पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 166 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><span class="AnvayArth">धरिदुं जस्स ण सक्को</span> कर्मता को प्राप्त जो धरने के लिए / निकालने के लिए समर्थ नहीं है । <span class="AnvayArth">चित्तंभामो</span> चित्तभ्रम अथवा विचित्र-भ्रम, आत्मा की भ्रांति उसे कैसे निकालने में समर्थ नहीं है ? <span class="AnvayArth">विणा दु अप्पाणं</span> आत्मा के बिना, निज शुद्धात्मा की भावना के बिना उसे निकालने में समर्थ नहीं है; <span class="AnvayArth">रोधो तस्स ण विज्जदि</span> उसके रोध, संवर नहीं है । उसके किसका संवर नहीं है ? <span class="AnvayArth">सुहासुहकदस्स कम्मस्स</span> उसके शुभाशुभ-कृत कर्म का संवर नहीं है ।</p> | <p><span class="AnvayArth">[धरिदुं जस्स ण सक्को]</span> कर्मता को प्राप्त जो धरने के लिए / निकालने के लिए समर्थ नहीं है । <span class="AnvayArth">[चित्तंभामो]</span> चित्तभ्रम अथवा विचित्र-भ्रम, आत्मा की भ्रांति उसे कैसे निकालने में समर्थ नहीं है ? <span class="AnvayArth">[विणा दु अप्पाणं]</span> आत्मा के बिना, निज शुद्धात्मा की भावना के बिना उसे निकालने में समर्थ नहीं है; <span class="AnvayArth">[रोधो तस्स ण विज्जदि]</span> उसके रोध, संवर नहीं है । उसके किसका संवर नहीं है ? <span class="AnvayArth">[सुहासुहकदस्स कम्मस्स]</span> उसके शुभाशुभ-कृत कर्म का संवर नहीं है ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- जो वह नित्यानन्द एक स्वभावी निजात्मा की भावना नहीं करता है, उसे माया-मिथ्या-निदान, तीन शल्य-प्रभृति समस्त विभाव-रूप बुद्धि का प्रसार / विस्तार / फैलाव धरना / रोकना नहीं आता है; और उसके निरोध का अभाव होने पर (उनके नहीं रुक पाने के कारण) शुभाशुभ कर्मों का संवर नहीं होता है ।</p> | <p>वह इसप्रकार -- जो वह नित्यानन्द एक स्वभावी निजात्मा की भावना नहीं करता है, उसे माया-मिथ्या-निदान, तीन शल्य-प्रभृति समस्त विभाव-रूप बुद्धि का प्रसार / विस्तार / फैलाव धरना / रोकना नहीं आता है; और उसके निरोध का अभाव होने पर (उनके नहीं रुक पाने के कारण) शुभाशुभ कर्मों का संवर नहीं होता है ।</p> |
Revision as of 17:06, 24 August 2021
[धरिदुं जस्स ण सक्को] कर्मता को प्राप्त जो धरने के लिए / निकालने के लिए समर्थ नहीं है । [चित्तंभामो] चित्तभ्रम अथवा विचित्र-भ्रम, आत्मा की भ्रांति उसे कैसे निकालने में समर्थ नहीं है ? [विणा दु अप्पाणं] आत्मा के बिना, निज शुद्धात्मा की भावना के बिना उसे निकालने में समर्थ नहीं है; [रोधो तस्स ण विज्जदि] उसके रोध, संवर नहीं है । उसके किसका संवर नहीं है ? [सुहासुहकदस्स कम्मस्स] उसके शुभाशुभ-कृत कर्म का संवर नहीं है ।
वह इसप्रकार -- जो वह नित्यानन्द एक स्वभावी निजात्मा की भावना नहीं करता है, उसे माया-मिथ्या-निदान, तीन शल्य-प्रभृति समस्त विभाव-रूप बुद्धि का प्रसार / विस्तार / फैलाव धरना / रोकना नहीं आता है; और उसके निरोध का अभाव होने पर (उनके नहीं रुक पाने के कारण) शुभाशुभ कर्मों का संवर नहीं होता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि रागादि विकल्प ही समस्त अनर्थ-परम्पराओं के मूल हैं॥१७५॥