शक्तितस्तप: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> देखें [[ तप#6.1 | तप - 6.1 ]]। </span> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> शक्तितस्तप भावना का लक्षण</strong></span><br> <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/12 </span><span class="SanskritText">अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायक्लेशस्तप:। </span>=<span class="HindiText">शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है। (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/77-221 </span>) (<span class="GRef"> चारित्रसार/54/3 </span>) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/7/529/30 </span><span class="SanskritText"> शरीरमिदं दु:खकारणमनित्यमशुचि, नास्य यथेष्टभोगविधिना परिपोषो युक्त:, अशुच्यपीदं गुणरत्नसंचयोपकारीति विचिंत्य विनिवृत्तविषयसुखाभिष्वंगस्य स्वकार्यं प्रत्येतद्भृतकमिव नियुंजानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधि कायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। </span>=<span class="HindiText">अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना तप है। यह शरीर दु:ख का कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगो पर इसकी तृप्ति नहीं होती। यह अशुचि होकर भी शीलव्रत आदि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है यह विचारकर विषय विरक्त हो आत्म कार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अत: मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना यथाशक्ति तप भावना है। </span></li><br> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> एक शक्तितस्तप में ही 15 भावनाओं का समावेश</strong></span><br><span class="GRef"> धवला 8/3,41/86/11 </span><span class="PrakritText">जहाथामतवे सयलसेसतित्थयरकारणाण संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघबलस्स धीरस्स णाणदंसणकलिदस्स होदि। ण च तत्थ दंसणविसुज्झदादीणमभावो, तहा तवंतस्स अण्णहाणुववत्तीदो।’’</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–शक्तितस्तप में शेष भावनाएँ कैसे संभव हैं ? <br> | |||
<strong>उत्तर</strong>–यथाशक्ति तप में तीर्थंकर नामकर्म के बंध के सभी शेष कारण संभव हैं, क्योंकि, यथाथाम तप ज्ञान, दर्शन से युक्त सामान्य बलवान और धीर व्यक्ति के होता है, और इसलिए उसमें दर्शनविशुद्धतादिकों का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर यथाथाम तप बन नहीं सकता। </span></li><span class="HindiText"> देखें [[ तप#6.1 | तप - 6.1 ]]। </span><br> | |||
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Revision as of 22:42, 28 November 2022
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/12 अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायक्लेशस्तप:। =शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है। ( भावपाहुड़ टीका/77-221 ) ( चारित्रसार/54/3 )
राजवार्तिक/6/24/7/529/30 शरीरमिदं दु:खकारणमनित्यमशुचि, नास्य यथेष्टभोगविधिना परिपोषो युक्त:, अशुच्यपीदं गुणरत्नसंचयोपकारीति विचिंत्य विनिवृत्तविषयसुखाभिष्वंगस्य स्वकार्यं प्रत्येतद्भृतकमिव नियुंजानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधि कायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। =अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना तप है। यह शरीर दु:ख का कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगो पर इसकी तृप्ति नहीं होती। यह अशुचि होकर भी शीलव्रत आदि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है यह विचारकर विषय विरक्त हो आत्म कार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अत: मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना यथाशक्ति तप भावना है।
धवला 8/3,41/86/11 जहाथामतवे सयलसेसतित्थयरकारणाण संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघबलस्स धीरस्स णाणदंसणकलिदस्स होदि। ण च तत्थ दंसणविसुज्झदादीणमभावो, तहा तवंतस्स अण्णहाणुववत्तीदो।’’ =प्रश्न–शक्तितस्तप में शेष भावनाएँ कैसे संभव हैं ?
उत्तर–यथाशक्ति तप में तीर्थंकर नामकर्म के बंध के सभी शेष कारण संभव हैं, क्योंकि, यथाथाम तप ज्ञान, दर्शन से युक्त सामान्य बलवान और धीर व्यक्ति के होता है, और इसलिए उसमें दर्शनविशुद्धतादिकों का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर यथाथाम तप बन नहीं सकता।
देखें तप - 6.1 ।
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पुराणकोष से
तीर्थंकर-प्रकृतिबंध की सोलहकारण भावनाओं में एक भावना । यथाशक्ति मोक्षमार्ग के अनुरूप तप करना शक्तितस्तप कहलाता है । हरिवंशपुराण 34.138