कर्म भूमि: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="HindiText"> देखें [[ भूमि#3 | भूमि - 3]]। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/5 </span><span class="SanskritText">अथ कथं कर्मभूमित्वम्। शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात्। ननु सर्वं लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव। तत एव प्रकर्षगतिर्विज्ञास्यते, प्रकर्षेण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादिस्थानविशेषप्रापणस्य कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्णादिलक्षणस्य षड्विधस्य कर्मण: पात्रदानादिसहितस्य तत्रैवारंभात्कर्म भूमिव्यपदेशो वेदितव्य:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–'''कर्मभूमि''' यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? <strong>उत्तर</strong>–जो शुभ और अशुभ कर्मों का आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि तीनों लोक कर्म का आश्रय हैं फिर भी इससे उत्कृष्टता का ज्ञान होता है कि वे प्रकर्षरूप से कर्म का आश्रय हैं। सातवें नरक को प्राप्त करने वाले अशुभ कर्म का भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेष को प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन भी यहीं पर होता है। तथा पात्र दान आदि के साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्म का आरंभ यहीं पर होता है इसलिए भरतादिक को '''कर्मभूमि''' जानना चाहिए। </span> | ||
<span class="HindiText"> देखें [[ भूमि#3 | भूमि - 3]]।</span> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 8: | Line 10: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: क]] | [[Category: क]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 14:52, 14 February 2023
सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/5 अथ कथं कर्मभूमित्वम्। शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात्। ननु सर्वं लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव। तत एव प्रकर्षगतिर्विज्ञास्यते, प्रकर्षेण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादिस्थानविशेषप्रापणस्य कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्णादिलक्षणस्य षड्विधस्य कर्मण: पात्रदानादिसहितस्य तत्रैवारंभात्कर्म भूमिव्यपदेशो वेदितव्य:। = प्रश्न–कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर–जो शुभ और अशुभ कर्मों का आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि तीनों लोक कर्म का आश्रय हैं फिर भी इससे उत्कृष्टता का ज्ञान होता है कि वे प्रकर्षरूप से कर्म का आश्रय हैं। सातवें नरक को प्राप्त करने वाले अशुभ कर्म का भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेष को प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन भी यहीं पर होता है। तथा पात्र दान आदि के साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्म का आरंभ यहीं पर होता है इसलिए भरतादिक को कर्मभूमि जानना चाहिए।
देखें भूमि - 3।