पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 154 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं]</span> जो पर-द्रव्य में यदि राग से शुभ या अशुभ भाव करता है, <span class="SansWord">[सो सगचरित्तभट्ठो]</span> वह स्व-चारित्र से भ्रष्ट होता हुआ <span class="SansWord">[परचरियचरो हवदि जीवो]</span> जीव पर-चारित्रचर होता है ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- कर्तारूप जो शुद्ध गुण-पर्याय रूप परिणत निज शुद्धात्म-द्रव्य से परिभ्रष्ट होकर निर्मल आत्म-तत्त्व से विपरीत राग-भाव रूप से परिणमन कर शुभाशुभ परद्रव्य से उपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोग से विपरीत समस्त परद्रव्यों में शुभ या अशुभ भाव करता है; वह ज्ञानानन्द एक स्वभावी आत्मा तत्त्व अनुचरण लक्षण अपने चारित्र से भ्रष्ट होता हुआ स्वसम्वित्ति सम्बन्धी अनुष्ठान से विलक्षण परचारित्र रूप आचरण करने वाला होता है, ऐसा सूत्राभिप्राय है ॥१६४॥</p> | <p>वह इसप्रकार -- कर्तारूप जो शुद्ध गुण-पर्याय रूप परिणत निज शुद्धात्म-द्रव्य से परिभ्रष्ट होकर निर्मल आत्म-तत्त्व से विपरीत राग-भाव रूप से परिणमन कर शुभाशुभ परद्रव्य से उपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोग से विपरीत समस्त परद्रव्यों में शुभ या अशुभ भाव करता है; वह ज्ञानानन्द एक स्वभावी आत्मा तत्त्व अनुचरण लक्षण अपने चारित्र से भ्रष्ट होता हुआ स्वसम्वित्ति सम्बन्धी अनुष्ठान से विलक्षण परचारित्र रूप आचरण करने वाला होता है, ऐसा सूत्राभिप्राय है ॥१६४॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[जो परदव्वम्हि सुहं असुहं रायेण कुणदि जदि भावं] जो पर-द्रव्य में यदि राग से शुभ या अशुभ भाव करता है, [सो सगचरित्तभट्ठो] वह स्व-चारित्र से भ्रष्ट होता हुआ [परचरियचरो हवदि जीवो] जीव पर-चारित्रचर होता है ।
वह इसप्रकार -- कर्तारूप जो शुद्ध गुण-पर्याय रूप परिणत निज शुद्धात्म-द्रव्य से परिभ्रष्ट होकर निर्मल आत्म-तत्त्व से विपरीत राग-भाव रूप से परिणमन कर शुभाशुभ परद्रव्य से उपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोग से विपरीत समस्त परद्रव्यों में शुभ या अशुभ भाव करता है; वह ज्ञानानन्द एक स्वभावी आत्मा तत्त्व अनुचरण लक्षण अपने चारित्र से भ्रष्ट होता हुआ स्वसम्वित्ति सम्बन्धी अनुष्ठान से विलक्षण परचारित्र रूप आचरण करने वाला होता है, ऐसा सूत्राभिप्राय है ॥१६४॥