पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 59 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p> | <p><span class="AnvayArth">भावो</span> निर्मल चैतन्य ज्योति स्वभावरूप शुद्ध जीवास्तिकाय से प्रतिपक्षभूत भाव, मिथ्यात्व-रागादि परिणाम । वह किस विशेषता वाला है ? <span class="AnvayArth">कम्मणिमित्तो</span> कर्मोदय से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र परमात्म-स्वभाव से प्रतिपक्ष-भूत जो उदयागत कर्म, वह है निमित्त जिसका, वह कर्म निमित्त है । <span class="AnvayArth">कम्मं पुण</span> ज्ञानावरणादि कर्म से रहित, शुद्धात्म-तत्त्व से विलक्षण जो भावि (नवीन बंध के योग्य) द्रव्य-कर्म है । वह कैसा है ? <span class="AnvayArth">भावकरणं हवदि</span> निर्विकार शुद्धात्मोपलब्धि-रूप भाव से प्रतिपक्ष-भूत जो वह रागादि-भाव है, वह है कारण जिसका, वह भाव-कारण, भाव-निमित्तक है। <span class="AnvayArth">ण दु</span> परन्तु नहीं है, <span class="AnvayArth">तेसिं</span> उन जीव-गत रागादि-भाव और द्रव्य-कर्मों के । उनके क्या नहीं है ? परस्पर उपादान कर्तापना नहीं है; खलु वास्तव में । <span class="AnvayArth">ण विणा</span> तथापि बिना नहीं <span class="AnvayArth">भूदा</span> वे द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म दोनों उत्पन्न होते हैं । किनके बिना वे उत्पन्न नहीं होते ? <span class="AnvayArth">कत्तारं</span> उपादान कर्ता के बिना वे उत्पन्न नहीं होते । अपितु जीव-गत रागादि भावों का जीव ही उपादान कर्ता है तथा द्रव्य-कर्मों का कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल ही कर्ता है । </p> | ||
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<p>द्वितीय व्याख्यान में यद्यपि जीव का शुद्ध-नय से अकर्तृत्व है; तथापि विचार्यमाण (जिस पर अभी विचार किया जा रहा है उस) अशुद्ध-नय से कर्तृत्व स्थित हुआ -- ऐसा भावार्थ है ॥६६॥</p> | <p>द्वितीय व्याख्यान में यद्यपि जीव का शुद्ध-नय से अकर्तृत्व है; तथापि विचार्यमाण (जिस पर अभी विचार किया जा रहा है उस) अशुद्ध-नय से कर्तृत्व स्थित हुआ -- ऐसा भावार्थ है ॥६६॥</p> |
Revision as of 16:51, 24 August 2021
भावो निर्मल चैतन्य ज्योति स्वभावरूप शुद्ध जीवास्तिकाय से प्रतिपक्षभूत भाव, मिथ्यात्व-रागादि परिणाम । वह किस विशेषता वाला है ? कम्मणिमित्तो कर्मोदय से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र परमात्म-स्वभाव से प्रतिपक्ष-भूत जो उदयागत कर्म, वह है निमित्त जिसका, वह कर्म निमित्त है । कम्मं पुण ज्ञानावरणादि कर्म से रहित, शुद्धात्म-तत्त्व से विलक्षण जो भावि (नवीन बंध के योग्य) द्रव्य-कर्म है । वह कैसा है ? भावकरणं हवदि निर्विकार शुद्धात्मोपलब्धि-रूप भाव से प्रतिपक्ष-भूत जो वह रागादि-भाव है, वह है कारण जिसका, वह भाव-कारण, भाव-निमित्तक है। ण दु परन्तु नहीं है, तेसिं उन जीव-गत रागादि-भाव और द्रव्य-कर्मों के । उनके क्या नहीं है ? परस्पर उपादान कर्तापना नहीं है; खलु वास्तव में । ण विणा तथापि बिना नहीं भूदा वे द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म दोनों उत्पन्न होते हैं । किनके बिना वे उत्पन्न नहीं होते ? कत्तारं उपादान कर्ता के बिना वे उत्पन्न नहीं होते । अपितु जीव-गत रागादि भावों का जीव ही उपादान कर्ता है तथा द्रव्य-कर्मों का कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल ही कर्ता है ।
द्वितीय व्याख्यान में यद्यपि जीव का शुद्ध-नय से अकर्तृत्व है; तथापि विचार्यमाण (जिस पर अभी विचार किया जा रहा है उस) अशुद्ध-नय से कर्तृत्व स्थित हुआ -- ऐसा भावार्थ है ॥६६॥
इसप्रकार प्रथम व्याख्यान के पक्ष में वहाँ पूर्व गाथा में पूर्व-पक्ष और यहाँ पुन: उत्तर, इसप्रकार दो गाथायें पूर्ण हुईं ।