केवली 07: Difference between revisions
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- केवली समुद्घात निर्देश
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/3 लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दंडकपाटप्रतरलोकपूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत:...। समुपहृतप्रदेशविसरण:।=जिनके स्वल्पमात्र में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने (केवली अपने) आत्मप्रदेशों के फैलने से कर्म रज को परिशातन करने की शक्तिवाले दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को...करके अनंतर के विसर्पण का संकोच करके...।
राजवार्तिक/1/20/12/77/19 द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुद्बुदाविर्भावोपशमनवद् देहस्थात्मप्रदेशानां बहि:समुद्घातनं केवलिसमुद्घात:।=जैसे मदिरा में फेन आकर शांत हो जाता है उसी तरह समुद्घात में देहस्थ आत्मप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं, ऐसा समुद्घात केवली करते हैं।
धवला 13/2/61/300/9 दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम।=दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीव प्रदेशों की अवस्था को केवलिसमुद्घात कहते हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221 )।
- भेद-प्रभेद
धवला 4/,1,3,2/28/8 दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउव्विहो। =दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953/14 केवलिसमुद्घात: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा। दंडसमुद्घात: स्थितोपविष्टभेदाद् द्वेधा। कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थित: उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेवैककावेव।=केवली समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण। तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड, अर एक उपविष्ट दंड। बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट। बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार हैं।
- दंडादि भेदों के लक्षण
धवला 4/1,3,2/28/8 तत्थ दंडसमुग्घादो णाम पुव्वसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोद्दसरज्जुविसप्पणं। कवाडसमुग्घादो णाम पुव्विल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरितसव्वखेत्तावूरणं। पदरसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सव्वलोगावूरणं। लोगपूरणसमुग्घादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगवूरणं।=जिसकी अपने विष्कंभ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्व शरीर से तिगुने बाहल्यरूप दंडाकार से केवली के जीव प्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलने का नाम दंड समुद्घात है। दंड समुद्घात में बताये गये बाहल्य और आयाम के द्वारा पूर्व पश्चिम में वातवलय से रहित संपूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के जीवप्रदेशों का सर्वलोक के व्याप्त करने को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। ( धवला/13/5/4/26/2 )
- सभी केवलियों को होने न होने विषयक दो मत
भगवती आराधना/2109 उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा। वच्चंति समुग्घादं सेसा भज्जा समुग्घादे।2109।=उत्कर्ष से जिनका आयु छह महीने का अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियम से समुद्घात को प्राप्त होते हैं। बाकी के केवलियों को आयुष्य अधिक होने पर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (पं.सं./प्रा.1/200); ( धवला 1/1,1,30/167 ); ( ज्ञानार्णव/42/42 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/530 )
धवला 1/1,1,60/302/2 यतिवृषभोपदेशात्सर्वघातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते: साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुद्घाता: संतो निर्वृत्तिमुपढौकंते। येषामाचार्याणां लोकव्यापिकेवलिषु विंशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्घातयंति। के न समुद्घातयंति।=यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थान के चरमसमय में संपूर्ण अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होने से सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। परंतु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरण समुद्घात करने वाले केवलियों की बीस संख्या का नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुद्घात करते और कितने नहीं करते हैं।
धवला 13/5,4,31/151/13 सव्वेसिं णिव्वुइमुवगमंताणं केवलिसमुग्घादाभावादो।=मोक्ष जाने वाले सभी जीवों के केवलि समुद्घात नहीं होता।
- आयु के छह माह शेष रहने पर होने न होने संबंधी दो मत
धवला 1/1,1,60/167/303 छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलणाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।167। एदिस्से गाहाए उवएसे किण्ण गहिओ। ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो। =प्रश्न—छह माह प्रमाण आयु के शेष रहने पर जिस जीव को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घात को करके ही मुक्त होता है। शेष जीव समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।167। ( भगवती आराधना/2109 ) इस पूर्वोक्त गाथा का अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है? उत्तर—नहीं, क्योंकि इस प्रकार विकल्प के मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथा का उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
- कदाचित् आयु के अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है
भगवती आराधना/2112 अंतोमुहुत्तसेसे जंति समुग्घादमाउम्मि।2112।=आयुकर्म जब अंतर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवली समुद्घात करते हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1 ); ( धवला 13/5,4,26/84/1 ); ( क्षपणासार/620 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/153/131 )।
- आत्मप्रदेशों का विस्तार प्रमाण
सर्वार्थसिद्धि/5/8/274/11 यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठंते। इतने ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते। =केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव) लोक को व्यापता है उस समय जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं। ( राजवार्तिक/5/8/4/450/1 )
धवला 11/4,2,5,17/31/11 केवली दंड करेमाणो सव्वोसरीरत्तिगुणबाहल्लेण (ण) कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंडं कुणइ। पलियंकेण णिसण्णकेवली।=दंड समुद्घात को करने वाले सभी केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से उक्त समुद्घात को नहीं करते, क्योंकि उनके वेदना का अभाव है। प्रश्न—तो फिर कौन से केवली शरीर से तिगुणे बाहल्य से दंड समुद्घात को करते हैं? उत्तर—पल्यंक आसन से स्थित केवली उक्त प्रकार से दंड समुद्घात को करते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/544/953 केवल भाषार्थ—दंड—स्थितिदंड समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश वातवलय के बिना लोक की ऊँचाई किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाणतैं लंबै बहुरि बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश हैं। स्थितिदंड के क्षेत्र को नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदंड विषै क्षेत्र हो है। सो यहाँ 36 अंगुल चौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घातविषै एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोकप्रमाण तो लंबे हो हैं सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लंबे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक की चौड़ाई प्रमाण चौड़े हो हैं सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैं लोक सर्वत्र सात राजू चौड़ा है तातैं सात राजू प्रमाण चौड़े हो है। बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषै ऊँचे हो हैं।
पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र तै तिगुना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना। उत्तराभिमुख स्थित कपाट के चौदह राजू प्रमाण तो लंबे पूर्व-पश्चिम दिशा विषैं लोक की चौड़ाई के प्रमाण चौड़े हैं। उत्तर-दक्षिण विषै क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े हैं। उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषैं तातैं तिगुनी छत्तीस अंगुल की ऊँचाई है। प्रतर—बहुरि प्रतर समुद्घात विषैं तीन वलय बिना सर्व लोक विषैं प्रदेश व्याप्त हैं तातैं तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपूरण—बहुरि लोकपूरण विषैं सर्व लोकाकाश विषैं प्रदेश व्याप्त हो है तातैं लोकप्रमाण एक जीव संबंधी लोकपूरण विषैं क्षेत्र जानना।
क्षपणासार/623/735/8-11 भाषार्थ—कायोत्सर्ग स्थित केवली के दंड समुद्घात उत्कृष्ट 108 प्रमाण अंगुल ऊँचा, 12 प्रामाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि प्रमाणांगुल युक्त है। पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दंड समुद्घात विषैं ऊँचाई 36 प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि 113 प्रमाणांगुल युक्त है।
- कुल आठ समय पर्यंत रहता है
राजवार्तिक/1/20/12/77/27 केवलिसमुद्घात: अष्टसामयिक: दंडकवाटप्रतरलोकपूरणानि चतर्षु समयेषु पुन:प्रतरकपाटदंडस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति। केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दंड, कवाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं।
- प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम
पं.सं./प्रा./197-198 पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए। तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूणयं।197। विवरं पंच समए जोई मंथाणयं तदो छट्ठे। सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं।198।= समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दंडरूप समुद्घात करते हैं। द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं। तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समय में लोक-पूरण समुद्घात करते हैं। पाँचवें समय में वे सयोगिजिन लोक के विवरगत आत्मप्रदेशों का संवरण (संकोच) करते हैं। पुन: छट्ठे समय में मंथान (प्रतर) गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं। सातवें समय में कपाट-गत आत्म-प्रदेशों का संवरण करते हैं और आठवें समय में दंडसमुद्घातगत आत्म–प्रदेशों का संवरण करते हैं। ( भगवती आराधना/2115 ); ( क्षपणासार/ मू./627); ( क्षपणासार/ भा/623)।
क्षपणासार/ मू./621 हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावज्जिदं हवे करणं। तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स।621।=दंड समुद्घात करने का काल के अंतर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहलैं आवर्जित नामा करण हो है सो जिनेंद्र देवकैं जो समुद्घात क्रिया कौं सन्मुखपना सोई आवर्जितकरण कहिए।
- दंड समुद्घात में औदारिक काययोग होता है शेष में नहीं
पं.सं./प्रा./199 दंडदुगे ओरालं...।...।199।=केवलि समुद्घात के उक्त आठ समयों में से दंड द्विक अर्थात् पहले और सातवें समय के दोनों समुद्घातों में औदारिक काययोग होता है। ( धवला 4/1,4,88/263/1 )
- प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेष में आहारक होता है
क्षपणासार/619 णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ।619।=केवल समुद्घातकौं प्राप्त केवलिविषैं दोय तौं प्रतर के समय अर एक लोकपूरण का समय इन तीन समयनि विषैं नोकर्म का आहार नियमतैं नाहीं है अन्य सर्व सयोगी जिन का कालविषैं नोकर्म का आहार है।
- केवली समुद्घात में पर्याप्तापर्याप्त संबंधी नियम
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/13 सयोगे पर्याप्त:। समुद्धाते तूभय: अयोगे पर्याप्त एव। =सयोगी विषैं पर्याप्त है, समुद्घात सहित दोऊ (पर्याप्त व अपर्याप्त) है। अयोगी विषैं पर्याप्त ही है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/587/791/12 दंडद्वये काल: औदारिकशरीरपर्याप्ति:, कवाटयुगले तन्मिश्र: प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य:। मूलशरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय: पूर्यंते।=दंड का करनैं वा समेटने रूप युगलविषैं औदारिक शरीर पर्याप्ति काल है। कपाट का करने समेटनेरूप युगलविषैं औदारिकमिश्रशरीर काल है अर्थात् अपर्याप्त काल है। प्रतर का करना वा समेटनाविषैं अर लोकपूरणविषैं कार्माणकाल है। मूलशरीरविषैं प्रवेश करने का प्रथम समय तैं लगाय संज्ञी पंचेंद्रियवत्, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करै है।
- पर्याप्तापर्याप्त संबंधी शंका-समाधान
धवला 2/1,1/441-444/1 केवली कवाड-पदर-लोगपूरणगओ पज्जत्तो अपज्जत्तो वा। ण ताव पज्जत्तो, ‘ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ इच्चेदेण सुत्तेण तस्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगिं मोत्तण अण्णे ओरालियमिस्सकायजोगिणो अपज्जत्ता ‘सम्मामिच्छाइट्ठि संजदा-संजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता त्ति सुत्तणिद्देसादो। ण अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पि पज्जत्तयत्त-प्पसंगादो। ण च एवं ‘आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं’ त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जत्तभाव-सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण ‘संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता’ त्ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि....त्ति अणेयंतियादो।...किमेदेण जाणाविज्जदि।...त्ति एदं सुत्तमणिच्चमिदि...ण च सजोगम्मि सरीरपट्ठवणमत्थि, तदो ण तस्स अपज्जत्तमिदि ण, छ-पज्जत्ति-सत्ति-वज्जियस्स अपज्जत्त-ववएसादो। =प्रश्न—कपाट, प्रतर, और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली पर्याप्त हैं या अपर्याप्त? उत्तर—उन्हें पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ‘औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से उनके अपर्याप्तपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्तक ही हैं। प्रश्न—‘‘सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं’’ इस प्रकार सूत्र निर्देश होने के कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगी को छोड़कर अन्य औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि (यदि ऐसा मान लें)...तो आहारक मिश्रकाययोगवाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत हैं। किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘आहारकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है’ इस सूत्र से वे अपर्याप्तक ही सिद्ध होते हैं। प्रश्न—यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सूत्र से संयतों के स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं, यह सूत्र बाधा जाता है। उत्तर—...इस कथन में अनेकांतदोष आ जाता है। (क्योंकि अन्य सूत्रों से यह भी बाधा जाता है। प्रश्न—...(सूत्र में पड़े) इस नियम शब्द से क्या ज्ञापित होता है। उत्तर—इससे ज्ञापित होता है...कि यह सूत्र अनित्य है।...कहीं प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है। प्रश्न—सयोग अवस्था में (नये) शरीर का आरंभ तो होता नहीं; अत: सयोगी के अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। उत्तर—नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्घात अवस्था में सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्ति से रहित होते हैं, अतएव उन्हें अपर्याप्त कहा है।
- समुद्घात करने का प्रयोजन
भगवती आराधना/2113-2116 ओल्लं संतं विरल्लिदं जध लहु विणिव्वादि। संवेदियं तुण तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं।2113। ढिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स। सउदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्ठिदी होदि।2114।...सेलेसिमब्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि।2116।=गीला वस्त्र पसारने से जल्दी शुष्क होता है, परंतु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार बहुत काल में होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्घात-द्वारा शीघ्र हो जाता है।2113। स्थिति बंध का कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होने से उसकी अल्प स्थिति होती हैं।2114। अंत में योग निरोध वह धीर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।2116।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/221/8 संसारस्थितिविनाशार्थं...केवलिसमुद्धातं।=संसार की स्थिति का विनाश करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं।
- इसके द्वारा शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता
धवला 12/4,2,7,14/18/2 सुहाणं पयडीणं विसोहीदो केवलिसमुग्घादेण जोगणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणावेदि।=शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगनिरोध से नहीं होता है।
- जब शेष कर्मों की स्थिति आयु के समान न हो तब उनका समीकरण करने के लिए किया जाता है
भगवती आराधना/2110-2111 जेसिं अउसमाइं णामगोदाइं वेदणीयं च। ते अकदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2110। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि। ते दु कदसमुग्घादा जिणा उवणमंति सेलेसिं।2111।=आयु के समान ही अन्य कर्मों की स्थिति को धारण करने वाले केवली समुद्घात किये बिना संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2110। जिनके वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है वे केवली भगवान् समुद्घात के द्वारा आयुकर्म की बराबरी की स्थिति करते हैं, इस प्रकार वे संपूर्ण शीलों के धारक बनते हैं।2111। ( सर्वार्थसिद्धि/9/44/457/1 ); ( धवला 1/1,1,60/168/304 ); ( ज्ञानार्णव/42/42 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/153/7 )
धवला 1/1,1,60/302/6 के न समुद्घातयंति। येषां संसृतिव्यक्ति: कर्मस्थित्या समाना ते न समुद्घातयंति, शेषा: समुद्घातयंति।=प्रश्न—कौन से केवली समुद्घात नहीं करते हैं? उत्तर—जिनकी संसार-व्यक्ति अर्थात् संसार में रहने का काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं।
- कर्मों की स्थिति बराबर करने का विधिक्रम
धवला 6/1,9-8,16/412-417/4 पढमसमए...ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि (412/4)। विदियसमए...तम्हि सेसिगाए ट्ठिदीए असंखेज्जे भागे हणदि। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंते भागे हणदि। तदो तदियसमए मंथं करेदि। ट्ठिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि। तदो चउत्थसमए...लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए। ट्ठिदिअणुभागे तहेव णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदिं (413/1) ठवेदि संखेज्जगुणमाउआदो।...एत्तो सेसियाए ट्ठिदीए संखेज्जे भागे हणदि।...एत्तो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग...वचिजोगं...सुहुमउस्सासं णिरुं भदि (414/1)। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण...इमाणि करणाणि करेदि—पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाण हेट्ठादो (415/1) एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि (416/1)। जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि भवंति (417/1)।=प्रथम समये में...आयु को छोड़कर शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अंतिम समय में घातने से शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति संबंधी अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समय में शेष स्थिति के असंख्यात बहुभाग को नष्ट करते हैं तथा अप्रशस्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग के भी अनंत बहुभाग को नष्ट करते हैं। पश्चात् तृतीय समय में प्रतर संज्ञित मंथसमुद्घात को करते हैं। इस समुद्घात में भी स्थिति व अनुभाग को पूर्व के समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समय में...लोकपूरण समुद्घात में समयोग हो जाने पर योग की एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्था में भी स्थिति और अनुभाग को पूर्व के ही समान नष्ट करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में आयु से संख्यातगुणी अंतर्मुहूर्त मात्र स्थिति को स्थापित करता है।...उतरने के प्रथम समय से लेकर शेष स्थिति के संख्यात बहुभाग को, तथा शेष अनुभाग के अनंत बहुभाग को भी नष्ट करता है।...यहाँ अंतर्मुहूर्त जाकर तीनों योग...उच्छ्वास का निरोध करता है...पश्चात् अपूर्व स्पर्धककरण करता है...पश्चात्...अंतर्मुहूर्तकाल तक कृष्टियों को करता है।...फिर अपूर्व स्पर्धकों को करता है।...योग का निरोध हो जाने पर तीन अघातिया कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं। ( धवला 11/4,2,6,20/133-134 ); ( क्षपणासार/623-644 )।
- स्थिति बराबर करने के लिए इसकी आवश्यकता क्यों
धवला 1/1,1,60/302/9 संसारविच्छित्ते: किं कारणम् । द्वादशांगावगम: तत्तीव्रभक्ति: केवलिसमुद्घातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च। न चैते सर्वेषु संभवंति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात् । न तत्र संसारसमानकर्मस्थितय: समुद्घातेन बिना स्थितिकांडकानि अंतर्मुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पल्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयंत: आयु:समानि कर्माणि कुर्वंति। अपरे समुद्घातेन समानयंति। न चैष संसारघात: केवलिनि प्राक् संभवति स्थितिकांडघातवत्समानपरिणामत्वात् ।=प्रश्न–संसार के विच्छेद का क्या कारण है? उत्तर—द्वादशांग का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, केवलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसार के विच्छेद के कारण हैं। परंतु ये सब कारण समस्त जीवों में संभव नहीं हैं, क्योंकि, दशपूर्व और नौपूर्व के धारी जीवों का भी क्षपक श्रेणी पर चढ़ना देखा जाता है। अत: वहाँ पर संसार-व्यक्ति के समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त में नियम से नाश को प्राप्त होने वाले पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति कांडकों का विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घात के बिना ही आयु के समान शेष तीन कर्मों को कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घात के द्वारा शेष कर्मों को आयु के समान करते हैं। परंतु यह संसार का घात केवली से पहले संभव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति कांडक के घात के समान सभी जीवों के समान परिणाम पाये जाते हैं।
- समुद्घात रहित जीव की स्थिति समान कैसे होती है
धवला 13/5,4,31/152/1 केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदीए घादो जायदे। ण ट्ठिदिखंडयघादेण तग्घादुववत्तीदो।=प्रश्न—जिन जीवों के केवलिसमुद्घात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पल्य के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति का घात कैसे होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि स्थितिकांडक घात के द्वारा उक्त स्थिति का घात बन जाता है।
- 9वें गुणस्थान में ही परिणामों की समानता होने पर स्थिति की असमानता क्यों?
धवला/1/1,1,60/302/7 अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वैषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधात् । प्रश्न—अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहने पर संसार—व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मों की स्थिति में विषमता क्यों रहती है? उत्तर—नहीं, क्योंकि संसार की व्यक्ति और कर्मस्थिति के घात के कारणभूत परिणामों के समान रहने पर संसार को उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थिति के समान मान लेने में विरोध आता है।
- केवली समुद्घात सामान्य का लक्षण