अच्युत: Difference between revisions
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<p id="2">(2) कल्प स्वर्गों में 16वाँ स्वर्ग - देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]; | |||
<p id="3">(3)आरण अच्युत स्वर्ग का तृतीय पटल व इंद्रक - देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]; | |||
<p id="4">(4) ( महापुराण सर्ग/श्लोक)-पूर्व भव नं. 8 में महानंद राजा का पुत्र हरिवाहन था (8237) पूर्व भव नं. 7 में सूकर बना (8/229) पूर्व भव नं. 6 में उत्तरकुरु में मनुष्य पर्याय प्राप्त की (9/90) पूर्व भव नं. 5 में ऐशान स्वर्ग में मणिकुंडल नामक देव हुआ (9/187) पूर्व भव नं. 4 में नंदिषेण राजा का पुत्र वरसेन हुआ। (10/150) पूर्व भव नं. 3 में विजय नामक राजपुत्र हुआ (11/10) पूर्व भव नं. 2 में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ (11/160) वर्तमान भव में ऋषभनाथ भगवान का पुत्र तथा भरत का छोटा भाई (16/4) भरत द्वारा राज्य माँगा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली (34/126) भरत के मुक्ति जाने के बाद मुक्ति को प्राप्त किया (47/399) इन का अपर नाम श्रीषेण था (47/372-373)। | |||
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Revision as of 22:38, 6 December 2022
सिद्धांतकोष से
(1)कल्पवासी देवों का एक भेद तथा उनका अवस्थान - देखें स्वर्ग - 5;
(2) कल्प स्वर्गों में 16वाँ स्वर्ग - देखें स्वर्ग - 5;
(3)आरण अच्युत स्वर्ग का तृतीय पटल व इंद्रक - देखें स्वर्ग - 5;
(4) ( महापुराण सर्ग/श्लोक)-पूर्व भव नं. 8 में महानंद राजा का पुत्र हरिवाहन था (8237) पूर्व भव नं. 7 में सूकर बना (8/229) पूर्व भव नं. 6 में उत्तरकुरु में मनुष्य पर्याय प्राप्त की (9/90) पूर्व भव नं. 5 में ऐशान स्वर्ग में मणिकुंडल नामक देव हुआ (9/187) पूर्व भव नं. 4 में नंदिषेण राजा का पुत्र वरसेन हुआ। (10/150) पूर्व भव नं. 3 में विजय नामक राजपुत्र हुआ (11/10) पूर्व भव नं. 2 में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हुआ (11/160) वर्तमान भव में ऋषभनाथ भगवान का पुत्र तथा भरत का छोटा भाई (16/4) भरत द्वारा राज्य माँगा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली (34/126) भरत के मुक्ति जाने के बाद मुक्ति को प्राप्त किया (47/399) इन का अपर नाम श्रीषेण था (47/372-373)। पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ
पुराणकोष से
(1) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 14.34,24.34,25.109
(2) लक्ष्मण का पुत्र । पद्मपुराण 54.27-28
(3) श्रीकृष्ण नारायण । हरिवंशपुराण 50.2
(4) जरासंध का पुत्र । हरिवंशपुराण 52.29-40
(5) तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्वभव का जीव-अच्युतेंद्र । हरिवंशपुराण 9.59
(6) इस नाम के स्वर्ग का तीसरा इंद्रक विमान । हरिवंशपुराण 6.51
(7) अनंतवीर्य का अनुज । महापुराण 16. 3-4
(8) सोलहवां स्वर्ग । यह सभी स्वर्गों के ऊपर स्थित है । यहाँ सर्वदा रत्नमयी प्रकाश रहता है । यहाँ एक सौ उनसठ दिव्य विमान, एक सौ तेईस प्रकीर्णक और छ: इंद्रक विमान हैं दस हजार सामानिक देव, तीस हजार त्रायस्त्रिंश देव, चालीस हजार आत्मरक्ष देव, एक सो पच्चीस अंत-परिषद के सदस्य देव, पाँच सौ बाह्य परिषद के सदस्य देव और दो सौ पचास मध्ययम परिषद के सदस्य देव यहाँ के इंद्र की आज्ञा मानते हैं । यहाँ सभी ऋद्धियाँ, मनोवांछित भोग और वचनातीत सुख प्राप्त होते हैं । सभी गायें कामधेनु, सभी वृक्ष कल्पवृक्ष और सभी रत्न चिंतामणि रत्न होते हैं । दिन रात का विभाग नहीं होता । जिनमंदिरों में जिनेंद्रदेव की सदैव पूजा होती रहती है । यहाँ का इंद्र तीन हाथ ऊँचा, दिव्य देहधारी, सर्वमल रहित होता है । उसकी आयु बाईस सागर होती है । वह ग्यारह मास में एक बार उच्छ्वास लेता है । उसके मन प्रवीचार होता है । यह स्वर्ग मध्यलोक से छ. राजू ऊपर पुष्पक विमान से युक्त होकर स्थित है । इसे पाने के लिए रत्नावली तप किया जाता है । महापुराण 7.32, 10. 185, 73.30, पद्मपुराण 105.166-169, हरिवंशपुराण 6.38, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.119-132, 165 —172
(9) तीर्थंकर वृषभदेव और उनकी रानी यशस्वती का पुत्र । यह चरमशरीरी था । इसका अपरनाम श्रीषेण था । महापुराण 16.1-5 47.372-373 सातवें पूर्वभव में यह विजयनगर में राजा महानंद और उनकी रानी बसंतसेना का हरिवाहन नामक पुत्र था । छठे पूर्वभव में यह अप्रत्याख्यान मान के कारण आर्त्तध्यान से मरकर सूकर हुआ । महापुराण 8.227-229 पाँचवें पूर्वभव में पात्रदान की अनुमोदना के प्रभाव से उत्तर कुरुक्षेत्र में भद्र परिणामी आर्य हुआ । महापुराण 9.90 चौथे पूर्वभव में नंद नामक विमान में मणिकुंडली नामक देव हुआ । महापुराण 9.190 तीसरे पूर्वभव में नंदिषेण राजा और अनंतमती रानी का वरसेन नामक पुत्र हुआ । दूसरे पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और उनको श्रीकांता नामा रानी का पुत्र हुआ । महापुराण 10. 150, 11. 10 पहले पूर्वभव में यह अहमिंद्र हुआ था । महापुराण 11 160-161 वर्तमान पर्याय में भरतेश द्वारा अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर विरक्त होकर इसने वृषभदेव से दीक्षा धारण कर ली थी । भरतेश के मोक्ष जाने के बाद इसने भी मोक्ष पाया । महापुराण 34.90-126, 47.398-399