उदीरणा: Difference between revisions
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<p> कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है। </p> | <p> <big>कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है।</big> <big></big></p> | ||
1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश | <li> 1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश | ||
1. | <li>1. उदीरणा का लक्षण | ||
2. | <li>2. उदीरणा के भेद | ||
3. उदय व | <li>3. उदय व उदीरणा के स्वरूपमें अंतर | ||
4. | <li>4. उदीरणा से तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं | ||
5. उदीरणा | <li>5. उदीरणा उदयावली की नहीं सत्ताकी होती है | ||
6. उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है | <li>6. उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है | ||
• बध्यमान आयुकी उदीरणा नहीं होती - देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]] | • बध्यमान आयुकी उदीरणा नहीं होती - देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]] | ||
• उदीरणाकी आबाधा - देखें [[ आबाधा#2 | आबाधा - 2]]. कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ | • उदीरणाकी आबाधा - देखें [[ आबाधा#2 | आबाधा - 2]]. कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ | ||
1. उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथंचित् समानता व असमानता | <li>1. उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथंचित् समानता व असमानता | ||
2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा | <li>2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा | ||
3. उत्तर प्रकृति उदीरणाकी ओघ प्ररूपणा (सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) | <li>3. उत्तर प्रकृति उदीरणाकी ओघ प्ररूपणा (सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) | ||
4. एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा | <li>4. एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा | ||
5. मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा | <li>5. मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा | ||
• मूलोत्तर प्रकृतियोंकी सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ (प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्) | • मूलोत्तर प्रकृतियोंकी सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ (प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्) | ||
• प्रकृति उदीरणाकी स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा - देखें [[ ]][[धवला]] पुस्तक संख्या 15/44-97 | • प्रकृति उदीरणाकी स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा - देखें [[ ]][[धवला]] पुस्तक संख्या 15/44-97 | ||
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• भुजगारादि पदोंके उदीरकोंकी काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा- देखें [[ ]][[धवला]] पुस्तक संख्या 15/50 | • भुजगारादि पदोंके उदीरकोंकी काल, अंतर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा- देखें [[ ]][[धवला]] पुस्तक संख्या 15/50 | ||
• बंध व उदय व उदीरणाकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा - देखें [[ ]]उदय 7 | • बंध व उदय व उदीरणाकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा - देखें [[ ]]उदय 7 | ||
1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश | |||
1. उदीरणाका लक्षण | <li>1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश | ||
<li>1. उदीरणाका लक्षण | |||
<p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं। | <p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं। | ||
<p class="HindiText">= कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्वकर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। | <p class="HindiText">= कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्वकर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। | ||
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<p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5 उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणमयतीत्यर्थः। | <p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5 उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणमयतीत्यर्थः। | ||
<p class="HindiText">= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कंध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7 | <p class="HindiText">= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कंध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7 | ||
2. उदीरणाके भेद | <li> 2. उदीरणाके भेद | ||
<p class="SanskritText">[[धवला]] पुस्तक संख्या 15/43/5 उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि। | <p class="SanskritText">[[धवला]] पुस्तक संख्या 15/43/5 उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि। | ||
<p class="HindiText">= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा। | <p class="HindiText">= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा। | ||
3. उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अंतर | <li> 3. उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अंतर | ||
<p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3 भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं। | <p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3 भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं। | ||
<p class="HindiText">= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। | <p class="HindiText">= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। | ||
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<p class="HindiText">= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कंध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कंध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कंध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। | <p class="HindiText">= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कंध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कंध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कंध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। | ||
( कषायपाहुड़ सुत्त./मू.गा. 59/पृ. 465) | ( कषायपाहुड़ सुत्त./मू.गा. 59/पृ. 465) | ||
4. उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं | <li> 4. उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं | ||
<p class="SanskritText">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32 बाह्याभ्यंतरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मंदनात् गमनात् मंदः इत्युच्यते। | <p class="SanskritText">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32 बाह्याभ्यंतरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मंदनात् गमनात् मंदः इत्युच्यते। | ||
<p class="HindiText">= बाह्य और आभ्यंतर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यंत प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मंद हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मंद हैं। | <p class="HindiText">= बाह्य और आभ्यंतर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यंत प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मंद हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मंद हैं। | ||
5. उदीरणा उदयावलीकी नहीं सत्ताकी होती है | <li> 5. उदीरणा उदयावलीकी नहीं सत्ताकी होती है | ||
<p class="SanskritText">[[धवला]] पुस्तक संख्या 15/44/1 णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा। | <p class="SanskritText">[[धवला]] पुस्तक संख्या 15/44/1 णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा। | ||
<p class="HindiText">= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अंतिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)। | <p class="HindiText">= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अंतिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)। | ||
<p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृ. 178 अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति। | <p class="SanskritText">[[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृ. 178 अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति। | ||
<p class="HindiText">= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है। | <p class="HindiText">= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है। | ||
6. उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है | <li> 6. उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है | ||
<p class="SanskritText">सं./प्रा. 473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं। | <p class="SanskritText">सं./प्रा. 473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं। | ||
<p class="HindiText">= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किंतु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी) | <p class="HindiText">= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किंतु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी) | ||
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([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475); ([[गोम्मट्टसार कर्मकांड]] / मूल गाथा संख्या 278-281); (कर्मस्त 39-43); ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)। | ([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475); ([[गोम्मट्टसार कर्मकांड]] / मूल गाथा संख्या 278-281); (कर्मस्त 39-43); ([[पंचसंग्रह संस्कृत| पंचसंग्रह]] / संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)। | ||
अपवाद संख्या अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ | अपवाद संख्या अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ | ||
1 साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें गुणस्थानमें होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 6 ठे में। | <li>1 साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें गुणस्थानमें होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 6 ठे में। | ||
2 मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र इन 10 प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें में होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 13 वें में। | <li>2 मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र इन 10 प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें में होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 13 वें में। | ||
3 ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अंतराय 5, इन 14 की उदय व्युच्छित्ति 12 वें में एक आवली काल पश्चात् होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है। | <li>3 ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अंतराय 5, इन 14 की उदय व्युच्छित्ति 12 वें में एक आवली काल पश्चात् होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है। | ||
4 चारों आयुका उदय भवके अंतिम समय तक रहता है परंतु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। | <li>4 चारों आयुका उदय भवके अंतिम समय तक रहता है परंतु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। | ||
5 पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। | <li>5 पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। | ||
6 अंतरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। | <li>6 अंतरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। | ||
7 जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) | <li>7 जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) | ||
ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। | ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। | ||
2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा। | <li>2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा। | ||
([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत / परिशिष्ट/पृ. 748); ([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/44-48,56-60); (गो.क.278-281/407-410) | ([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत / परिशिष्ट/पृ. 748); ([[पंचसंग्रह प्राकृत| पंचसंग्रह]] / प्राकृत अधिकार संख्या 3/44-48,56-60); (गो.क.278-281/407-410) | ||
उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 | उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 |
Revision as of 21:31, 29 July 2022
कर्म के उदय की भाँति उदरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है परंतु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषों के द्वारा कर्म को अपने समय से पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदय में ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियों के उदय व उदीरणा की प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जो है वह इस अधिकार में दर्शा दिया गया है।
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं।
= कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्वकर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। (प्र.सं./सं. 3/3-4)
धवला पुस्तक संख्या 15/43/7 का उदीरणा णाम। अपक्वपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादिं कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा।
= प्रश्न-उदीरणा किसे कहते हैं। उत्तर-(अपक्व अर्थात्) नहीं पके हुए कर्मोंको पकानेका नाम उदीरणा है। आवली (उदयावली) से बाहरकी स्थितिको लेकर आगेकी स्थितियोंके, बंधावली अतिक्रांत प्रदेशाग्रको असंख्यातलोक प्रतिभागसे अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावलीमें देना, यह उदीरणा कहलाती है। (धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/214); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439/592/8)
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5 उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलांतररूपेण परिणमयतीत्यर्थः।
= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कंध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7
धवला पुस्तक संख्या 15/43/5 उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि।
= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा।
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3 भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं।
= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं।
धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/213/11 उदय उदीरणाणं को विसेसो। उच्चदे-जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्कडुणादिपओगेण विणा ट्ठिदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणो फलं देंति; तेसिं कम्मखंधाणमुदओ त्ति सण्णा। जे कम्मक्खंधा महंतेसु ट्ठिदि-अणुभागेसु अवट्ठिदा ओक्कडिदूण फलदाइणो कीरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्वाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात्।
= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कंध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कंध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कंधोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कंध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। ( कषायपाहुड़ सुत्त./मू.गा. 59/पृ. 465)
राजवार्तिक अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32 बाह्याभ्यंतरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मंदनात् गमनात् मंदः इत्युच्यते।
= बाह्य और आभ्यंतर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यंत प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मंद हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मंद हैं।
धवला पुस्तक संख्या 15/44/1 णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा।
= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यंत, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अंतिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)।
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृ. 178 अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति।
= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है।
सं./प्रा. 473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं।
= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किंतु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 5/442)
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या व.भाषा 30/67/3 पुनरुदयवतां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां चतुर्णामुदीरको भवति स जीवः, उदयोदीरणयोः स्वामिभेदाभावात्।
= प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जातै जाकैं जिनिका उदय ताकौं तिनिहोकी उदीरणा भी संभवै। 2. कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ 1. उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथंचित् समानता व असमानता
सं.प्रा. 3/44-47 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो। मोत्तूण तिण्णि-ठाणं पमत्त जोई अजोई य ।44।
= स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोंको छोड़कर कोई विशेष नहीं है। (गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 278/407); (कर्मस्त 38-39)
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ।473।
= वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या 278-281); (कर्मस्त 39-43); ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)। अपवाद संख्या अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ