जैन: Difference between revisions
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<p>(नि.सा./ता.वृ./१३९)<span class="SanskritText"> सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैना:, परमार्थतो गणधरदेवादय: इत्यर्थ:।</span> =<span class="HindiText">सकल जिन ऐसे भगवान् तीर्थाधिनाथ के चरणकमल की सेवा करने वाले वे जैन हैं। परमार्थ से गणधरदेवादि ऐसा उसका अर्थ है।</span><br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./२०६ <span class="SanskritText">जिनस्य संबन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् ।</span>=<span class="HindiText">जिन भगवान् से सम्बन्धित अथवा जिन भगवान् के द्वारा कथित (जो लिंग, वह) जैन हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> एकान्तवादी जैन वास्तव में जैन नहीं</strong> </span><br /> | |||
स.सा./आ./३२१ <span class="SanskritText">ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु: सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा को कर्ता ही देखते या मानते हैं वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते, क्योंकि लौकिक जनों के मत में, परमात्मा विष्णु, नर नारकादि कार्य करता है और उनके (श्रमणों के) मत में अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार (दोनों में) अपसिद्धान्त की समानता है।</span><br /> | |||
स.सा./आ./३३२-३४४ <span class="SanskritText">यत एवं समस्तमपि कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, तत: सर्व एव जीवा: नित्यमेवैकान्तेनाकर्तार एवेति निश्चिनुम:। ...एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमवबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयन्ति। तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्ते: ‘जीव: कर्त्तेति’ श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार स्वतन्त्रतया सब कुछ कर्म ही कर्ता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिए हम यह निश्चय करते हैं कि सभी जीव सदा एकान्त से अकर्ता ही हैं। इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को, अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं। उनकी एकान्त प्रकृति कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीवकर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है, उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।</span></li> | |||
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(नि.सा./ता.वृ./१३९) सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैना:, परमार्थतो गणधरदेवादय: इत्यर्थ:। =सकल जिन ऐसे भगवान् तीर्थाधिनाथ के चरणकमल की सेवा करने वाले वे जैन हैं। परमार्थ से गणधरदेवादि ऐसा उसका अर्थ है।
प्र.सा./ता.वृ./२०६ जिनस्य संबन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् ।=जिन भगवान् से सम्बन्धित अथवा जिन भगवान् के द्वारा कथित (जो लिंग, वह) जैन हैं।
- एकान्तवादी जैन वास्तव में जैन नहीं
स.सा./आ./३२१ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु: सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् ।=जो आत्मा को कर्ता ही देखते या मानते हैं वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते, क्योंकि लौकिक जनों के मत में, परमात्मा विष्णु, नर नारकादि कार्य करता है और उनके (श्रमणों के) मत में अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार (दोनों में) अपसिद्धान्त की समानता है।
स.सा./आ./३३२-३४४ यत एवं समस्तमपि कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, तत: सर्व एव जीवा: नित्यमेवैकान्तेनाकर्तार एवेति निश्चिनुम:। ...एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमवबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयन्ति। तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्ते: ‘जीव: कर्त्तेति’ श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।=इस प्रकार स्वतन्त्रतया सब कुछ कर्म ही कर्ता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिए हम यह निश्चय करते हैं कि सभी जीव सदा एकान्त से अकर्ता ही हैं। इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को, अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं। उनकी एकान्त प्रकृति कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीवकर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है, उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।