद-विनाशत्व घटित होता है; तथापि द्रव्यार्थिक-नय से सत / विद्यमान का विनाश और असत / अविद्यमान का उत्पाद नहीं है । यह किसका नहीं है? जीव पदार्थ का नहीं है ।
प्रश्न - यदि उत्पाद-व्यय नहीं होगा तो भोगभूमि में तीन पल्य प्रमाण रहकर बाद में मरता है; देवलोक-नरकलोक में तेंतीस सागरोपम रहता है, बाद में मरता है इत्यादि व्याख्यान कैसे घटित होता है?
उत्तर - तावादिओ जीवाणं देवो मणुसोत्ति गदिणामो जीवों का जो तीन पल्य आदि रूप परिमाण और देव-मनुष्य इत्यादि कहा जाता है, वह तो वेणुदण्ड के समान जो गति नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न पर्याय है, उसका परिमाण है, जीव-द्रव्य का नहीं; अत: विरोध नहीं है । वह इसप्रकार-- जैसे एक विशाल वेणुदण्ड (बाँस) के अनेक पर्व (पोरें / दो गाँठों के बीच का भाग) अपने स्थान पर होने की योग्यता रूप में विद्यमान है, अन्य पर्व स्थानों पर नहीं होने की योग्यता रूप में विद्यमान नहीं है । वंश दण्ड (बाँस) तो सभी पर्व स्थानों में अन्वय रूप से विद्यमान होने पर भी प्रथम पर्व रूप से द्वितीय पर्व में नहीं; अत: वहाँ अविद्यमान भी कहलाता है; उसीप्रकार वेणुदण्ड स्थानीय जीव में पर्व-स्थानीय मनुष्य, नारक आदि रूप अनेक पर्यायें अपने आयु-कर्म के उदयकाल में विद्यमान हैं, दूसरी पर्याय के काल में विद्यमान नहीं हैं और जीव तो अन्वय रूप से सर्व पर्व स्थानीय सभी पर्यायों में विद्यमान होने पर भी, मनुष्यादि पर्याय रूप से देवादि पर्यायों में नहीं है; अत: अविद्यमान भी कहलाता है।
(एक में ही) वही नित्य, वही अनित्य कैसे घटित होता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- जैसे एक देवदत्त के पुत्र विवक्षा काल में पिता की विवक्षा गौण है, पिता की विवक्षा के समय पुत्र विवक्षा गौण है; उसीप्रकार एक जीव या जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक-नय से नित्यत्व की विवक्षा के समय पर्यायरूप से अनित्यता गौण है । पर्यायरूप से अनित्यता की विवक्षा के समय द्रव्यरूप से नित्यता गौण है । ऐसा कैसे होता है? 'विवक्षित (जिसे हम कहना चाहते हैं वह) मुख्य होता है' -ऐसा वचन होने से यह बन जाता है ।
यहाँ पर्यायरूप से अनित्यता होने पर भी शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय से अविनश्वर, अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नामक शुद्धात्म-द्रव्य रागादि के त्यागमय उपादेय-रूप से भावना करने योग्य है ऐसा भावार्थ है ॥१९॥
इस प्रकार प्रथम स्थल में बौद्ध मत के निराकरणार्थ एक सूत्र-गाथा पहले कही थी, उसके विवरण हेतु द्वितीय स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।