केवली 07: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
स.सि./९/४४/४५७/३ <span class="SanskritText">लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।</span>=<span class="HindiText">जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनन्तर के विसर्पण का संकोच करके...।</span><br /> | |||
रा.वा./१/२०/१२/७७/१९ <span class="SanskritText">द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।</span>=<span class="HindiText">जैसे मदिरा में फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।</span><br /> | |||
ध.१३/२/६१/३००/९<span class="PrakritText"> दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।</span>=<span class="HindiText">दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। (पं.का./ता.वृ./१५३/२२१)।<br /> | |||
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/ > | <li><span class="HindiText"><strong> भेद-प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
ध.४/,१,३,२/२८/८<span class="PrakritText"> दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो।</span> =<span class="HindiText">दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।</span><br /> | |||
गो.जी./जी.प्र./५४४/९५३/१४ <span class="SanskritText">केवलिसमुद्घात: दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दण्डसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।</span>=<span class="HindiText">केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दण्ड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> दण्डादि भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | |||
ध.४/१,३,२/२८/८ <span class="PrakritText">तत्थ दण्डसमुग्घादो णाम पुव्वसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोद्दसरज्जुविसप्पणं। कवाडसमुग्घादो णाम पुव्विल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरितसव्वखेत्तावूरणं। पदरसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सव्वलोगावूरणं। लोगपूरणसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगवूरणं।</span>=<span class="HindiText">जिसकी अपने विष्कंभ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीर से तिगुने बाहल्यरूप दण्डाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलने का नाम दण्ड समुद्घात है। दण्ड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व पश्चिम में वातवलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। (ध./१३/५/४/२६/२) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./२१०९ <span class="PrakritGatha">उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा। वच्चंति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे।२१०९।</span>=<span class="HindiText">उत्कर्ष से जिनका आयु छह महीने का अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियम से समुद्घात को प्राप्त होते हैं। बाकी के केवलियों को आयुष्य अधिक होने पर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (पं.सं./प्रा.१/२००); (ध.१/१,१,३०/१६७); (ज्ञा./४२/४२); (वसु.श्रा./५३०)</span><br /> | |||
ध.१/१,१,६०/३०२/२<span class="SanskritText"> यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: सन्तो निर्वृत्तिमुपढौकन्ते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयन्ति। के न समुद्घातयन्ति।</span>=<span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में सम्पूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।</span><BR>ध.१३/५,४,३१/१५१/१३ <span class="PrakritText">सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।</span>=<span class="HindiText">मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने सम्बन्धी दो मत </strong> </span><br /> | |||
ध.१/१,१,६०/१६७/३०३ <span class="PrakritText">छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलणाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।१६७। एदिस्से गाहाए उवएसे किण्ण गहिओ। ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—छह माह प्रमाण आयु के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घात को करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।१६७। (भ.आ./मू./२१०९) इस पूर्वोक्त गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> कदाचित् आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./२११२ <span class="PrakritText">अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।२११२।</span>=<span class="HindiText">आयुकर्म जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। (स.सि./९/४४/४५७/१); (ध.१३/५,४,२६/८४/१); (क्ष.सा./६२०); (प्र.सा./ता.वृ./१५३/१३१)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण</strong></span><br /> | |||
स.सि./५/८/२७४/११ <span class="SanskritText">यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।</span> =<span class="HindiText">केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। (रा.वा./५/८/४/४५०/१)</span><br /> | |||
ध.११/४,२,५,१७/३१/११ <span class="PrakritText">केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।</span>=<span class="HindiText">दण्ड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। <strong>प्रश्न—</strong>तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दण्ड समुद्घात को करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दण्ड समुद्घात को करते हैं।</span><br /> | |||
<strong>गो.जी./जी.प्र./५४४/९५३</strong><span class="HindiText"> केवल भाषार्थ—दण्ड—स्थितिदण्ड समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय के बिना लोक की ऊँचाई किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाणतैं लंबै बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश हैं। स्थितिदण्ड के क्षेत्र को नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदण्ड विषै क्षेत्र हो है। सो यहाँ ३६ अंगुल चौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घातविषै एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोकप्रमाण तो लम्बे हो हैं सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक की चौड़ाई प्रमाण चौड़े हो हैं सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक सर्वत्र सात राजू चौड़ा है तातैं सात राजू प्रमाण चौड़े हो है। बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊँचे हो हैं।<br /> | |||
पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव सम्बन्धी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।<br /> | |||
क्ष.सा./६२३/७३५/८-११ भाषार्थ—कायोत्सर्ग स्थित केवली के दण्ड समुद्घात उत्कृष्ट १०८ प्रमाण अंगुल ऊँचा, १२ प्रामाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि ३७<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0034.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है। पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दण्ड समुद्घात विषैं ऊँचाई ३६ प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि ११३ <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> कुल आठ समय पर्यन्त रहता है</strong> </span><br /> | |||
रा.वा./१/२०/१२/७७/२७<span class="SanskritText"> केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदण्डस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति।</span><span class="HindiText"> केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दण्ड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दण्ड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम</strong></span><br /> | |||
पं.सं./प्रा./१९७-१९८ <span class="PrakritGatha">पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए। तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूणयं।१९७। विवरं पंच समए जोई मंथाणयं तदो छट्ठे। सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं।१९८।</span>= <span class="HindiText">समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डरूप समुद्घात करते हैं। द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समय में लोक-पूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुन: छट्ठे समय में मन्थान (प्रतर) गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाट-गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दण्डसमुद्घातगत आत्म–प्रदेशों का संवरण करते हैं। (भ.आ./मू./२११५); (क्ष.सा./मू./६२७); (क्ष.सा./भा/६२३)।</span><br /> | |||
क्ष.सा./मू./६२१ <span class="PrakritGatha">हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स।६२१।</span>=<span class="HindiText">दण्ड समुद्घात करने का काल के अन्तर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलैं आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेन्द्र देवकैं जो समुद्घात क्रिया कौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> दण्ड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं</strong> </span><br /> | |||
पं.सं./प्रा./१९९ <span class="PrakritText">दंडदुगे ओरालं...।...।१९९।</span>=<span class="HindiText">केवलि समुद्घात के उक्त आठ समयों में से दण्ड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय के दोनों समुद्घातों में औदारिक काययोग होता है। (ध.४/१,४,८८/२६३/१)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है</strong></span><br /> | |||
क्ष.सा./६१९ <span class="PrakritGatha">णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।६१९।</span>=<span class="HindiText">केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम</strong></span><br /> | |||
गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/१३ <span class="SanskritText">सयोगे पर्याप्त:। समुद्धाते तूभय: अयोगे पर्याप्त एव।</span> =<span class="HindiText">सयोगी विषैं पर्याप्त है, समुद्घात सहित दोऊ (पर्याप्त व अपर्याप्त) है। अयोगी विषैं पर्याप्त ही है।</span><br /> | |||
गो.क./जी.प्र./५८७/७९१/१२ <span class="SanskritText">दण्डद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यन्ते।</span>=<span class="HindiText">दण्ड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पञ्चेन्द्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान</strong> </span><br /> | |||
ध.२/१,१/४४१-४४४/१ <span class="PrakritText">केवली कवाड-पदर-लोगपूरणगओ पज्जत्तो अपज्जत्तो वा। ण ताव पज्जत्तो, ‘ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ इच्चेदेण सुत्तेण तस्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपज्जत्ता ‘सम्मामिच्छाइट्ठि संजदा-संजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता त्ति सुत्तणिद्देसादो। ण अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पज्जत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं ‘आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जत्तभाव-सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण ‘संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता’ त्ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि....त्ति अणेयंतियादो।...किमेदेण जाणाविज्जदि।...त्ति एदं सुत्तमणिच्चमिदि...ण च सजोगम्मि सरीरपट्ठवणमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जत्ति-सत्ति-वज्जियस्स अपज्जत्त-ववएसादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—कपाट, प्रतर, और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त? <strong>उत्तर</strong>—उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ‘औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्तक ही हैं। <strong>प्रश्न</strong>—‘‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं’’ इस प्रकार सूत्र निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगी को छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। <strong>उत्तर</strong>—ऐसा नहीं है, क्योंकि (यदि ऐसा मान लें)...तो आहारक मिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत हैं। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सूत्र से संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र बाधा जाता है। <strong>उत्तर</strong>—...इस कथन में अनेकान्तदोष आ जाता है। (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधा जाता है। <strong>प्रश्न</strong>—...(सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। <strong>उत्तर</strong>—इससे ज्ञापित होता है...कि यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। <strong>प्रश्न</strong>—सयोग अवस्था में (नये) शरीर का आरम्भ तो होता नहीं; अत: सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्घात अवस्था में सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्ति से रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> समुद्घात करने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | |||
भ.आ./मू./२११३-२११६ <span class="PrakritText">ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।२११३। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।२११४।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।२११६।</span>=<span class="HindiText">गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परन्तु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।२११३। स्थिति बन्ध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।२११४। अन्त में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।२११६।</span><br /> | |||
पं.का./ता.वृ./१५३/२२१/८<span class="PrakritText"> संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।</span>=<span class="HindiText">संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता</strong></span><br /> | |||
ध.१२/४,२,७,१४/१८/२ <span class="PrakritText">सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि</span>।=<span class="HindiText">शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./२११०-२१११ <span class="PrakritGatha">जेसिं अउसमाइं णामगोदाइं वेदणीयं च। ते अकदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।२११०। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि। ते दु कदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।२१११।</span>=<span class="HindiText">आयु के समान ही अन्य कर्मों की स्थिति को धारण करने वाले केवली समुद्घात किये बिना सम्पूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।२११०। जिनके वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है वे केवली भगवान् समुद्घात के द्वारा आयुकर्म की बराबरी की स्थिति करते हैं, इस प्रकार वे सम्पूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।२१११। (स.सि./९/४४/४५७/१); (ध.१/१,१,६०/१६८/३०४); (ज्ञा./४२/४२); (पं.का./ता.वृ./१५३/७)</span><br /> | |||
ध.१/१,१,६०/३०२/६<span class="SanskritText"> के न समुद्घातयन्ति। येषां संसृतिव्यक्ति: कर्मस्थित्या समाना ते न समुद्घातयन्ति, शेषा: समुद्घातयन्ति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम</strong></span><br /> | |||
ध.६/१,९-८,१६/४१२-४१७/४ <span class="SanskritText">पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (४१२/४)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (४१३/१) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (४१४/१)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (४१५/१) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (४१६/१)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (४१७/१)।</span>=<span class="HindiText">प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अन्तिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति सम्बन्धी अनुभाग के अनन्त बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनन्त बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मन्थसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनन्त बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अन्तर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। (ध.११/४,२,६,२०/१३३-१३४); (क्ष.सा./६२३-६४४)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों</strong> </span><br /> | |||
ध.१/१,१,६०/३०२/९ <span class="SanskritText">संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशाङ्गावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवन्ति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकाण्डकानि अन्तर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयन्त: आयु:समानि कर्माणि कुर्वन्ति। अपरे समुद्घातेन समानयन्ति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? <strong>उत्तर</strong>—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परन्तु ये सब कारण समस्त जीवों में सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति काण्डकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परन्तु यह संसार का घात केवली से पहले सम्भव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति काण्डक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है</strong> </span><br /> | |||
ध.१३/५,४,३१/१५२/१<span class="PrakritText"> केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए घादो जायदे। ण ट्ठिदिखंडयघादेण तग्घादुववत्तीदो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जिन जीवों के केवलिसमुद्घात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पल्य के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति का घात कैसे होता है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डक घात के द्वारा उक्त स्थिति का घात बन जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> ९वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?</strong></span><strong><BR></strong>ध./१/१,१,६०/३०२/७ <span class="SanskritText">अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है। | |||
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Revision as of 22:15, 24 December 2013
- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण
स.सि./९/४४/४५७/३ लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।=जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनन्तर के विसर्पण का संकोच करके...।
रा.वा./१/२०/१२/७७/१९ द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।=जैसे मदिरा में फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।
ध.१३/२/६१/३००/९ दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।=दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। (पं.का./ता.वृ./१५३/२२१)।
- भेद-प्रभेद
ध.४/,१,३,२/२८/८ दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो। =दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।
गो.जी./जी.प्र./५४४/९५३/१४ केवलिसमुद्घात: दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दण्डसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।=केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दण्ड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।
- दण्डादि भेदों के लक्षण
ध.४/१,३,२/२८/८ तत्थ दण्डसमुग्घादो णाम पुव्वसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोद्दसरज्जुविसप्पणं। कवाडसमुग्घादो णाम पुव्विल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरितसव्वखेत्तावूरणं। पदरसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सव्वलोगावूरणं। लोगपूरणसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगवूरणं।=जिसकी अपने विष्कंभ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीर से तिगुने बाहल्यरूप दण्डाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलने का नाम दण्ड समुद्घात है। दण्ड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व पश्चिम में वातवलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। (ध./१३/५/४/२६/२)
- सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत
भ.आ./मू./२१०९ उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा। वच्चंति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे।२१०९।=उत्कर्ष से जिनका आयु छह महीने का अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियम से समुद्घात को प्राप्त होते हैं। बाकी के केवलियों को आयुष्य अधिक होने पर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (पं.सं./प्रा.१/२००); (ध.१/१,१,३०/१६७); (ज्ञा./४२/४२); (वसु.श्रा./५३०)
ध.१/१,१,६०/३०२/२ यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: सन्तो निर्वृत्तिमुपढौकन्ते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयन्ति। के न समुद्घातयन्ति।=यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में सम्पूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।
ध.१३/५,४,३१/१५१/१३ सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।=मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता।
- आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने सम्बन्धी दो मत
ध.१/१,१,६०/१६७/३०३ छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलणाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।१६७। एदिस्से गाहाए उवएसे किण्ण गहिओ। ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो। =प्रश्न—छह माह प्रमाण आयु के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घात को करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।१६७। (भ.आ./मू./२१०९) इस पूर्वोक्त गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है? उत्तर—नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
- कदाचित् आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है
भ.आ./मू./२११२ अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।२११२।=आयुकर्म जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। (स.सि./९/४४/४५७/१); (ध.१३/५,४,२६/८४/१); (क्ष.सा./६२०); (प्र.सा./ता.वृ./१५३/१३१)।
- आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण
स.सि./५/८/२७४/११ यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। =केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। (रा.वा./५/८/४/४५०/१)
ध.११/४,२,५,१७/३१/११ केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।=दण्ड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। प्रश्न—तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दण्ड समुद्घात को करते हैं? उत्तर—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दण्ड समुद्घात को करते हैं।
गो.जी./जी.प्र./५४४/९५३ केवल भाषार्थ—दण्ड—स्थितिदण्ड समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय के बिना लोक की ऊँचाई किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाणतैं लंबै बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश हैं। स्थितिदण्ड के क्षेत्र को नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदण्ड विषै क्षेत्र हो है। सो यहाँ ३६ अंगुल चौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घातविषै एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोकप्रमाण तो लम्बे हो हैं सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक की चौड़ाई प्रमाण चौड़े हो हैं सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक सर्वत्र सात राजू चौड़ा है तातैं सात राजू प्रमाण चौड़े हो है। बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊँचे हो हैं।
पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव सम्बन्धी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।
क्ष.सा./६२३/७३५/८-११ भाषार्थ—कायोत्सर्ग स्थित केवली के दण्ड समुद्घात उत्कृष्ट १०८ प्रमाण अंगुल ऊँचा, १२ प्रामाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि ३७<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0034.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है। पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दण्ड समुद्घात विषैं ऊँचाई ३६ प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि ११३ <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> प्रमाणांगुल युक्त है।
- कुल आठ समय पर्यन्त रहता है
रा.वा./१/२०/१२/७७/२७ केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदण्डस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति। केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दण्ड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दण्ड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम
पं.सं./प्रा./१९७-१९८ पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए। तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूणयं।१९७। विवरं पंच समए जोई मंथाणयं तदो छट्ठे। सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं।१९८।= समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डरूप समुद्घात करते हैं। द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समय में लोक-पूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुन: छट्ठे समय में मन्थान (प्रतर) गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाट-गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दण्डसमुद्घातगत आत्म–प्रदेशों का संवरण करते हैं। (भ.आ./मू./२११५); (क्ष.सा./मू./६२७); (क्ष.सा./भा/६२३)।
क्ष.सा./मू./६२१ हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स।६२१।=दण्ड समुद्घात करने का काल के अन्तर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलैं आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेन्द्र देवकैं जो समुद्घात क्रिया कौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए।
- दण्ड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं
पं.सं./प्रा./१९९ दंडदुगे ओरालं...।...।१९९।=केवलि समुद्घात के उक्त आठ समयों में से दण्ड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय के दोनों समुद्घातों में औदारिक काययोग होता है। (ध.४/१,४,८८/२६३/१)
- प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है
क्ष.सा./६१९ णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।६१९।=केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।
- केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम
गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/१३ सयोगे पर्याप्त:। समुद्धाते तूभय: अयोगे पर्याप्त एव। =सयोगी विषैं पर्याप्त है, समुद्घात सहित दोऊ (पर्याप्त व अपर्याप्त) है। अयोगी विषैं पर्याप्त ही है।
गो.क./जी.प्र./५८७/७९१/१२ दण्डद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यन्ते।=दण्ड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पञ्चेन्द्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।
- पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान
ध.२/१,१/४४१-४४४/१ केवली कवाड-पदर-लोगपूरणगओ पज्जत्तो अपज्जत्तो वा। ण ताव पज्जत्तो, ‘ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ इच्चेदेण सुत्तेण तस्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपज्जत्ता ‘सम्मामिच्छाइट्ठि संजदा-संजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता त्ति सुत्तणिद्देसादो। ण अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पज्जत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं ‘आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जत्तभाव-सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण ‘संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता’ त्ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि....त्ति अणेयंतियादो।...किमेदेण जाणाविज्जदि।...त्ति एदं सुत्तमणिच्चमिदि...ण च सजोगम्मि सरीरपट्ठवणमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जत्ति-सत्ति-वज्जियस्स अपज्जत्त-ववएसादो। =प्रश्न—कपाट, प्रतर, और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त? उत्तर—उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ‘औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्तक ही हैं। प्रश्न—‘‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं’’ इस प्रकार सूत्र निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगी को छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि (यदि ऐसा मान लें)...तो आहारक मिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत हैं। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं। प्रश्न—यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सूत्र से संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र बाधा जाता है। उत्तर—...इस कथन में अनेकान्तदोष आ जाता है। (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधा जाता है। प्रश्न—...(सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। उत्तर—इससे ज्ञापित होता है...कि यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। प्रश्न—सयोग अवस्था में (नये) शरीर का आरम्भ तो होता नहीं; अत: सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। उत्तर—नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्घात अवस्था में सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्ति से रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।
- समुद्घात करने का प्रयोजन
भ.आ./मू./२११३-२११६ ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।२११३। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।२११४।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।२११६।=गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परन्तु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।२११३। स्थिति बन्ध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।२११४। अन्त में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।२११६।
पं.का./ता.वृ./१५३/२२१/८ संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।=संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता
ध.१२/४,२,७,१४/१८/२ सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि।=शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है
भ.आ./मू./२११०-२१११ जेसिं अउसमाइं णामगोदाइं वेदणीयं च। ते अकदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।२११०। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि। ते दु कदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।२१११।=आयु के समान ही अन्य कर्मों की स्थिति को धारण करने वाले केवली समुद्घात किये बिना सम्पूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।२११०। जिनके वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है वे केवली भगवान् समुद्घात के द्वारा आयुकर्म की बराबरी की स्थिति करते हैं, इस प्रकार वे सम्पूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।२१११। (स.सि./९/४४/४५७/१); (ध.१/१,१,६०/१६८/३०४); (ज्ञा./४२/४२); (पं.का./ता.वृ./१५३/७)
ध.१/१,१,६०/३०२/६ के न समुद्घातयन्ति। येषां संसृतिव्यक्ति: कर्मस्थित्या समाना ते न समुद्घातयन्ति, शेषा: समुद्घातयन्ति।=प्रश्न—कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं? उत्तर—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम
ध.६/१,९-८,१६/४१२-४१७/४ पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (४१२/४)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (४१३/१) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (४१४/१)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (४१५/१) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (४१६/१)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (४१७/१)।=प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अन्तिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति सम्बन्धी अनुभाग के अनन्त बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनन्त बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मन्थसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनन्त बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अन्तर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। (ध.११/४,२,६,२०/१३३-१३४); (क्ष.सा./६२३-६४४)।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों
ध.१/१,१,६०/३०२/९ संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशाङ्गावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवन्ति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकाण्डकानि अन्तर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयन्त: आयु:समानि कर्माणि कुर्वन्ति। अपरे समुद्घातेन समानयन्ति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात् ।=प्रश्न–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? उत्तर—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परन्तु ये सब कारण समस्त जीवों में सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति काण्डकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परन्तु यह संसार का घात केवली से पहले सम्भव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति काण्डक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है
ध.१३/५,४,३१/१५२/१ केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए घादो जायदे। ण ट्ठिदिखंडयघादेण तग्घादुववत्तीदो।=प्रश्न—जिन जीवों के केवलिसमुद्घात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पल्य के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति का घात कैसे होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डक घात के द्वारा उक्त स्थिति का घात बन जाता है।
- ९वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
ध./१/१,१,६०/३०२/७ अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् । प्रश्न—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है।
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण