भोगभूमि: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से ==<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/10 </span><span class="SanskritText">दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद्-भोगभूमय इति व्यपदिश्यंते।</span> = <span class="HindiText">इतर क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता है इसलिए उनको भोगभूमि जानना चाहिए। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/16 </span><span class="SanskritText">ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविकाः। पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः। न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति:। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजः। रमंते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवंति परं फलं। यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यांति मृता अपि। ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा:। </span>= <span class="HindiText">ज्योतिरंग आदि दस प्रकार के (देखें [[ वृक्ष ]]) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं और इनसे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थान को भोगभूमि कहते हैं। भोगभूमि में नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णा श्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्य से पति-पत्नी होकर रमण होते हैं। वे सदा नीरोग ही रहते हैं और सुख भोगते हैं। यहाँ के लोक स्वभाव से ही मृदुपरिणामी अर्थात् मंद कषायी होते हैं, इसलिए मरणोत्तर उनकी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं। (देखें [[ वृक्ष#1.1 | वृक्ष - 1.1 ]])</span></li> | |||
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Revision as of 22:54, 8 November 2022
== सिद्धांतकोष से == सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/10 दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद्-भोगभूमय इति व्यपदिश्यंते। = इतर क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता है इसलिए उनको भोगभूमि जानना चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/16 ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविकाः। पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः। न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति:। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजः। रमंते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवंति परं फलं। यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यांति मृता अपि। ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा:। = ज्योतिरंग आदि दस प्रकार के (देखें वृक्ष ) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं और इनसे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थान को भोगभूमि कहते हैं। भोगभूमि में नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णा श्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्य से पति-पत्नी होकर रमण होते हैं। वे सदा नीरोग ही रहते हैं और सुख भोगते हैं। यहाँ के लोक स्वभाव से ही मृदुपरिणामी अर्थात् मंद कषायी होते हैं, इसलिए मरणोत्तर उनकी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं। (देखें वृक्ष - 1.1 ) देखें भूमि । पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ
पुराणकोष से
अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में विद्यमान भरतक्षेत्र की भूमि । यहाँ स्त्री-पुरुष युगल रूप में उत्पन्न होते हैं । इसे उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन भागों में विभाजित किया गया है ।
अवसर्पिणी के प्रथम सुषमा-सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि होती हैं । इस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य और शरीर की अवगाहना छ: हजार धनुष होती है । वे सौम्याकृति तथा आभूषणों से अलंकृत होते हैं । ये तीन दिन के अंतर से (हरिवंशपुराण के अनुसार चार दिन के अंतर से) कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल के बराबर भोजन करते हैं । उन्हें कोई श्रम नहीं करना पड़ता । इनके न रोग होता है, न मलमूत्र आदि की बाधा । न मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना ही आता है और न इनका असमय में मरण होता है । स्त्रियों की आयु और ऊँचाई पुरुषों के समान होती है । स्त्री-पुरुष दोनों जीवन पर्यंत भोग भोगते हैं । भोग-सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । इस समय मद्यांग, तूर्यांग, विभूषांग, माल्यांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग जाति के दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो विभिन्न सामग्री देते हैं । आयु के अंत में पुरुष को जिह्माई और स्त्री को छींक आती है और वे मरकर स्वर्ग जाते हैं ।
दूसरे सुषमा काल में मध्यम भोगभूमि रहती है । इस काल के मनुष्य देवों के समान कांति के धारी होते हैं उनकी आयु दो पल्य की तथा शारीरिक ऊँचाई चार हजार धनुष होती है । ये दो दिन (हरिवंशपुराण के अनुसार तीन दिन) बाद कल्पवृक्ष से प्राप्त बहेड़े के बराबर आहार करते हैं ।
तीसरे सुषमा-दु:षमा काल में जघन्य भोगभूमि रहती है । इसमें मनुष्यों की आयु एक पल्य, तथा शरीर दो हजार धनुष ऊँचा और श्याम वर्ण का होता है । ये एक दिन के (हरिवंशपुराण के अनुसार दो दिन के) अंतर से आँवले के बराबर भोजन करते हैं । यहाँ कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच ही जन्मते हैं तथा मरकर वे पहले और दूसरे स्वर्ग में अथवा भवनवासी आदि तीन निकायों में उत्पन्न होते हैं । यहाँँ की भूमि इंद्रनील आदि नीलमणि, जात्यंदन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि लालमणि, हैमा आदि पीतमणि और मुक्ता आदि सफेद-मणियों से व्याप्त होती है तथा चार अंगुल प्रमाण तृणों से आच्छादित होती है तथा दूध, दही, घी, मधु, ईख से भरपूर होती है । यहाँ गर्भ से युगल रूप में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों के सात दिन तो अँगूठा चूसने में बीतते हैं, पश्चात् सात दिन तक वे रेंगते हैं, फिर सात दिन लड़खड़ाते हुए चलते, फिर सात दिन तक स्थिर गति से चलते, पश्चात् सात दिन कला-अभ्यास में निपुणता प्राप्त करते और इसके पश्चात् सात दिन इनके यौवन में बीतते हैं । सातवें सप्ताह में इन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है । पुरुष-स्त्री को आर्या तथा स्त्री-पुरुष को आर्य कहती है । इस समय न ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं और न असि-मसि आदि षट्कर्म । सेव्य-सेवक भी नहीं होते । मनुष्य विषयों में मध्यस्थ होते हैं । उनके न मित्र होते हैं न शत्रु । वे स्वभाव से अल्प कषायी होते हैं । आयु पूर्ण होने पर युगल रूप में ही मरते हैं । यहाँँ के सिंह भी हिंसा नहीं करते । नदियों में मगरमच्छ नहीं होते । यहाँ न अधिक शीत पड़ती है न अधिक गर्मी । तीव्र वायु भी नहीं चलती ।
जंबूद्वीप में छ: भोगभूमियाँ होती है । उनके नाम हैं― हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यव्रत, देवकुरु तथा उत्तरकुरु । महापुराण 3.24-54, 9.183, 76. 498-500, पद्मपुराण 3.40, 51-63, हरिवंशपुराण 7.64-78, 92.94, 102-104