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From जैनकोष
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<li> जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे <strong>सछिद्रघट</strong> के समान हैं। </li> | <li> जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे <strong>सछिद्रघट</strong> के समान हैं। </li> | ||
<li> जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें परंतु सारी सभा को बिलकुल व्याकुल कर दें वे <strong>डाँस</strong> के समान श्रोता हैं। </li> | <li> जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें परंतु सारी सभा को बिलकुल व्याकुल कर दें वे <strong>डाँस</strong> के समान श्रोता हैं। </li> | ||
<li> जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे <strong>जोंक</strong> के समान श्रोता हैं।139।</li></span></span></ol> </li> | <li> जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे <strong>जोंक</strong> के समान श्रोता हैं।139।</li></span></span></ol> </li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">मिट्टी आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य विभाग</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">मिट्टी आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य विभाग</strong></span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/1/140-141 </span>श्रोतार: समभावा: स्युरुत्तमाधममध्यमा:। अन्यादृशोऽपि संत्येव तत्किं तेषामियत्तया।140। गोहंससदृशान्प्राहुरुत्तमान्मृच्छुकोपमान् । माध्यमान्विदुरन्यैश्च समकक्ष्योऽधमो मत:।141।</span> =<span class="HindiText">ऊपर कहे हुए श्रोताओं के उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी भेद हैं, उनकी गणना करने से क्या लाभ।140। इनमें जो श्रोता गाय और हंस के समान हैं, वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोता के समान हैं वे मध्यम कहलाते हैं। बाकी सब श्रोता अधम माने गये हैं।141।</span></li> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/1/140-141 </span>श्रोतार: समभावा: स्युरुत्तमाधममध्यमा:। अन्यादृशोऽपि संत्येव तत्किं तेषामियत्तया।140। गोहंससदृशान्प्राहुरुत्तमान्मृच्छुकोपमान् । माध्यमान्विदुरन्यैश्च समकक्ष्योऽधमो मत:।141।</span> =<span class="HindiText">ऊपर कहे हुए श्रोताओं के उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी भेद हैं, उनकी गणना करने से क्या लाभ।140। इनमें जो श्रोता गाय और हंस के समान हैं, वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोता के समान हैं वे मध्यम कहलाते हैं। बाकी सब श्रोता अधम माने गये हैं।141।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">सच्चे श्रोता का स्वरूप</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">सच्चे श्रोता का स्वरूप</strong></span> | ||
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</span> = <span class="HindiText">जो भव्य है, मेरे लिए हितकारक मार्ग कौन सा है इसका विचार करने वाला है, दु:ख से अत्यंत डरा हुआ है, यथार्थ सुख का अभिलाषी है, श्रवण आदि रूप बुद्धि से संपन्न है, तथा उपदेश को सुनकर और उसके विषय में स्पष्टता से विचार करके जो युक्ति व आगम से सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्म को ग्रहण करने वाला है, ऐसे दुराग्रह से रहित शिष्य धर्मकथा के सुनने का अधिकारी माना गया है।7।</span> | </span> = <span class="HindiText">जो भव्य है, मेरे लिए हितकारक मार्ग कौन सा है इसका विचार करने वाला है, दु:ख से अत्यंत डरा हुआ है, यथार्थ सुख का अभिलाषी है, श्रवण आदि रूप बुद्धि से संपन्न है, तथा उपदेश को सुनकर और उसके विषय में स्पष्टता से विचार करके जो युक्ति व आगम से सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्म को ग्रहण करने वाला है, ऐसे दुराग्रह से रहित शिष्य धर्मकथा के सुनने का अधिकारी माना गया है।7।</span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/19 </span>यावज्जीवमिति त्यक्त्वा, महापापानि शुद्धधी:। जिनधर्मश्रुतेर्योग्य: स्यात्कृतोपनयो द्विज:।19।</span> = <span class="HindiText">अनंत संसार के कारणभूत मद्यपानादिक पापों को जीवनपर्यंत के लिए छोड़कर, सम्यक्त्व के द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार जिसका ऐसा ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय जैनधर्म को सुनने का अधिकारी होता है।19।</span> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/19 </span>यावज्जीवमिति त्यक्त्वा, महापापानि शुद्धधी:। जिनधर्मश्रुतेर्योग्य: स्यात्कृतोपनयो द्विज:।19।</span> = <span class="HindiText">अनंत संसार के कारणभूत मद्यपानादिक पापों को जीवनपर्यंत के लिए छोड़कर, सम्यक्त्व के द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार जिसका ऐसा ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय जैनधर्म को सुनने का अधिकारी होता है।19।</span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/80/124/4 </span>सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभावं हंतुमुपरितननयमर्थज्ञानस्वभावं स्वीकर्तु च य: समर्थ: आत्मा स एव शास्त्राधिकारीति।</span> = <span class="HindiText">समीचीन उपदेश से पहले के अज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के तत्त्वज्ञान स्वभाव को प्राप्त करने में जो समर्थ आत्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है।</span></li> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/80/124/4 </span>सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभावं हंतुमुपरितननयमर्थज्ञानस्वभावं स्वीकर्तु च य: समर्थ: आत्मा स एव शास्त्राधिकारीति।</span> = <span class="HindiText">समीचीन उपदेश से पहले के अज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के तत्त्वज्ञान स्वभाव को प्राप्त करने में जो समर्थ आत्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">उपदेश के अयोग्य पात्र</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">उपदेश के अयोग्य पात्र</strong></span> | ||
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</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार पति के अंधा होने पर स्त्रियों का विलास व सुंदरता व्यर्थ है, इसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होने पर पुरुषों का वक्तापना व्यर्थ है।</span> | </span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार पति के अंधा होने पर स्त्रियों का विलास व सुंदरता व्यर्थ है, इसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होने पर पुरुषों का वक्तापना व्यर्थ है।</span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/9 </span>कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्मं लघुकर्मतया द्विषन् । भद्र: स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ।9। | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/9 </span>कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्मं लघुकर्मतया द्विषन् । भद्र: स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ।9। | ||
</span> = <span class="HindiText">मिथ्यामत में स्थित जीव मिथ्यात्व की मंदता से जैनधर्म से द्वेष न करने वाला व्यक्ति भद्र है वह उपदेश का पात्र है, उससे विपरीत अभद्र है तथा उपदेश पाने का अधिकारी नहीं है।9।</span></li> | </span> = <span class="HindiText">मिथ्यामत में स्थित जीव मिथ्यात्व की मंदता से जैनधर्म से द्वेष न करने वाला व्यक्ति भद्र है वह उपदेश का पात्र है, उससे विपरीत अभद्र है तथा उपदेश पाने का अधिकारी नहीं है।9।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">अनिष्णात को सिद्धांत शास्त्र सुनना योग्य नहीं</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">अनिष्णात को सिद्धांत शास्त्र सुनना योग्य नहीं</strong></span> | ||
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<span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/106/3 </span>विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिसका जिन वचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए।</span> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/106/3 </span>विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिसका जिन वचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए।</span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/50 </span>स्यान्नाधिकारी सिद्धांत-रहस्याध्ययनेऽपि च।50। | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/50 </span>स्यान्नाधिकारी सिद्धांत-रहस्याध्ययनेऽपि च।50। | ||
</span>=<span class="HindiText">सिद्धांत शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों के अध्ययन करने के विषय में श्रावक को अधिकार नहीं है।</span></li> | </span>=<span class="HindiText">सिद्धांत शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों के अध्ययन करने के विषय में श्रावक को अधिकार नहीं है।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> निष्णात को सर्वशास्त्र पढ़ने योग्य है</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> निष्णात को सर्वशास्त्र पढ़ने योग्य है</strong></span> | ||
<span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/106/5 </span>गहिद-समणस्स तव-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिसने स्व समय को जान लिया है...जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का (भी) उपदेश देना चाहिए।</span> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/106/5 </span>गहिद-समणस्स तव-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">जिसने स्व समय को जान लिया है...जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का (भी) उपदेश देना चाहिए।</span> | ||
<span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/21 </span>तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशव्रतं, तद्दीक्षाग्रधृतापराजितमहामंत्रोऽस्तदुर्दैवत:। आंगं पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रांतर:, पर्वांते प्रतिमासमाधिमुपयन्, धन्यो निहंत्यंहसी।21।</span> =<span class="HindiText">धर्माचार्य या गृहस्थाचार्य के उपदेश से सातों तत्त्वों को ग्रहणकर, एकदेश व्रत की दीक्षा के पहले धारण किया है महामंत्र जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्यादेवों का आराधन जिसने, ऐसा द्वादशांग संबंधी और चतुर्दशपूर्व संबंधी शास्त्रों को पढ़कर, पढ़े हैं न्याय आदिक शास्त्र जिसने ऐसा पर्व के दिन प्रतिमायोग को धारण करने वाला पुण्यात्मा द्रव्य व भाव पापों को नष्ट करता है।21।</span></li> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/21 </span>तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशव्रतं, तद्दीक्षाग्रधृतापराजितमहामंत्रोऽस्तदुर्दैवत:। आंगं पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रांतर:, पर्वांते प्रतिमासमाधिमुपयन्, धन्यो निहंत्यंहसी।21।</span> =<span class="HindiText">धर्माचार्य या गृहस्थाचार्य के उपदेश से सातों तत्त्वों को ग्रहणकर, एकदेश व्रत की दीक्षा के पहले धारण किया है महामंत्र जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्यादेवों का आराधन जिसने, ऐसा द्वादशांग संबंधी और चतुर्दशपूर्व संबंधी शास्त्रों को पढ़कर, पढ़े हैं न्याय आदिक शास्त्र जिसने ऐसा पर्व के दिन प्रतिमायोग को धारण करने वाला पुण्यात्मा द्रव्य व भाव पापों को नष्ट करता है।21।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> शास्त्र श्रवण में फलेच्छा का निषेध</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> शास्त्र श्रवण में फलेच्छा का निषेध</strong></span> |
Revision as of 09:02, 7 April 2022
सिद्धांतकोष से
वीतराग वाणी को सुनने की योग्यता आत्मकल्याण की जिज्ञासा के बिना नहीं होती। अत: वे ही शास्त्र के वास्तविक श्रोता हैं तथा उपदेश के पात्र हैं अन्य लौकिक व्यक्ति उपदेश के अयोग्य हैं।
- अव्युत्पन्न आदि की अपेक्षा श्रोताओं के भेद व लक्षण
धवला 1/1,1,1/30/7 त्रिविधा: श्रोतार:, अव्युत्पन्न: अवगतावशेषविवक्षितपदार्थ एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति। तत्र प्रथमोऽव्युत्पन्नत्वान्नाध्यवस्यतीति। विवक्षितपदस्यार्थं द्वितीय: संशेते कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति, प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा। द्वितीयवत्तृतीयोऽपि संशेते विपर्यस्यति वा।
=श्रोता तीन प्रकार के होते हैं -
पहला अव्युत्पन्न अर्थात् वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ,
दूसरा संपूर्ण विवक्षित पदार्थ को जानने वाला,
और तीसरा एकदेश विवक्षित पदार्थ को जानने वाला।
इनमें से पहला श्रोता अव्युत्पन्न होने के कारण विवक्षित पदार्थ के अर्थ को कुछ भी नहीं समझता है। दूसरा 'यहाँ पर इस पद का कौन सा अर्थ अधिकृत है' इस प्रकार विवक्षित पदार्थ के अर्थ में संदेह करता है, अथवा प्रकरण प्राप्त अर्थ को छोड़कर दूसरे अर्थ को ग्रहण करके विपरीत समझता है। दूसरी जाति के समान तीसरी जाति के श्रोता भी प्रकृत पद के अर्थ में या तो संदेह करता है अथवा विपरीत निश्चय कर लेता है ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/50/51/3 )। - मिट्टी आदि श्रोता के भेद व लक्षण
महापुराण/1/139 मृच्चलिन्यजमार्जारशुककंकशिलाहिभि:। गोहंसमहिषच्छिद्रघटदंशजलौककै:।139।
= मिट्टी, चलनी, बकरा, बिलाव, तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डांस और जोंक इस तरह चौदह प्रकार के श्रोताओं के दृष्टांत समझने चाहिए। भावार्थ -
- जैसे मिट्टी पानी का संसर्ग रहते हुए कोमल रहती है बाद में कठोर हो जाती है, उसी प्रकार जो श्रोता शास्त्र सुनते समय कोमल परिणामी रहते हैं बाद में कठोर परिणामी हो जावें वे श्रोता मिट्टी के समान हैं।
- जिस प्रकार चलनी सारभूत आटे को नीचे गिरा देती है और छोक को बचा लेती है, उसी प्रकार जो श्रोता वक्ता के उपदेश में से सारभूत तत्त्व को छोड़कर निस्सार तत्त्व को ग्रहण करते हैं वे चलनी के समान श्रोता हैं।
- जो अत्यंत कामी हैं अर्थात् शास्त्र के उपदेश में श्रृंगार का वर्णन सुनकर जिनके परिणाम श्रृंगार रूप हो जावें वे अज के समान श्रोता हैं।
- जैसे अनेक उपदेश मिलने पर भी बिलाव अपनी हिंसक प्रवृत्ति नहीं छोड़ता, सामने आते ही चूहे पर आक्रमण कर देता है उसी प्रकार जो श्रोता बहुत प्रकार से समझाने पर भी क्रूरता को नहीं छोड़े, अवसर आने पर क्रूर प्रवृत्ति करने लगें, वे मार्जार के समान हैं।
- जैसे तोता स्वयं ज्ञान से रहित हैं, दूसरों के समझाने पर कुछ शब्द मात्र ग्रहण कर पाते हैं वे शुक के समान श्रोता हैं।
- जो बगुले के समान बाहर से भद्र परिणामी मालूम होते हैं, परंतु जिनका अंतरंग दुष्ट हो वे बगुला के समान श्रोता है।
- जिनके परिणाम हमेशा कठोर रहते हैं, तथा जिनके हृदय में समझाये जाने पर भी जिनवाणी रूप जल का प्रवेश नहीं हो पाता वे पाषाण के समान श्रोता हैं।
- जैसे साँप को पिलाया हुआ दूध भी विष रूप हो जाता है, वैसे ही जिनके सामने उत्तम से उत्तम उपदेश भी खराब असर करता है वे सर्प के समान श्रोता हैं।
- जैसे गाय तृण खाकर दूध देती है, वैसे ही जो थोड़ा सा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वे गाय के समान श्रोता हैं।
- जो केवल सार वस्तु को ग्रहण करते हैं वे हंस के समान श्रोता हैं।
- जैसे भैंसा पानी तो थोड़ा पीता है पर समस्त पानी को गंदला कर देता है इसी प्रकार जो श्रोता उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं, परंतु अपने कुतर्कों से समस्त सभा में क्षोभ पैदा कर देते हैं वे भैंसा के समान श्रोता हैं।
- जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे सछिद्रघट के समान हैं।
- जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें परंतु सारी सभा को बिलकुल व्याकुल कर दें वे डाँस के समान श्रोता हैं।
- जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे जोंक के समान श्रोता हैं।139।
- मिट्टी आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य विभाग महापुराण/1/140-141 श्रोतार: समभावा: स्युरुत्तमाधममध्यमा:। अन्यादृशोऽपि संत्येव तत्किं तेषामियत्तया।140। गोहंससदृशान्प्राहुरुत्तमान्मृच्छुकोपमान् । माध्यमान्विदुरन्यैश्च समकक्ष्योऽधमो मत:।141। =ऊपर कहे हुए श्रोताओं के उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी भेद हैं, उनकी गणना करने से क्या लाभ।140। इनमें जो श्रोता गाय और हंस के समान हैं, वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोता के समान हैं वे मध्यम कहलाते हैं। बाकी सब श्रोता अधम माने गये हैं।141।
- सच्चे श्रोता का स्वरूप
कषायपाहुड़ 1/1/7/4 ण च सिस्सेसु सम्मत्तत्थित्तमसिद्धं, अहेदुदिट्ठिवादसुणणण्णहाणुववत्तीदो तेसिं तदत्थित्तसिद्धीदो। = शिष्यों में सम्यक् श्रद्धा का अस्तित्व असिद्ध है सो बात नहीं है, क्योंकि अहेतुवाद ऐसे दृष्टिवाद अंग का सुनना सम्यक्त्व के बिना बन नहीं सकता है। इसलिए उनमें सम्यक्त्व का अस्तित्व सिद्ध है।
धवला 12/4,2,13,96/414/10 धारणगहणसमत्थाणं चेव संजदाणं विणयालंकाराणं वक्खाणं कादव्वमिदि भणिदं होदि।
= धारण व अर्थग्रहण में समर्थ तथा विनय से अलंकृत ही संयमीजनों के लिए व्याख्यान करना चाहिए, यह अभिप्राय है।
महापुराण/1/145,146 श्रोता शुश्रूषताद्यै: स्वैर्गुणैर्युक्त: प्रशस्यते।...।145। शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। स्मृत्यूहापोहनिर्णीतो: श्रोतुरष्टौ गुणान् विदु:।146। = जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है।145। शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीत (तत्त्वाभिनिवेश सागार धर्मामृत ) ये श्रोताओं के आठ गुण जानने चाहिए।146। ( सागार धर्मामृत/1/7 )।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/74 अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य। जिनधर्मदेशनाया भवंति शुद्धा धिय:।74। = दुखदायक, दुस्तर और पापों के स्थान इन आठ पदार्थों को परित्याग करके निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं। आत्मानुशासन/7 भव्य: किं कुशलं ममेति विमृशन् दु:खाद्भृशंभीतिवान्, सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभव: श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्मं शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं गृह्वन् धर्मकथाश्रुतावधिकृत: शास्यो निरस्ताग्रह:।7। = जो भव्य है, मेरे लिए हितकारक मार्ग कौन सा है इसका विचार करने वाला है, दु:ख से अत्यंत डरा हुआ है, यथार्थ सुख का अभिलाषी है, श्रवण आदि रूप बुद्धि से संपन्न है, तथा उपदेश को सुनकर और उसके विषय में स्पष्टता से विचार करके जो युक्ति व आगम से सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्म को ग्रहण करने वाला है, ऐसे दुराग्रह से रहित शिष्य धर्मकथा के सुनने का अधिकारी माना गया है।7। सागार धर्मामृत/2/19 यावज्जीवमिति त्यक्त्वा, महापापानि शुद्धधी:। जिनधर्मश्रुतेर्योग्य: स्यात्कृतोपनयो द्विज:।19। = अनंत संसार के कारणभूत मद्यपानादिक पापों को जीवनपर्यंत के लिए छोड़कर, सम्यक्त्व के द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार जिसका ऐसा ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय जैनधर्म को सुनने का अधिकारी होता है।19। न्यायदीपिका/3/80/124/4 सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभावं हंतुमुपरितननयमर्थज्ञानस्वभावं स्वीकर्तु च य: समर्थ: आत्मा स एव शास्त्राधिकारीति। = समीचीन उपदेश से पहले के अज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के तत्त्वज्ञान स्वभाव को प्राप्त करने में जो समर्थ आत्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है।
- उपदेश के अयोग्य पात्र धवला 12/4,2,13,96/ गा.4/414 बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम् । नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4। = जिस प्रकार पति के अंधा होने पर स्त्रियों का विलास व सुंदरता व्यर्थ है, इसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होने पर पुरुषों का वक्तापना व्यर्थ है। सागार धर्मामृत/1/9 कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्मं लघुकर्मतया द्विषन् । भद्र: स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ।9। = मिथ्यामत में स्थित जीव मिथ्यात्व की मंदता से जैनधर्म से द्वेष न करने वाला व्यक्ति भद्र है वह उपदेश का पात्र है, उससे विपरीत अभद्र है तथा उपदेश पाने का अधिकारी नहीं है।9।
- अनिष्णात को सिद्धांत शास्त्र सुनना योग्य नहीं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/461/675 पर उद्धृत - सव्वेण वि जिणवयणं सोदव्वं सट्ठिदेण पुरिसेण। छेदसुदस्स हु अत्थो ण होदि सव्वेण णादव्वो।461।
= श्रद्धावान् सर्व पुरुष जिनवचन सुन सकते हैं, परंतु प्रायश्चित्त शास्त्र का अर्थ सर्व लोगों को जानने का अधिकार नहीं है।
देखें श्रावक - 4.9 गणधर, प्रत्येक बुद्ध आदि द्वारा रचित प्रायश्चित्त शास्त्र का देशव्रती को पढ़ने का अधिकार नहीं है। धवला 1/1,1,2/106/3 विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा। = जिसका जिन वचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए। सागार धर्मामृत/7/50 स्यान्नाधिकारी सिद्धांत-रहस्याध्ययनेऽपि च।50। =सिद्धांत शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों के अध्ययन करने के विषय में श्रावक को अधिकार नहीं है। - निष्णात को सर्वशास्त्र पढ़ने योग्य है धवला 1/1,1,2/106/5 गहिद-समणस्स तव-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। = जिसने स्व समय को जान लिया है...जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का (भी) उपदेश देना चाहिए। सागार धर्मामृत/2/21 तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशव्रतं, तद्दीक्षाग्रधृतापराजितमहामंत्रोऽस्तदुर्दैवत:। आंगं पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रांतर:, पर्वांते प्रतिमासमाधिमुपयन्, धन्यो निहंत्यंहसी।21। =धर्माचार्य या गृहस्थाचार्य के उपदेश से सातों तत्त्वों को ग्रहणकर, एकदेश व्रत की दीक्षा के पहले धारण किया है महामंत्र जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्यादेवों का आराधन जिसने, ऐसा द्वादशांग संबंधी और चतुर्दशपूर्व संबंधी शास्त्रों को पढ़कर, पढ़े हैं न्याय आदिक शास्त्र जिसने ऐसा पर्व के दिन प्रतिमायोग को धारण करने वाला पुण्यात्मा द्रव्य व भाव पापों को नष्ट करता है।21।
- शास्त्र श्रवण में फलेच्छा का निषेध महापुराण/1/143 श्रोता न चैहिकं किंचित्फलं वांछेत्कथाश्रुतौ। नेच्छेद्वक्ता च सत्कारधनभेषजसत्क्रिया:।143। = श्रोताओं को शास्त्र सुनने के बदले किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करनी चाहिए, इसी प्रकार वक्ता को भी श्रोताओं से सत्कार, धन, औषधि और आश्रय (घर) आदि की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
पुराणकोष से
धर्म को सुनने वाले पुरुष । ये चौदह प्रकार के होते हैं । इनके ये भेद जिन पदार्थों के गुण-दोषों से तुलना करके बताये गये हैं उनके नाम हैं― मिट्टी, चलनी, बकरा, बिलाव, तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डाँस और जोंक । इनमें जो गाय और हंस के समान होते हैं उन्हें उत्तम श्रोता कहा गया है । मिट्टी और तोते के समानवृत्ति के मध्यम श्रोता और शेष अधम श्रेणी के माने गये हैं । गुण और दोषों के बतलाने वाले श्रोता सत्कथा के परीक्षक होते हैं । शास्त्रश्रवण से सांसारिक सुख की कामना नहीं की जाती । श्रोता के आठ गुण होते हैं । वे हैं― शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीत । शास्त्र सुनने के बदले किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करना श्रोता का परम कर्त्तव्य है । महापुराण 1. 38-147