पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 70-71 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><ul><li><span class="AnvayArth">एक्को चेव महप्पा</span> सभी सुवर्ण में साधारण सोलह वर्णी गुण से जैसे सुवर्ण राशि एक है; उसी प्रकार संग्रह-नय की अपेक्षा सभी जीवों में साधारण केवल ज्ञान आदि अनन्त गुण-समूह-मय शुद्ध जीव जाति रूप से वह महात्मा <span class="DarkFont">एक ही है</span> । अथवा <span class="AnvayArth">उवजुत्तो</span> सभी जीवों के साधारण लक्षण-रूप केवल ज्ञान-दर्शन उपयोग से उपयुक्त होने के कारण, परिणत होने के कारण एक है । कोई कहता है कि, जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल-घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देता है; उसीप्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से देखा जाता है । इसका परिहार करते हैं -- चन्द्र-किरणों की उपाधि के वश से अनेक जल-घड़ों में स्थित जल-पुद्गल ही चन्द्राकार-रूप से परिणमित होते हैं, आकाश में स्थित चन्द्रमा वहाँ नहीं है । यहाँ दृष्टान्त कहते हैं -- जैसे देवदत्त के मुख की उपाधि के वश से अनेक दर्पणों के पुद्गल ही अनेक मुखा-कार रूप से परिणमित होते हैं; देवदत्त का मुख अनेक रूप परिणमित नहीं होता है । यदि वह परिणमित होता तो दर्पण में स्थित मुख प्रतिबिम्ब को चेतनता प्राप्त होती; परन्तु वैसा तो नहीं है; उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेक रूप से परिणमित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष में ब्रम्ह नामक कोई एक दिखाई भी नहीं देता, जो चन्द्रमा के समान अनेक-रूप से होगा -- ऐसा अभिप्राय है ।<li><span class="AnvayArth">सो दुवियप्पो</span> दर्शन-ज्ञान रूप दो भेद से, संसारी मुक्त दो या भव्य-अभव्य दो भेद से वह <span class="DarkFont">दो प्रकार का</span> है । <li><span class="AnvayArth">तिलक्खणों हवदि</span> ज्ञान, कर्म और कर्म-फल चेतना की अपेक्षा तीन, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की अपेक्षा तीन, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की अपेक्षा तीन, द्रव्य-गुण-पर्याय की अपेक्षा तीन -- इसप्रकार <span class="DarkFont">तीन लक्षण वाला</span> है । <li><span class="AnvayArth">चंदुसंकमो य भणिदो</span> यद्यपि शुद्ध निश्चय से निर्विकार, चिदानन्द, एक लक्षण सिद्ध-गति स्वभावी है; तथापि व्यवहार से मिथ्यात्व-रागादि रूप परिणमित होता हुआ नरकादि <span class="DarkFont">चतुर्गति में संक्रमण / परिभ्रमण करता</span> है -- ऐसा कहा है । <li><span class="AnvayArth">पंचग्गगुणप्पहाणो य</span> यद्यपि निश्चय से क्षायिक और शुद्ध पारिणामिक-भाव, इन दो लक्षणों वाला है; तथापि सामान्य से औदयिक आदि <span class="DarkFont">पाँच मुख्य गुणों से प्रधान</span> है । <li><span class="AnvayArth">छक्कावक्कमजुत्तो</span> <span class="DarkFont">छह अपक्रम से युक्त</span> है । इस वाक्य का अर्थ कहते हैं । अपगत / नष्ट हो गया है विरुद्ध-क्रम / प्रांजलपना जहाँ, वह अपक्रम है अर्थात् वक्रगति । मरण के अन्त में ऊर्ध्व-अधो और चार महा-दिशाओं में गमन-रूप छह प्रकार के अपक्रम से सहित है, ऐसा अर्थ है; वह ही अनुश्रेणि गति है ।<li> <span class="AnvayArth">सत्तभंगसव्भावों</span> स्यात् अस्ति इत्यादि <span class="DarkFont">सप्त-भंगी से सद्भाव</span> है । <li><span class="AnvayArth">अट्ठासवो</span> यद्यपि निश्चय से वीतराग लक्षण निश्चय सम्यक्त्व आदि <span class="DarkFont">आठ गुणों का आश्रय</span> है; तथापि व्यवहार से ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का आस्रव होता है । <li>यद्यपि निश्चय से निर्विकल्प समाधि में स्थित जीवों को सभी जीवों में साधारण होने से अखण्ड एक ज्ञान रूप ज्ञात होता है; तथापि व्यवहार से नाना वर्णिकाओं में व्याप्त सुवर्ण के समान <span class="DarkFont">नव पदार्थ रूप</span> है । <li><span class="AnvayArth">दह ठाणिओ भणिओ</span> यद्यपि निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक लक्षण-मय है; तथापि व्यवहार से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक-साधारण वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप <span class="DarkFont">दश स्थान-गत</span> है । </ul>इस सब रूप वह कौन है ? <span class="AnvayArth">जीवो</span> जीव पदार्थ इस प्रकार दशभेद रूप है ।</p> | <p><ul><li><span class="AnvayArth">[एक्को चेव महप्पा]</span> सभी सुवर्ण में साधारण सोलह वर्णी गुण से जैसे सुवर्ण राशि एक है; उसी प्रकार संग्रह-नय की अपेक्षा सभी जीवों में साधारण केवल ज्ञान आदि अनन्त गुण-समूह-मय शुद्ध जीव जाति रूप से वह महात्मा <span class="DarkFont">एक ही है</span> । अथवा <span class="AnvayArth">[उवजुत्तो]</span> सभी जीवों के साधारण लक्षण-रूप केवल ज्ञान-दर्शन उपयोग से उपयुक्त होने के कारण, परिणत होने के कारण एक है । कोई कहता है कि, जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल-घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देता है; उसीप्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से देखा जाता है । इसका परिहार करते हैं -- चन्द्र-किरणों की उपाधि के वश से अनेक जल-घड़ों में स्थित जल-पुद्गल ही चन्द्राकार-रूप से परिणमित होते हैं, आकाश में स्थित चन्द्रमा वहाँ नहीं है । यहाँ दृष्टान्त कहते हैं -- जैसे देवदत्त के मुख की उपाधि के वश से अनेक दर्पणों के पुद्गल ही अनेक मुखा-कार रूप से परिणमित होते हैं; देवदत्त का मुख अनेक रूप परिणमित नहीं होता है । यदि वह परिणमित होता तो दर्पण में स्थित मुख प्रतिबिम्ब को चेतनता प्राप्त होती; परन्तु वैसा तो नहीं है; उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेक रूप से परिणमित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष में ब्रम्ह नामक कोई एक दिखाई भी नहीं देता, जो चन्द्रमा के समान अनेक-रूप से होगा -- ऐसा अभिप्राय है ।<li><span class="AnvayArth">[सो दुवियप्पो]</span> दर्शन-ज्ञान रूप दो भेद से, संसारी मुक्त दो या भव्य-अभव्य दो भेद से वह <span class="DarkFont">दो प्रकार का</span> है । <li><span class="AnvayArth">[तिलक्खणों हवदि]</span> ज्ञान, कर्म और कर्म-फल चेतना की अपेक्षा तीन, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की अपेक्षा तीन, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की अपेक्षा तीन, द्रव्य-गुण-पर्याय की अपेक्षा तीन -- इसप्रकार <span class="DarkFont">तीन लक्षण वाला</span> है । <li><span class="AnvayArth">[चंदुसंकमो य भणिदो]</span> यद्यपि शुद्ध निश्चय से निर्विकार, चिदानन्द, एक लक्षण सिद्ध-गति स्वभावी है; तथापि व्यवहार से मिथ्यात्व-रागादि रूप परिणमित होता हुआ नरकादि <span class="DarkFont">चतुर्गति में संक्रमण / परिभ्रमण करता</span> है -- ऐसा कहा है । <li><span class="AnvayArth">[पंचग्गगुणप्पहाणो य]</span> यद्यपि निश्चय से क्षायिक और शुद्ध पारिणामिक-भाव, इन दो लक्षणों वाला है; तथापि सामान्य से औदयिक आदि <span class="DarkFont">पाँच मुख्य गुणों से प्रधान</span> है । <li><span class="AnvayArth">[छक्कावक्कमजुत्तो]</span> <span class="DarkFont">छह अपक्रम से युक्त</span> है । इस वाक्य का अर्थ कहते हैं । अपगत / नष्ट हो गया है विरुद्ध-क्रम / प्रांजलपना जहाँ, वह अपक्रम है अर्थात् वक्रगति । मरण के अन्त में ऊर्ध्व-अधो और चार महा-दिशाओं में गमन-रूप छह प्रकार के अपक्रम से सहित है, ऐसा अर्थ है; वह ही अनुश्रेणि गति है ।<li> <span class="AnvayArth">[सत्तभंगसव्भावों]</span> स्यात् अस्ति इत्यादि <span class="DarkFont">सप्त-भंगी से सद्भाव</span> है । <li><span class="AnvayArth">[अट्ठासवो]</span> यद्यपि निश्चय से वीतराग लक्षण निश्चय सम्यक्त्व आदि <span class="DarkFont">आठ गुणों का आश्रय</span> है; तथापि व्यवहार से ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का आस्रव होता है । <li>यद्यपि निश्चय से निर्विकल्प समाधि में स्थित जीवों को सभी जीवों में साधारण होने से अखण्ड एक ज्ञान रूप ज्ञात होता है; तथापि व्यवहार से नाना वर्णिकाओं में व्याप्त सुवर्ण के समान <span class="DarkFont">नव पदार्थ रूप</span> है । <li><span class="AnvayArth">[दह ठाणिओ भणिओ]</span> यद्यपि निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक लक्षण-मय है; तथापि व्यवहार से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक-साधारण वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप <span class="DarkFont">दश स्थान-गत</span> है । </ul>इस सब रूप वह कौन है ? <span class="AnvayArth">[जीवो]</span> जीव पदार्थ इस प्रकार दशभेद रूप है ।</p> | ||
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<p>अथवा द्वितीय व्याख्यान द्वारा ये दश स्थान पृथक् हैं, उपर्युक्त पद का पृथक् व्याख्यान किए जाने पर वे भी दश-स्थान होते हैं, दोनों को मिलाने से बीस भेद हो जाते हैं -- ऐसा भावार्थ है ॥७७-७८॥</p> | <p>अथवा द्वितीय व्याख्यान द्वारा ये दश स्थान पृथक् हैं, उपर्युक्त पद का पृथक् व्याख्यान किए जाने पर वे भी दश-स्थान होते हैं, दोनों को मिलाने से बीस भेद हो जाते हैं -- ऐसा भावार्थ है ॥७७-७८॥</p> | ||
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Revision as of 17:06, 24 August 2021
- [एक्को चेव महप्पा] सभी सुवर्ण में साधारण सोलह वर्णी गुण से जैसे सुवर्ण राशि एक है; उसी प्रकार संग्रह-नय की अपेक्षा सभी जीवों में साधारण केवल ज्ञान आदि अनन्त गुण-समूह-मय शुद्ध जीव जाति रूप से वह महात्मा एक ही है । अथवा [उवजुत्तो] सभी जीवों के साधारण लक्षण-रूप केवल ज्ञान-दर्शन उपयोग से उपयुक्त होने के कारण, परिणत होने के कारण एक है । कोई कहता है कि, जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जल-घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देता है; उसीप्रकार एक ही जीव अनेक शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से देखा जाता है । इसका परिहार करते हैं -- चन्द्र-किरणों की उपाधि के वश से अनेक जल-घड़ों में स्थित जल-पुद्गल ही चन्द्राकार-रूप से परिणमित होते हैं, आकाश में स्थित चन्द्रमा वहाँ नहीं है । यहाँ दृष्टान्त कहते हैं -- जैसे देवदत्त के मुख की उपाधि के वश से अनेक दर्पणों के पुद्गल ही अनेक मुखा-कार रूप से परिणमित होते हैं; देवदत्त का मुख अनेक रूप परिणमित नहीं होता है । यदि वह परिणमित होता तो दर्पण में स्थित मुख प्रतिबिम्ब को चेतनता प्राप्त होती; परन्तु वैसा तो नहीं है; उसी प्रकार एक चन्द्रमा भी अनेक रूप से परिणमित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष में ब्रम्ह नामक कोई एक दिखाई भी नहीं देता, जो चन्द्रमा के समान अनेक-रूप से होगा -- ऐसा अभिप्राय है ।
- [सो दुवियप्पो] दर्शन-ज्ञान रूप दो भेद से, संसारी मुक्त दो या भव्य-अभव्य दो भेद से वह दो प्रकार का है ।
- [तिलक्खणों हवदि] ज्ञान, कर्म और कर्म-फल चेतना की अपेक्षा तीन, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की अपेक्षा तीन, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की अपेक्षा तीन, द्रव्य-गुण-पर्याय की अपेक्षा तीन -- इसप्रकार तीन लक्षण वाला है ।
- [चंदुसंकमो य भणिदो] यद्यपि शुद्ध निश्चय से निर्विकार, चिदानन्द, एक लक्षण सिद्ध-गति स्वभावी है; तथापि व्यवहार से मिथ्यात्व-रागादि रूप परिणमित होता हुआ नरकादि चतुर्गति में संक्रमण / परिभ्रमण करता है -- ऐसा कहा है ।
- [पंचग्गगुणप्पहाणो य] यद्यपि निश्चय से क्षायिक और शुद्ध पारिणामिक-भाव, इन दो लक्षणों वाला है; तथापि सामान्य से औदयिक आदि पाँच मुख्य गुणों से प्रधान है ।
- [छक्कावक्कमजुत्तो] छह अपक्रम से युक्त है । इस वाक्य का अर्थ कहते हैं । अपगत / नष्ट हो गया है विरुद्ध-क्रम / प्रांजलपना जहाँ, वह अपक्रम है अर्थात् वक्रगति । मरण के अन्त में ऊर्ध्व-अधो और चार महा-दिशाओं में गमन-रूप छह प्रकार के अपक्रम से सहित है, ऐसा अर्थ है; वह ही अनुश्रेणि गति है ।
- [सत्तभंगसव्भावों] स्यात् अस्ति इत्यादि सप्त-भंगी से सद्भाव है ।
- [अट्ठासवो] यद्यपि निश्चय से वीतराग लक्षण निश्चय सम्यक्त्व आदि आठ गुणों का आश्रय है; तथापि व्यवहार से ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का आस्रव होता है ।
- यद्यपि निश्चय से निर्विकल्प समाधि में स्थित जीवों को सभी जीवों में साधारण होने से अखण्ड एक ज्ञान रूप ज्ञात होता है; तथापि व्यवहार से नाना वर्णिकाओं में व्याप्त सुवर्ण के समान नव पदार्थ रूप है ।
- [दह ठाणिओ भणिओ] यद्यपि निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक लक्षण-मय है; तथापि व्यवहार से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक-साधारण वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप दश स्थान-गत है ।
अथवा द्वितीय व्याख्यान द्वारा ये दश स्थान पृथक् हैं, उपर्युक्त पद का पृथक् व्याख्यान किए जाने पर वे भी दश-स्थान होते हैं, दोनों को मिलाने से बीस भेद हो जाते हैं -- ऐसा भावार्थ है ॥७७-७८॥