पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 171 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[पंचत्थियसंगहं सुत्तं]</span> पंचास्तिकाय-संग्रह सूत्र को कहा है । वह किस विशेषता वाला है ? प्रवचन का सारभूत है । उसे किसलिए कहा है ? उसे मार्ग-प्रभावना के लिए कहा है ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य लक्षणमय निर्मल अनुभूति वास्तव में मोक्षमार्ग है, उसकी प्रभावना अर्थात् स्वयं उसका अनुभव करना अथवा दूसरों को प्रकाशित करना; उसके लिए ही परमागम की भक्ति से प्रेरित कर्ताभूत मेरे द्वारा इस पंचास्तिकाय शास्त्र का व्याख्यान किया गया है । वह किस लक्षणवाला है ? पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य आदि का संक्षेप में व्याख्यान करने के कारण समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होने से द्वादशांग-रूप प्रवचन का भी सारभूत है, ऐसा भावार्थ है ॥१८१॥</p> | <p>वह इसप्रकार -- संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य लक्षणमय निर्मल अनुभूति वास्तव में मोक्षमार्ग है, उसकी प्रभावना अर्थात् स्वयं उसका अनुभव करना अथवा दूसरों को प्रकाशित करना; उसके लिए ही परमागम की भक्ति से प्रेरित कर्ताभूत मेरे द्वारा इस पंचास्तिकाय शास्त्र का व्याख्यान किया गया है । वह किस लक्षणवाला है ? पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य आदि का संक्षेप में व्याख्यान करने के कारण समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होने से द्वादशांग-रूप प्रवचन का भी सारभूत है, ऐसा भावार्थ है ॥१८१॥</p> | ||
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<p>अब, क्योंकि पहले संक्षेप रुचिवाले शिष्य को संबोधित करने के लिए पंचास्तिकाय प्राभृत कहा गया है, इसलिए जिस समय शिक्षा ग्रहण करता है तब शिष्य कहलाता है । इस हेतु से शिष्य का लक्षण कहने के लिए परमात्मा के आराधक पुरुषों के दीक्षा-शिक्षा-व्यवस्था-भेद प्रतिपादित करते हैं । दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्म-संस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ के भेद से काल छह होते हैं । वे इसप्रकार -- <ul><li>जब कोई भी आसन्न-भव्य भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को पाकर, आत्माराधना के लिए बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का परित्यागकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह <span class=" | <p>अब, क्योंकि पहले संक्षेप रुचिवाले शिष्य को संबोधित करने के लिए पंचास्तिकाय प्राभृत कहा गया है, इसलिए जिस समय शिक्षा ग्रहण करता है तब शिष्य कहलाता है । इस हेतु से शिष्य का लक्षण कहने के लिए परमात्मा के आराधक पुरुषों के दीक्षा-शिक्षा-व्यवस्था-भेद प्रतिपादित करते हैं । दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्म-संस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ के भेद से काल छह होते हैं । वे इसप्रकार -- <ul><li>जब कोई भी आसन्न-भव्य भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को पाकर, आत्माराधना के लिए बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का परित्यागकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह <span class="SansWord">[दीक्षा-काल]</span> है । <li>दीक्षा के बाद निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय के और परमात्म-तत्त्व के परिज्ञान के लिए उनके प्रतिपदाक अध्यात्म शास्त्रों में जब शिक्षा ग्रहण करता है, वह <span class="SansWord">[शिक्षा-काल]</span> है । <li>और जब शिक्षा-दीक्षा के बाद निश्चय-व्यवहार मार्ग में स्थित होकर उसके इच्छुक भव्य प्राणी समूह का परमात्मा के उपदेश से पोषण करता है, वह <span class="SansWord">[गणपोषण-काल]</span> है । <li>गणपोषण के पश्चात् गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है, वह <span class="SansWord">[आत्म-संस्कार-काल]</span> है । <li>आत्मसंस्कार के बाद में उसके लिए ही क्रोधादि कषाय रहित, अनन्त ज्ञान आदि गुण लक्षणवाले परमात्म-पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का सम्यक् लेखन करना, उन्हें क्षीण करना भावसल्लेखना है; और उसके लिए कायक्लेश का अनुष्ठान द्रव्यसल्लेखना है; इन दोनों रूप आचरण वह <span class="SansWord">[सल्लेखना-काल]</span> है । <li>सल्लेखना के उपरान्त विशुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वभावी आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान और बाह्य द्रव्यों में इच्छानिरोध लक्षण तपश्चरणरूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वे चरम / अन्तिम देहधारी के तो उसी भव में मोक्ष योग्य हैं; परंतु उससे विपरीत / अचरम देहधारी के भवान्तर में मोक्ष योग्य हैं ये दोनों <span class="SansWord">[उत्तमार्थ-काल]</span> हैं । </ul>इन छह कालों में से कोई प्रथम काल में, कोई द्वितीय काल में, कोई तृतीयकाल इत्यादि में केवलज्ञान उत्पन्न कर लेते हैं, इसप्रकार छह काल का नियम नहीं है । </p> | ||
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<p>इत्यादि तत्त्वानुशासन नामक ध्यान ग्रंथ के प्रारंभ में कहे गए मार्गानुसार <span class=" | <p>इत्यादि तत्त्वानुशासन नामक ध्यान ग्रंथ के प्रारंभ में कहे गए मार्गानुसार <span class="SansWord">[जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट]</span> के भेद से, ध्याता और ध्यान तीन प्रकार के होते हैं। वे तीन प्रकार के कैसे हैं? इसके लिए वहाँ ही कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप ध्यान सामग्री जघन्य आदि तीन प्रकार की है, ऐसा वचन होने से वे तीनप्रकार के हैं । </p> | ||
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<p>अथवा अति संक्षेप में ध्याता दो प्रकार के होते हैं -- शुद्धात्मभावना को प्रारंभ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्प अवस्था में <span class=" | <p>अथवा अति संक्षेप में ध्याता दो प्रकार के होते हैं -- शुद्धात्मभावना को प्रारंभ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्प अवस्था में <span class="SansWord">[प्रारब्ध-योगी]</span> कहलाते हैं तथा निर्विकल्प शुद्धात्म-अवस्था में <span class="SansWord">[निष्पन्न-योगी]</span> ।</p> | ||
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<p>इसप्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा की अपेक्षा ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा के साधक रागादि विकल्प रहित परमानन्द एक लक्षण सुख में वृद्धि, निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में वृद्धि बुद्धि आदि सात ऋद्धि रूप ध्यान फल के भेद जानना चाहिए ।</p> | <p>इसप्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा की अपेक्षा ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा के साधक रागादि विकल्प रहित परमानन्द एक लक्षण सुख में वृद्धि, निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में वृद्धि बुद्धि आदि सात ऋद्धि रूप ध्यान फल के भेद जानना चाहिए ।</p> | ||
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<p>विशेष यह है कि शिक्षक, प्रारम्भक, कृताभ्यास और निष्पन्न रूप से ध्याता पुरुष का लक्षण अन्यत्र भी जो किन्हीं ने कहा है, उसका यथासंभव यहाँ ही अन्तर्भाव देख लेना चाहिए ।</p> | <p>विशेष यह है कि शिक्षक, प्रारम्भक, कृताभ्यास और निष्पन्न रूप से ध्याता पुरुष का लक्षण अन्यत्र भी जो किन्हीं ने कहा है, उसका यथासंभव यहाँ ही अन्तर्भाव देख लेना चाहिए ।</p> | ||
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<p>अब यहाँ आगम भाषा से षट्काल कहते हैं -- <ul><li>जब कोई भी चार प्रकार की आराधना के सम्मुख होता हुआ, पंचाचार से सहित आचार्य को पाकर उभय (अंतरंग-बहिरंग) परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह <span class=" | <p>अब यहाँ आगम भाषा से षट्काल कहते हैं -- <ul><li>जब कोई भी चार प्रकार की आराधना के सम्मुख होता हुआ, पंचाचार से सहित आचार्य को पाकर उभय (अंतरंग-बहिरंग) परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह <span class="SansWord">[दीक्षा-काल]</span> है । <li>दीक्षा के बाद चार प्रकार की आराधना के परिज्ञानार्थ आचार, आराधना आदि चरण में सहायक ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब <span class="SansWord">[शिक्षा-काल]</span> है । <li>शिक्षा के उपरान्त चरण में सहायक ग्रन्थों में कथित अर्थ के अनुष्ठान और व्याख्यान द्वारा पाँच भावना सहित होता हुआ शिष्य-गण का पोषण करता है, वह <span class="SansWord">[गणपोषण-काल]</span> है । भावना कहते हैं -- तप, श्रुत, सत्त्व, एकत्व और संतोष के भेद से भावना पाँच प्रकार की है । वह इसप्रकार -- <ul><li>अनशन आदि बारह प्रकार का निर्मल तपश्चरण <span class="SansWord">[तपोभावना]</span> है; उसका फल विषय-कषाय का जय है । <li>प्रथमानियोग (प्रथमानुयोग), चरणानियोग (चरणानुयोग), करणानियोग (करणानुयोग), द्रव्यानियोग(द्रव्यानुयोग) के भेद से चार प्रकार के आगम का अभ्यास <span class="SansWord">[श्रुतभावना]</span> है । वह इसप्रकार -- <ul><li>त्रेसठ शलाका पुरुषों का पुराण व्याख्यान प्रथमानियोग है; <li>उपासकाध्ययन, आचार, आराधना आदि ग्रंथों से देशचारित्र, सकलचारित्र का व्याख्यान चरणानियोग कहलाता है; <li>जिनान्तर, त्रिलोकसार, लोकविभाग, लोकानियोग आदि व्याख्यान करणानियोग कहलाता है; <li>प्राभृत, तत्त्वार्थ-सिद्धान्त ग्रन्थों से जीवादि छह द्रव्य आदि का व्याख्यान द्रव्यानियोग है । संक्षेप से उस श्रुत भावना का फल जीवादि तत्त्व के विषय में अथवा हेयोपादेय तत्त्व के विषय में संशय, विमोह, विभ्रमरहित निश्चल परिणाम होता है । कहा भी है -- 'शास्त्रज्ञाता को ये छह लाभ होते हैं आत्महित में स्थिति, आस्रव का संवर, नवीन-नवीन धर्मानुराग, नि:कम्पता, तपोभावना और दूसरों को उपदेश देने की योग्यता ।' </ul><li>मूल-उत्तरगुण आदि के विषय में निर्गहनवृत्ति / भयरहित प्रवृत्ति <span class="SansWord">[सत्त्वभावना]</span> है । उसका फल -- पाण्डव आदि के समान घोर उपसर्ग-परिषह का प्रसंग आने पर भी निर्गहन रूप से / निर्भय होकर उत्साहपूर्वक मोक्ष को साधते हैं । <li>'ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है । शेष सभी संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य / भिन्न हैं ॥' -- इसप्रकार की भावना <span class="SansWord">[एकत्व]</span> भावना है । उसका फल स्वजन, परजन आदि में निर्मोहता है । वैसा ही कहा है 'बहिन की बिडम्बना को देखकर जिसप्रकार एक (एकत्व की) भावना में चतुर जिनकल्पित मू़ढ नहीं होता है; उसीप्रकार क्षपक भी मोह नहीं करता है ।' <li>मानापमान में समता के बल से, भोजन-पान आदि में यथालाभ से (जितना-जैसा मिला, उतने-वैसे में ही संतुष्ट रहना) संतोष रखना, <span class="SansWord">[संतोष भावना]</span> है । उसका फल रागादि उपाधि से रहित परमानन्द एक लक्षण आत्मा से उत्पन्न सुख से संतुष्टि द्वारा निदान बंध आदि विषय-सुख से निवृत्ति है । </ul><li>गणपोषण के बाद अपने गण को छोड़कर आत्म-भावना के संस्कार का इच्छुक होकर परगण में जाता है, वह <span class="SansWord">[आत्म-संस्कार-काल]</span> है । <li>आत्म-संस्कार के उपरान्त आचार, आराधना में कहे गए क्रम से द्रव्य-भाव सल्लेखना करता है, वह <span class="SansWord">[सल्लेखना-काल]</span> है । <li>सल्लेखना के पश्चात् चार प्रकार की आराधनामय भावना से समाधि-विधि द्वारा काल को (पूर्ण) करता है, तब वह <span class="SansWord">[उत्तमार्थ-काल]</span> है ।</ul>यहाँ भी कोई प्रथमकाल आदि में भी चार प्रकार की आराधना को प्राप्त होते हैं इसप्रकार छह काल का नियम नहीं है । यहाँ भावार्थ यह है -- 'मेरे ज्ञान में आत्मा है, मेरे दर्शन और चारित्र में आत्मा है, प्रत्याख्यान में आत्मा है, मेरे संवर और योग में आत्मा है ।'</p> | ||
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<p>इत्यादि रूप में आगम के सार से अभेद-रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ-पदों के अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है, वह <span class=" | <p>इत्यादि रूप में आगम के सार से अभेद-रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ-पदों के अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है, वह <span class="SansWord">[अध्यात्म-शास्त्र]</span> कहलाता है; उसके आश्रित छह-काल पहले संक्षेप से कहे गए हैं । वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत छह द्रव्य आदि के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, व्रत आदि के अनुष्ठान-रूप भेद-रत्नत्रय का स्वरूप जहाँ प्रतिपादित होता है, वह <span class="SansWord">[आगम-शास्त्र]</span> है; और वह अभेद-रत्नत्रयात्मक अध्यात्म-अनुष्ठान का बहिरंग साधन होता है; उसके आश्रित भी छह काल संक्षेप से कहे हैं । विशेष-रूप से तो दोनों ही छह-कालों का व्याख्यान पूर्वाचार्यों द्वारा कथित क्रम से अन्य ग्रन्थों में जानना चाहिए ।<ul><li>इसप्रकार <span class="SansWord">[श्री जयसेनाचार्य]</span> कृत <span class="SansWord">[तात्पर्यवृत्ति]</span> में सर्वप्रथम आठ अन्तराधिकारों में विभक्त एक सौ ग्यारह गाथाओं द्वारा <span class="SansWord">['पंचास्तिकाय षट्द्रव्य प्रतिपादक']</span> नामक प्रथम महाधिकार है । <li>तत्पश्चात् दश अन्तराधिकारों में विभक्त पचास गाथाओं द्वारा <span class="SansWord">['नवपदार्थ प्रतिपादक']</span> नामक द्वितीय महाधिकार है; <li>और तदुपरान्त बारह स्थलों में विभक्त बीस गाथाओं द्वारा <span class="SansWord">['मोक्षस्वरूप, मोक्षमार्ग प्रतिपादक']</span> नामक तृतीय महाधिकार है </ul>इसप्रकार तीन अधिकारों के समूह से एक सौ इक्यासी गाथाओं द्वारा 'पंचास्तिकाय प्राभृत' पूर्ण हुआ ।</p> | ||
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<p>विक्रम सम्वत्- १३६९ वर्ष में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के भौम / मंगलवार दिन में यह पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥</p> | <p>विक्रम सम्वत्- १३६९ वर्ष में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के भौम / मंगलवार दिन में यह पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[पंचत्थियसंगहं सुत्तं] पंचास्तिकाय-संग्रह सूत्र को कहा है । वह किस विशेषता वाला है ? प्रवचन का सारभूत है । उसे किसलिए कहा है ? उसे मार्ग-प्रभावना के लिए कहा है ।
वह इसप्रकार -- संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य लक्षणमय निर्मल अनुभूति वास्तव में मोक्षमार्ग है, उसकी प्रभावना अर्थात् स्वयं उसका अनुभव करना अथवा दूसरों को प्रकाशित करना; उसके लिए ही परमागम की भक्ति से प्रेरित कर्ताभूत मेरे द्वारा इस पंचास्तिकाय शास्त्र का व्याख्यान किया गया है । वह किस लक्षणवाला है ? पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य आदि का संक्षेप में व्याख्यान करने के कारण समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होने से द्वादशांग-रूप प्रवचन का भी सारभूत है, ऐसा भावार्थ है ॥१८१॥
इसप्रकार ग्रंथ-समाप्ति रूप से बारहवें स्थल में गाथा पूर्ण हुई ।
इस प्रकार तृतीय महाधिकार समाप्त हुआ ।
अब, क्योंकि पहले संक्षेप रुचिवाले शिष्य को संबोधित करने के लिए पंचास्तिकाय प्राभृत कहा गया है, इसलिए जिस समय शिक्षा ग्रहण करता है तब शिष्य कहलाता है । इस हेतु से शिष्य का लक्षण कहने के लिए परमात्मा के आराधक पुरुषों के दीक्षा-शिक्षा-व्यवस्था-भेद प्रतिपादित करते हैं । दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्म-संस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ के भेद से काल छह होते हैं । वे इसप्रकार --
- जब कोई भी आसन्न-भव्य भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को पाकर, आत्माराधना के लिए बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का परित्यागकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह [दीक्षा-काल] है ।
- दीक्षा के बाद निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय के और परमात्म-तत्त्व के परिज्ञान के लिए उनके प्रतिपदाक अध्यात्म शास्त्रों में जब शिक्षा ग्रहण करता है, वह [शिक्षा-काल] है ।
- और जब शिक्षा-दीक्षा के बाद निश्चय-व्यवहार मार्ग में स्थित होकर उसके इच्छुक भव्य प्राणी समूह का परमात्मा के उपदेश से पोषण करता है, वह [गणपोषण-काल] है ।
- गणपोषण के पश्चात् गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है, वह [आत्म-संस्कार-काल] है ।
- आत्मसंस्कार के बाद में उसके लिए ही क्रोधादि कषाय रहित, अनन्त ज्ञान आदि गुण लक्षणवाले परमात्म-पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का सम्यक् लेखन करना, उन्हें क्षीण करना भावसल्लेखना है; और उसके लिए कायक्लेश का अनुष्ठान द्रव्यसल्लेखना है; इन दोनों रूप आचरण वह [सल्लेखना-काल] है ।
- सल्लेखना के उपरान्त विशुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वभावी आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान और बाह्य द्रव्यों में इच्छानिरोध लक्षण तपश्चरणरूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वे चरम / अन्तिम देहधारी के तो उसी भव में मोक्ष योग्य हैं; परंतु उससे विपरीत / अचरम देहधारी के भवान्तर में मोक्ष योग्य हैं ये दोनों [उत्तमार्थ-काल] हैं ।
अथवा
'ध्याता, ध्यान, फल, ध्येय, जहाँ, जिसके, जब और जैसे ये आठ अंग योग के साधन होते हैं।'
इसका संक्षेप में व्याख्यान-'गुप्तेन्द्रियमन / इन्द्रिय और मन को संयमित रखनेवाला ध्याता है, वास्तविक स्वरूपमय वस्तु ध्येय है, एकाग्रचिंतन ध्यान है तथा संवर और निर्जरा फल हैं ।'
इत्यादि तत्त्वानुशासन नामक ध्यान ग्रंथ के प्रारंभ में कहे गए मार्गानुसार [जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट] के भेद से, ध्याता और ध्यान तीन प्रकार के होते हैं। वे तीन प्रकार के कैसे हैं? इसके लिए वहाँ ही कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप ध्यान सामग्री जघन्य आदि तीन प्रकार की है, ऐसा वचन होने से वे तीनप्रकार के हैं ।
अथवा अति संक्षेप में ध्याता दो प्रकार के होते हैं -- शुद्धात्मभावना को प्रारंभ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्प अवस्था में [प्रारब्ध-योगी] कहलाते हैं तथा निर्विकल्प शुद्धात्म-अवस्था में [निष्पन्न-योगी] ।
इसप्रकार संक्षेप से अध्यात्मभाषा की अपेक्षा ध्याता, ध्यान, ध्येय और संवर-निर्जरा के साधक रागादि विकल्प रहित परमानन्द एक लक्षण सुख में वृद्धि, निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में वृद्धि बुद्धि आदि सात ऋद्धि रूप ध्यान फल के भेद जानना चाहिए ।
विशेष यह है कि शिक्षक, प्रारम्भक, कृताभ्यास और निष्पन्न रूप से ध्याता पुरुष का लक्षण अन्यत्र भी जो किन्हीं ने कहा है, उसका यथासंभव यहाँ ही अन्तर्भाव देख लेना चाहिए ।
अब यहाँ आगम भाषा से षट्काल कहते हैं --
- जब कोई भी चार प्रकार की आराधना के सम्मुख होता हुआ, पंचाचार से सहित आचार्य को पाकर उभय (अंतरंग-बहिरंग) परिग्रह से रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह [दीक्षा-काल] है ।
- दीक्षा के बाद चार प्रकार की आराधना के परिज्ञानार्थ आचार, आराधना आदि चरण में सहायक ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब [शिक्षा-काल] है ।
- शिक्षा के उपरान्त चरण में सहायक ग्रन्थों में कथित अर्थ के अनुष्ठान और व्याख्यान द्वारा पाँच भावना सहित होता हुआ शिष्य-गण का पोषण करता है, वह [गणपोषण-काल] है । भावना कहते हैं -- तप, श्रुत, सत्त्व, एकत्व और संतोष के भेद से भावना पाँच प्रकार की है । वह इसप्रकार --
- अनशन आदि बारह प्रकार का निर्मल तपश्चरण [तपोभावना] है; उसका फल विषय-कषाय का जय है ।
- प्रथमानियोग (प्रथमानुयोग), चरणानियोग (चरणानुयोग), करणानियोग (करणानुयोग), द्रव्यानियोग(द्रव्यानुयोग) के भेद से चार प्रकार के आगम का अभ्यास [श्रुतभावना] है । वह इसप्रकार --
- त्रेसठ शलाका पुरुषों का पुराण व्याख्यान प्रथमानियोग है;
- उपासकाध्ययन, आचार, आराधना आदि ग्रंथों से देशचारित्र, सकलचारित्र का व्याख्यान चरणानियोग कहलाता है;
- जिनान्तर, त्रिलोकसार, लोकविभाग, लोकानियोग आदि व्याख्यान करणानियोग कहलाता है;
- प्राभृत, तत्त्वार्थ-सिद्धान्त ग्रन्थों से जीवादि छह द्रव्य आदि का व्याख्यान द्रव्यानियोग है । संक्षेप से उस श्रुत भावना का फल जीवादि तत्त्व के विषय में अथवा हेयोपादेय तत्त्व के विषय में संशय, विमोह, विभ्रमरहित निश्चल परिणाम होता है । कहा भी है -- 'शास्त्रज्ञाता को ये छह लाभ होते हैं आत्महित में स्थिति, आस्रव का संवर, नवीन-नवीन धर्मानुराग, नि:कम्पता, तपोभावना और दूसरों को उपदेश देने की योग्यता ।'
- मूल-उत्तरगुण आदि के विषय में निर्गहनवृत्ति / भयरहित प्रवृत्ति [सत्त्वभावना] है । उसका फल -- पाण्डव आदि के समान घोर उपसर्ग-परिषह का प्रसंग आने पर भी निर्गहन रूप से / निर्भय होकर उत्साहपूर्वक मोक्ष को साधते हैं ।
- 'ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है । शेष सभी संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य / भिन्न हैं ॥' -- इसप्रकार की भावना [एकत्व] भावना है । उसका फल स्वजन, परजन आदि में निर्मोहता है । वैसा ही कहा है 'बहिन की बिडम्बना को देखकर जिसप्रकार एक (एकत्व की) भावना में चतुर जिनकल्पित मू़ढ नहीं होता है; उसीप्रकार क्षपक भी मोह नहीं करता है ।'
- मानापमान में समता के बल से, भोजन-पान आदि में यथालाभ से (जितना-जैसा मिला, उतने-वैसे में ही संतुष्ट रहना) संतोष रखना, [संतोष भावना] है । उसका फल रागादि उपाधि से रहित परमानन्द एक लक्षण आत्मा से उत्पन्न सुख से संतुष्टि द्वारा निदान बंध आदि विषय-सुख से निवृत्ति है ।
- गणपोषण के बाद अपने गण को छोड़कर आत्म-भावना के संस्कार का इच्छुक होकर परगण में जाता है, वह [आत्म-संस्कार-काल] है ।
- आत्म-संस्कार के उपरान्त आचार, आराधना में कहे गए क्रम से द्रव्य-भाव सल्लेखना करता है, वह [सल्लेखना-काल] है ।
- सल्लेखना के पश्चात् चार प्रकार की आराधनामय भावना से समाधि-विधि द्वारा काल को (पूर्ण) करता है, तब वह [उत्तमार्थ-काल] है ।
इत्यादि रूप में आगम के सार से अभेद-रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ-पदों के अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है, वह [अध्यात्म-शास्त्र] कहलाता है; उसके आश्रित छह-काल पहले संक्षेप से कहे गए हैं । वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत छह द्रव्य आदि के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, व्रत आदि के अनुष्ठान-रूप भेद-रत्नत्रय का स्वरूप जहाँ प्रतिपादित होता है, वह [आगम-शास्त्र] है; और वह अभेद-रत्नत्रयात्मक अध्यात्म-अनुष्ठान का बहिरंग साधन होता है; उसके आश्रित भी छह काल संक्षेप से कहे हैं । विशेष-रूप से तो दोनों ही छह-कालों का व्याख्यान पूर्वाचार्यों द्वारा कथित क्रम से अन्य ग्रन्थों में जानना चाहिए ।
- इसप्रकार [श्री जयसेनाचार्य] कृत [तात्पर्यवृत्ति] में सर्वप्रथम आठ अन्तराधिकारों में विभक्त एक सौ ग्यारह गाथाओं द्वारा ['पंचास्तिकाय षट्द्रव्य प्रतिपादक'] नामक प्रथम महाधिकार है ।
- तत्पश्चात् दश अन्तराधिकारों में विभक्त पचास गाथाओं द्वारा ['नवपदार्थ प्रतिपादक'] नामक द्वितीय महाधिकार है;
- और तदुपरान्त बारह स्थलों में विभक्त बीस गाथाओं द्वारा ['मोक्षस्वरूप, मोक्षमार्ग प्रतिपादक'] नामक तृतीय महाधिकार है
विक्रम सम्वत्- १३६९ वर्ष में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के भौम / मंगलवार दिन में यह पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥