अश्वकर्ण करण: Difference between revisions
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<p> क्षपणासार /भाषा 462 | <p> क्षपणासार /भाषा 462 चारित्र मोह की क्षपणा विधि में, संज्वलन चतुष्क का अनुभाग, प्रथम कांडक का धात भए पीछे, क्रोध से लोभ पर्यंत क्रम से उसी प्रकार घटता ही है, जिस प्रकार कि घोड़े का कान मध्य प्रदेशतै आदि प्रदेश पर्यंत घटता हो है। इसलिए क्षपक की इस स्थिति को अश्वकर्ण कहते हैं। ऐसी स्थिति में लाने की जो विधि विशेष उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसी का अपर नाम अपर्वतनोद्वर्तन व आंदोलनकरण भी है।</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/364/6)</p> | <p>( धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/364/6)</p> | ||
<p>2. अश्वकर्णकरण विधान</p> | <p>2. अश्वकर्णकरण विधान</p> | ||
<p> क्षपणासार 463-465। भावार्थ संज्वलन | <p> क्षपणासार 463-465। भावार्थ संज्वलन चतुष्क का अनुभाग बंध व सत्त्व क्रम, प्रथम कांडक का घात होने से पहले निम्न प्रकार था-मान का स्तोक (511), क्रोध का विशेष अधिक (515), माया का विशेष अधिक (518) लोभ का विशेष अधिक (521)। यहाँ तक जो कांडक घात होता था उसमें ग्रहण किये गये स्पर्धकों का भी यही क्रम रहता था, परंतु अब इस क्रम में परिवर्तन हो जाता है। प्रथम समय के अनुभाग कांड का क्रम इस प्रकार हो गया - क्रोध के स्पर्धक स्तोक (387); मान के विशेष अधिक (480); माया के विशेष अधिक (510); लोभ के विशेष अधिक (519)। इस प्रकार कांडक का घात भए पीछे शेष स्पर्धकों का प्रमाण-क्रोध में 128, मान में 32, माया में 8 और लोभ में 2 मात्र रहे। इसी प्रकार इनके स्थिति-बंध व स्थिति-सत्त्व का भी यही क्रम हो गया। यह अश्वकर्णकरण यहाँ ही समाप्त नहीं हो जाता. बल्कि आगे `अपूर्वस्पर्धक करण' तथा `कृष्टिकरण' में भी बराबर चलता रहता है। देखें [[ स्पर्धक]] तथा [[ कृष्टि ]]। (क्रमशः)</p> | ||
<p>नोट - ऊपर | <p>नोट - ऊपर जो गणनाओं का निर्देश किया है उन्हें सहनानी समजना।</p> | ||
<p> क्षपणासार 487-489 भावार्थ/क्रमशः | <p> क्षपणासार 487-489 भावार्थ/क्रमशः अश्वकर्णकरण का कुल काल अंतर्मूहूर्त प्रमाण है। इस काल में हजारों अनुभाग कांडक और हजारों स्थितिकांडक घात होते हैं। जिससे कि अनुभाग में अनंतगुणी हीन शक्ति युक्त अपूर्व स्पर्धकों की रचना हो जाती है। उसके अंत समय तक स्थिति घटकर संज्वलन की तो 8 वर्ष मात्र और शेष घातियों कर्मों की संख्यात् वर्ष प्रमाण रह जाती है। अघातिया कर्मों की स्थिति असंख्यात वर्ष मात्र रहती है। (क्रमशः)</p> | ||
<p> क्षपणासार 510 भावार्थ। (क्रमशः) अश्वकर्ण | <p> क्षपणासार 510 भावार्थ। (क्रमशः) अश्वकर्ण काल में क्षपक पूर्व व अपूर्व स्पर्धकों का यथायोग्य वेदन भी करता है, अर्थात् उन नवीन रचे गये स्पर्धकों का उदय भी उसी कालमें प्राप्त होता रहता है।</p> | ||
Revision as of 09:13, 6 September 2022
क्षपणासार /भाषा 462 चारित्र मोह की क्षपणा विधि में, संज्वलन चतुष्क का अनुभाग, प्रथम कांडक का धात भए पीछे, क्रोध से लोभ पर्यंत क्रम से उसी प्रकार घटता ही है, जिस प्रकार कि घोड़े का कान मध्य प्रदेशतै आदि प्रदेश पर्यंत घटता हो है। इसलिए क्षपक की इस स्थिति को अश्वकर्ण कहते हैं। ऐसी स्थिति में लाने की जो विधि विशेष उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसी का अपर नाम अपर्वतनोद्वर्तन व आंदोलनकरण भी है।
( धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/364/6)
2. अश्वकर्णकरण विधान
क्षपणासार 463-465। भावार्थ संज्वलन चतुष्क का अनुभाग बंध व सत्त्व क्रम, प्रथम कांडक का घात होने से पहले निम्न प्रकार था-मान का स्तोक (511), क्रोध का विशेष अधिक (515), माया का विशेष अधिक (518) लोभ का विशेष अधिक (521)। यहाँ तक जो कांडक घात होता था उसमें ग्रहण किये गये स्पर्धकों का भी यही क्रम रहता था, परंतु अब इस क्रम में परिवर्तन हो जाता है। प्रथम समय के अनुभाग कांड का क्रम इस प्रकार हो गया - क्रोध के स्पर्धक स्तोक (387); मान के विशेष अधिक (480); माया के विशेष अधिक (510); लोभ के विशेष अधिक (519)। इस प्रकार कांडक का घात भए पीछे शेष स्पर्धकों का प्रमाण-क्रोध में 128, मान में 32, माया में 8 और लोभ में 2 मात्र रहे। इसी प्रकार इनके स्थिति-बंध व स्थिति-सत्त्व का भी यही क्रम हो गया। यह अश्वकर्णकरण यहाँ ही समाप्त नहीं हो जाता. बल्कि आगे `अपूर्वस्पर्धक करण' तथा `कृष्टिकरण' में भी बराबर चलता रहता है। देखें स्पर्धक तथा कृष्टि । (क्रमशः)
नोट - ऊपर जो गणनाओं का निर्देश किया है उन्हें सहनानी समजना।
क्षपणासार 487-489 भावार्थ/क्रमशः अश्वकर्णकरण का कुल काल अंतर्मूहूर्त प्रमाण है। इस काल में हजारों अनुभाग कांडक और हजारों स्थितिकांडक घात होते हैं। जिससे कि अनुभाग में अनंतगुणी हीन शक्ति युक्त अपूर्व स्पर्धकों की रचना हो जाती है। उसके अंत समय तक स्थिति घटकर संज्वलन की तो 8 वर्ष मात्र और शेष घातियों कर्मों की संख्यात् वर्ष प्रमाण रह जाती है। अघातिया कर्मों की स्थिति असंख्यात वर्ष मात्र रहती है। (क्रमशः)
क्षपणासार 510 भावार्थ। (क्रमशः) अश्वकर्ण काल में क्षपक पूर्व व अपूर्व स्पर्धकों का यथायोग्य वेदन भी करता है, अर्थात् उन नवीन रचे गये स्पर्धकों का उदय भी उसी कालमें प्राप्त होता रहता है।