केवलज्ञान की सिद्धि में हेतु: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> सर्वज्ञत्व का अभाव कहने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> सर्वज्ञत्व का अभाव कहने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है</strong></span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span> | <strong><span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मूल/8/15-16</strong><span class="SanskritText"> सर्वात्मज्ञानविज्ञेयतत्त्वं विवेचनम् । नो चेद्भवेत्कथं तस्य सर्वज्ञाभाववित्स्वयम् ।15। तज्ज्ञेयज्ञानवैकल्याद् यदि बुध्येत न स्वयम् ।...। नर: शरीरी वक्ता वासकलज्ञं जगद्विदन् । सर्वज्ञ: स्यात्ततो नास्ति सर्वज्ञाभावसाधनम् ।16।</span>=<span class="HindiText">सब जीवों के ज्ञान तथा उनके द्वारा ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्वों को प्रत्यक्ष से जानने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है? यदि वह स्वयं यह नहीं जानता कि सब जीव सर्वज्ञ के ज्ञान से रहित हैं तो वह स्वयं कैसे सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञाता हो सकता है? शायद कहा जाये कि सब आत्माओं की असर्वज्ञता प्रत्यक्ष से नहीं जानते किंतु अनुमान से जानते हैं अत: उक्त दोष नहीं आता। तो पुरुष विशेष की भी वक्तृत्व आदि सामान्य हेतु से असर्वज्ञत्व का साधन करने में भी उक्त कथन समान है क्योंकि सर्वज्ञता और वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है सर्वज्ञ वक्ता हो सकता है।</span><br /> | ||
<strong>न्याय | <strong>न्याय विनिश्चय/वृ./3/19/286</strong> पर उद्धृत (मीमांसा श्लोक चोदना/134-135)<span class="SanskritGatha"> ‘‘सर्वत्रोऽयमिति ह्येवं तत्कालेऽपि बुभुत्सुभि:। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ।134। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव। य एव स्यादसर्वज्ञ: स सर्वज्ञं न बुध्यते।135।’’</span>=<span class="HindiText">उस काल में भी जो जिज्ञासु सर्वज्ञ के ज्ञान और उसके द्वारा जाने गये पदार्थों के ज्ञान से रहित हैं वे ‘यह सर्वज्ञ है’ ऐसा कैसे जान सकते हैं। और ऐसा मानने पर आपको बहुत से सर्वज्ञ मानने होंगे क्योंकि जो भी असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को नहीं जान सकता।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/50/211/5 </span></strong><span class="SanskritText"> नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे:। खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर—किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धे:, सर्वदेशे काले वा। यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव। अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तर्हि भवानेव सर्वज्ञ:। अथ न ज्ञातं तर्हि निषेध: कथं क्रियते।1।...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टांतवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यंताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टांतदूषणं गतम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? <strong>उत्तर—</strong>सर्वज्ञ की प्राप्ति इस देश व काल में नहीं है वा सब देशों व सब कालों में नहीं है ? यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालों में नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत् व तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतु की सिद्धि में जो आपने गधे के सींग का दृष्टांत कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधे को सींग न हों परंतु बैल आदिक तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदि में अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टांत भी दूषित है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/65/11 </span>)<br /> | <strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/50/211/5 </span></strong><span class="SanskritText"> नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे:। खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर—किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धे:, सर्वदेशे काले वा। यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव। अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तर्हि भवानेव सर्वज्ञ:। अथ न ज्ञातं तर्हि निषेध: कथं क्रियते।1।...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टांतवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यंताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टांतदूषणं गतम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? <strong>उत्तर—</strong>सर्वज्ञ की प्राप्ति इस देश व काल में नहीं है वा सब देशों व सब कालों में नहीं है ? यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालों में नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत् व तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतु की सिद्धि में जो आपने गधे के सींग का दृष्टांत कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधे को सींग न हों परंतु बैल आदिक तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदि में अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टांत भी दूषित है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/65/11 </span>)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> बाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> बाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span> | <span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मूल/8/6-7/537-538 <span class="SanskritText">‘‘प्रामाण्यमक्षबुद्धेश्चेद्यथाऽबाधाविनिश्चयात् । निर्णीतासंभवद्वाध: सर्वज्ञो नेति साहसम् ।6। सर्वज्ञेऽस्तीति विज्ञानं प्रमाणं स्वत एव तत् । दोषवत्कारणाभावाद् बाधकासंभवादपि।7।’’ </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार बाधकाभाव के विनिश्चय से चक्षु आदि से जन्य ज्ञान को प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधा से असंभव का निर्माण होने से सर्वज्ञ के अस्तित्व को नहीं मानना यह अति साहस है।6। ‘सर्वज्ञ है’ इस प्रकार के प्रवचन से होने वाला ज्ञान स्वत: ही प्रमाण है क्योंकि उस ज्ञान का कारण सदोष नहीं है। शायद कहा जाये कि ‘सर्वज्ञ है’ यह ज्ञान बाध्यमान है किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसका कोई बाधक भी नहीं है। (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/50/213/7 </span>) (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/66 </span>.13)।</span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/ </span> | <strong><span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/ </span>मूल/96-110</strong> <span class="SanskritGatha">सुनिश्चितान्वयाद्धेतो: प्रसिद्धव्यतिरेकत:। ज्ञाताऽर्हन् विश्वतत्त्वानामेवं सिद्ध्येदबाधित:।96।...एवं सिद्ध: सुनिर्णीतासंभवद्बाधकत्वत:। सुखवद्विश्वतत्त्वज्ञ: सोऽर्हन्नेव भवानिह।101।</span>=<span class="HindiText">प्रमेयपना हेतु का अन्वय अच्छी तरह सिद्ध है और उसका व्यतिरेक भी प्रसिद्ध है, अत: उससे अर्हंत निर्बाधरूप से समस्त पदार्थों का ज्ञाता सिद्ध होता है।16। (1)—त्रिकाल त्रिलोक को न जानने के कारण इंद्रिय प्रत्यक्ष बाधक नहीं है।97। (2)—केवल सत्ता को विषय करने के कारण अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम भी बाधक नहीं है।98। (3)—अनैकांतिक होने के कारण पुरुषत्व व वक्तृत्व हेतु (अनुमान) बाधक नहीं है−(देखें [[ केवलज्ञान#5 | केवलज्ञान - 5]])।99−100।;4)—सर्व मनुष्यों में समानता का अभाव होने से उपमान भी बाधक नहीं है।101।; (5)—अन्यथानुपपत्ति से शून्य होने से अर्थापत्ति बाधक नहीं है।102।; (6)—अपौरुषेय आगम केवल यज्ञादि के विषय में प्रमाण है, सर्वज्ञकृत आगम बाधक हो नहीं सकता और सर्वज्ञकृत आगम स्वत: साधक है।103-104।; (7)—सर्वज्ञत्व के अनुभव व स्मरण विहीन होने के कारण अभाव प्रमाण भी बाधक नहीं है अथवा असर्वज्ञत्व की सिद्धि के अभाव में सर्वज्ञत्व का अभाव कहना भी असिद्ध है।105−108। इस प्रकार बाधक प्रमाणों का अभाव अच्छी तरह निश्चित होने से सुख की तरह विश्वतत्त्वों का ज्ञाता—सर्वज्ञ सिद्ध होता है।109।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> अतिशय पूज्य होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> अतिशय पूज्य होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> केवलज्ञान का अंश सर्व प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान सिद्ध है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> केवलज्ञान का अंश सर्व प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान सिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1/31/44 </span><span class="PrakritText">ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणंसस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो। ण च अवयवे पच्चक्खे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्तं; चक्खिंदियविसयीकयअवयवत्थंभस्स वि परोक्खप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप (मति आदि) ज्ञान की निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है। अवयव के प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परंतु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1/31/44 </span><span class="PrakritText">ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणंसस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो। ण च अवयवे पच्चक्खे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्तं; चक्खिंदियविसयीकयअवयवत्थंभस्स वि परोक्खप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप (मति आदि) ज्ञान की निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है। अवयव के प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परंतु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षु इंद्रिय के द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तंभ को भी परोक्षता का प्रसंग प्राप्त होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/237/6 </span><span class="SanskritText">तत्सिद्धिस्तु ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रांतम् तारतम्यत्वात् आकाशे परिणामतारतम्यवत् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान की हानि और वृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्ट रूप में पायी जाती है, हानि, वृद्धि होने से। जैसे आकाश में परिणाम की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञ में पायी जाती है।<br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/17/237/6 </span><span class="SanskritText">तत्सिद्धिस्तु ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रांतम् तारतम्यत्वात् आकाशे परिणामतारतम्यवत् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान की हानि और वृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्ट रूप में पायी जाती है, हानि, वृद्धि होने से। जैसे आकाश में परिणाम की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञ में पायी जाती है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8">सूक्ष्मादि पदार्थों के प्रमेय होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8">सूक्ष्मादि पदार्थों के प्रमेय होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आप्तमीमांसा/5 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ।5।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक, अंतरित अर्थात् कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात् क्षेत्रकरि दूर मेरु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय है सो ही किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञ का भले प्रकार निश्चय होता है। (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span> | <span class="GRef"> आप्तमीमांसा/5 </span><span class="SanskritText">सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ।5।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक, अंतरित अर्थात् कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात् क्षेत्रकरि दूर मेरु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय है सो ही किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञ का भले प्रकार निश्चय होता है। (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>मूल/3/29/298) (<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मूल/8/31/573) (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>वृ./3/20/288 में उद्धृत) (<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/ </span>मूल/88-91) (काव्य मीमांसा 5) (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/50/213/10 </span>) (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/66/14 </span>) (स्याद्वादमंजरी/17/237/7) (<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/21-23/41-44 </span>)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9">प्रतिबंधक कर्मों का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9">प्रतिबंधक कर्मों का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मू./8-9<span class="SanskritGatha"> ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत् । वैषद्य क्वचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् ।8। माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्तिरतिशयवती। आत्यंतिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मन:।9।</span>=<span class="HindiText">जैसे परिमाण अतिशययुक्त होने से आकाश में पूर्णरूप से पाया जाता है, वैसे ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होने से किसी पुरुष विशेष में विभु-समस्त ज्ञेयों का जानने वाला होता है। और जैसे अंधकार हटने पर चक्षु स्पष्ट रूप से जानता है, वैसे ही दोष और मल की हानि होने से वह ज्ञान स्पष्ट होता है। शायद कहा जाये कि दोष और मल को आत्यंतिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे माणिक्य आदि से अतिशयवाली मल की व्यावृत्ति भी आत्यंतिकी होती है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आत्मा से भी मल के प्रतिपक्षी ज्ञानादि का प्रकर्ष होने पर मल का अत्यंताभाव हो जाता है।7-8। (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span> | <span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>मू./8-9<span class="SanskritGatha"> ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत् । वैषद्य क्वचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् ।8। माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्तिरतिशयवती। आत्यंतिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मन:।9।</span>=<span class="HindiText">जैसे परिमाण अतिशययुक्त होने से आकाश में पूर्णरूप से पाया जाता है, वैसे ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होने से किसी पुरुष विशेष में विभु-समस्त ज्ञेयों का जानने वाला होता है। और जैसे अंधकार हटने पर चक्षु स्पष्ट रूप से जानता है, वैसे ही दोष और मल की हानि होने से वह ज्ञान स्पष्ट होता है। शायद कहा जाये कि दोष और मल को आत्यंतिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे माणिक्य आदि से अतिशयवाली मल की व्यावृत्ति भी आत्यंतिकी होती है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आत्मा से भी मल के प्रतिपक्षी ज्ञानादि का प्रकर्ष होने पर मल का अत्यंताभाव हो जाता है।7-8। (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>मूल/3/21-25/291295), (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,44/26/ </span>तथा टीका पृष्ठ114-118), (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/37 </span>−46/13 तथा टीका पृष्ठ 56−64), (राग/5−रागादि दोषों का अभाव असंभव नहीं है), (मोक्ष/6−अकृत्रिम भी कर्ममल का नाश संभव है); (<span class="GRef"> न्यायदीपिका/2/24 </span>−28/44−50), (न्याय बिंदु चौखंबा सीरीज/श्लोक 361−362)<br /> | ||
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Revision as of 18:24, 12 October 2022
- केवलज्ञान की सिद्धि में हेतु
- यदि सर्व को नहीं जानता तो एक को भी नहीं जान सकता
प्रवचनसार/48-49 जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे। णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा।48। दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि।49।=जो एक ही साथ त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थों को नहीं जानता, उसे पर्याय सहित एक (आत्म–टीका) द्रव्य भी जानना शक्य नहीं।48। यदि अनंत पर्याय वाले एक द्रव्य को तथा अनंत द्रव्य समूह को एक ही साथ नहीं जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा?।49। (यो.सा./अ./1/29-30)
नियमसार/168 पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स/168/=विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार से नहीं देखता उसे परोक्ष दर्शन है।
सर्वार्थसिद्धि/1/12/104/8 यदि प्रत्यर्थवशवर्ति सर्वज्ञत्वमस्य नास्ति योगिन: ज्ञेयस्यानंत्यात् ।=यदि प्रत्येक पदार्थ को (एक एक करके) क्रम से जानता है तो उस योगी के सर्वज्ञता का अभाव होता है क्योंकि ज्ञेय अनंत हैं।
स्याद्वादमंजरी/1/5/21 में उद्धृत—जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। (आचारांग सूत्र/1/3/4/सूत्र 122)। तथा एको भाव: सर्वथा येन दृष्ट: सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टा:। सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टा एको भाव: सर्वथा तेन दृष्ट:।=जो एक को जानता है वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है वह एक को जानता है। तथा—जिसने एक पदार्थ को सब प्रकार से देखा है उसने सब पदार्थों को सब प्रकार से देखा है। तथा जिसने सब पदार्थों को सब प्रकार से जान लिया है, उसने एक पदार्थ को सब प्रकार से जान लिया है।
श्लोकवार्तिक/2/1/5/14/192/17 यथा वस्तुस्वभावं प्रत्ययोत्पत्तौ कस्यचिदनाद्यनंतवस्तुप्रत्ययप्रसंगात् ...। जैसी वस्तु होगी वैसा ही हूबहू ज्ञान उत्पन्न होवे तब तो चाहे जिस किसी को अनादि अनंत वस्तु के ज्ञान होने का प्रसंग होगा (क्योंकि अनादि अनंत पर्यायों से समवेत ही संपूर्ण वस्तु है)।
ज्ञानार्णव/34/13 में उद्धृत—एको भाव: सर्वभावस्वभाव:, सर्वे भावा एकभावस्वभावा:। एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।=एक भाव सर्वभावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भाव के स्वभाव स्वरूप है; इस कारण जिसने तत्त्व से एक भाव को जाना उसने समस्त भावों को यथार्थतया जाना।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/168/ क 284 यो नैव पश्यति जगत्त्रयभेकदैव, कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं, सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मन: स्यात् ।=सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही काल में तीन जगत् को तथा तीन काल को नहीं देखता, उसे सदा (कदापि) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ात्मा को सर्वज्ञता किस प्रकार होगी।
- यदि त्रिकाल को न जाने तो इसकी दिव्यता ही क्या
प्रवचनसार/39 जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलहयं च णाणस्स। ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति।=यदि अनुत्पन्न पर्याय व नष्ट पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ?
- अपरिमित विषय ही तो इसका माहात्म्य है
सर्वार्थसिद्धि/1/29/135/11 अपरिमितमाहात्म्यं हि तदिति ज्ञापनार्थं ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ इत्युच्यते=केवलज्ञान का माहात्म्य अपरिमित है, इसी बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में ‘सर्वद्रव्यपर्यायेषु’ पद कहा है। ( राजवार्तिक/1/29/9/90/6 )
- सर्वज्ञत्व का अभाव कहने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/8/15-16 सर्वात्मज्ञानविज्ञेयतत्त्वं विवेचनम् । नो चेद्भवेत्कथं तस्य सर्वज्ञाभाववित्स्वयम् ।15। तज्ज्ञेयज्ञानवैकल्याद् यदि बुध्येत न स्वयम् ।...। नर: शरीरी वक्ता वासकलज्ञं जगद्विदन् । सर्वज्ञ: स्यात्ततो नास्ति सर्वज्ञाभावसाधनम् ।16।=सब जीवों के ज्ञान तथा उनके द्वारा ज्ञेय और अज्ञेय तत्त्वों को प्रत्यक्ष से जानने वाला क्या स्वयं सर्वज्ञ नहीं है? यदि वह स्वयं यह नहीं जानता कि सब जीव सर्वज्ञ के ज्ञान से रहित हैं तो वह स्वयं कैसे सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञाता हो सकता है? शायद कहा जाये कि सब आत्माओं की असर्वज्ञता प्रत्यक्ष से नहीं जानते किंतु अनुमान से जानते हैं अत: उक्त दोष नहीं आता। तो पुरुष विशेष की भी वक्तृत्व आदि सामान्य हेतु से असर्वज्ञत्व का साधन करने में भी उक्त कथन समान है क्योंकि सर्वज्ञता और वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है सर्वज्ञ वक्ता हो सकता है।
न्याय विनिश्चय/वृ./3/19/286 पर उद्धृत (मीमांसा श्लोक चोदना/134-135) ‘‘सर्वत्रोऽयमिति ह्येवं तत्कालेऽपि बुभुत्सुभि:। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ।134। कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्वहवस्तव। य एव स्यादसर्वज्ञ: स सर्वज्ञं न बुध्यते।135।’’=उस काल में भी जो जिज्ञासु सर्वज्ञ के ज्ञान और उसके द्वारा जाने गये पदार्थों के ज्ञान से रहित हैं वे ‘यह सर्वज्ञ है’ ऐसा कैसे जान सकते हैं। और ऐसा मानने पर आपको बहुत से सर्वज्ञ मानने होंगे क्योंकि जो भी असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को नहीं जान सकता।
द्रव्यसंग्रह टीका/50/211/5 नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धे:। खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तर—किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धे:, सर्वदेशे काले वा। यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव। अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञात भवता। ज्ञातं चेत्तर्हि भवानेव सर्वज्ञ:। अथ न ज्ञातं तर्हि निषेध: कथं क्रियते।1।...यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टांतवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यंताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टांतदूषणं गतम् ।=प्रश्न—सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? उत्तर—सर्वज्ञ की प्राप्ति इस देश व काल में नहीं है वा सब देशों व सब कालों में नहीं है ? यदि कहो कि इस देश व इस काल में नहीं तब तो हमें भी सम्मत है ही। और यदि कहो कि सब देशों व सब कालों में नहीं है, तब हम पूछते हैं कि यह तुमने कैसे जाना कि तीनों जगत् व तीनों कालों में सर्वज्ञ नहीं हैं। यदि कहो कि हमने जान लिया तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके और यदि कहो कि हम नहीं जानते तो उसका निषेध कैसे कर सकते हो। (इस प्रकार तो हेतु दूषित कर दिया गया) अब अपने हेतु की सिद्धि में जो आपने गधे के सींग का दृष्टांत कहा है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि भले ही गधे को सींग न हों परंतु बैल आदिक तो हैं ही। इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञ का किसी नियत देश तथा काल आदि में अभाव हो पर उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। इस प्रकार दृष्टांत भी दूषित है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/65/11 )
- बाधक प्रमाण का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/8/6-7/537-538 ‘‘प्रामाण्यमक्षबुद्धेश्चेद्यथाऽबाधाविनिश्चयात् । निर्णीतासंभवद्वाध: सर्वज्ञो नेति साहसम् ।6। सर्वज्ञेऽस्तीति विज्ञानं प्रमाणं स्वत एव तत् । दोषवत्कारणाभावाद् बाधकासंभवादपि।7।’’ =जिस प्रकार बाधकाभाव के विनिश्चय से चक्षु आदि से जन्य ज्ञान को प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधा से असंभव का निर्माण होने से सर्वज्ञ के अस्तित्व को नहीं मानना यह अति साहस है।6। ‘सर्वज्ञ है’ इस प्रकार के प्रवचन से होने वाला ज्ञान स्वत: ही प्रमाण है क्योंकि उस ज्ञान का कारण सदोष नहीं है। शायद कहा जाये कि ‘सर्वज्ञ है’ यह ज्ञान बाध्यमान है किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसका कोई बाधक भी नहीं है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/50/213/7 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/66 .13)।
आप्तपरीक्षा/ मूल/96-110 सुनिश्चितान्वयाद्धेतो: प्रसिद्धव्यतिरेकत:। ज्ञाताऽर्हन् विश्वतत्त्वानामेवं सिद्ध्येदबाधित:।96।...एवं सिद्ध: सुनिर्णीतासंभवद्बाधकत्वत:। सुखवद्विश्वतत्त्वज्ञ: सोऽर्हन्नेव भवानिह।101।=प्रमेयपना हेतु का अन्वय अच्छी तरह सिद्ध है और उसका व्यतिरेक भी प्रसिद्ध है, अत: उससे अर्हंत निर्बाधरूप से समस्त पदार्थों का ज्ञाता सिद्ध होता है।16। (1)—त्रिकाल त्रिलोक को न जानने के कारण इंद्रिय प्रत्यक्ष बाधक नहीं है।97। (2)—केवल सत्ता को विषय करने के कारण अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम भी बाधक नहीं है।98। (3)—अनैकांतिक होने के कारण पुरुषत्व व वक्तृत्व हेतु (अनुमान) बाधक नहीं है−(देखें केवलज्ञान - 5)।99−100।;4)—सर्व मनुष्यों में समानता का अभाव होने से उपमान भी बाधक नहीं है।101।; (5)—अन्यथानुपपत्ति से शून्य होने से अर्थापत्ति बाधक नहीं है।102।; (6)—अपौरुषेय आगम केवल यज्ञादि के विषय में प्रमाण है, सर्वज्ञकृत आगम बाधक हो नहीं सकता और सर्वज्ञकृत आगम स्वत: साधक है।103-104।; (7)—सर्वज्ञत्व के अनुभव व स्मरण विहीन होने के कारण अभाव प्रमाण भी बाधक नहीं है अथवा असर्वज्ञत्व की सिद्धि के अभाव में सर्वज्ञत्व का अभाव कहना भी असिद्ध है।105−108। इस प्रकार बाधक प्रमाणों का अभाव अच्छी तरह निश्चित होने से सुख की तरह विश्वतत्त्वों का ज्ञाता—सर्वज्ञ सिद्ध होता है।109।
- अतिशय पूज्य होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
धवला 9/4,1,44/113/7 कधं सव्वणहू वड्ठमाणभयवंतो ?...णवकेवललद्धीओ...षेच्छंतएण सोहम्मिदेण तस्स कयपूजण्णहाणुववत्तीदो। ण च विज्जावाइपूजाए वियहिचारो...साहम्माभावादो...वइधम्मियादो वा।=प्रश्न—भगवान् वर्द्धमान सर्वज्ञ थे यह कैसे सिद्ध होता है? उत्तर—भगवान् में स्थित नवकेवल लब्धि को देखने वाले सौधर्मेंद्र द्वारा की गयी उनकी पूजा क्योंकि सर्वज्ञता के बिना बन नहीं सकती। यह हेतु विद्यावादियों की पूजा से व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि व्यंतरों द्वारा की गयी और देवेंद्रों द्वारा की गयी पूजा में समानता नहीं है।
- केवलज्ञान का अंश सर्व प्रत्यक्ष होने से केवलज्ञान सिद्ध है
कषायपाहुड़ 1/1/31/44 ण च केवलणाणमसिद्धं; केवलणाणंसस्स ससंवेयणपच्चक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो। ण च अवयवे पच्चक्खे संते अवयवी परोक्खो त्ति जुत्तं; चक्खिंदियविसयीकयअवयवत्थंभस्स वि परोक्खप्पसंगादो।=यदि कहा जाय कि केवलज्ञान असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप (मति आदि) ज्ञान की निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है। अवयव के प्रत्यक्ष हो जाने पर सहवर्ती अन्य अवयव भले परोक्ष रहें, परंतु अवयवी परोक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षु इंद्रिय के द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तंभ को भी परोक्षता का प्रसंग प्राप्त होता है।
स्याद्वादमंजरी/17/237/6 तत्सिद्धिस्तु ज्ञानतारतम्यं क्वचिद् विश्रांतम् तारतम्यत्वात् आकाशे परिणामतारतम्यवत् ।=ज्ञान की हानि और वृद्धि किसी जीव में सर्वोत्कृष्ट रूप में पायी जाती है, हानि, वृद्धि होने से। जैसे आकाश में परिणाम की सर्वोत्कृष्टता पायी जाती है वैसे ही ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता सर्वज्ञ में पायी जाती है।
- सूक्ष्मादि पदार्थों के प्रमेय होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
आप्तमीमांसा/5 सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ।5।=सूक्ष्म अर्थात् परमाणु आदिक, अंतरित अर्थात् कालकरि दूर राम रावणादि और दूरस्थ अर्थात् क्षेत्रकरि दूर मेरु आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि ये अनुमेय हैं। जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान के विषय है सो ही किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं। ऐसे सर्वज्ञ का भले प्रकार निश्चय होता है। ( न्यायविनिश्चय/ मूल/3/29/298) ( सिद्धि विनिश्चय/ मूल/8/31/573) ( न्यायविनिश्चय/ वृ./3/20/288 में उद्धृत) ( आप्तपरीक्षा/ मूल/88-91) (काव्य मीमांसा 5) ( द्रव्यसंग्रह टीका/50/213/10 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/66/14 ) (स्याद्वादमंजरी/17/237/7) ( न्यायदीपिका/2/21-23/41-44 )
- प्रतिबंधक कर्मों का अभाव होने से सर्वज्ञत्व सिद्ध है
सिद्धि विनिश्चय/ मू./8-9 ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत् । वैषद्य क्वचिद्दोषमलहानेस्तिमिराक्षवत् ।8। माणिक्यादेर्मलस्यापि व्यावृत्तिरतिशयवती। आत्यंतिकी भवत्येव तथा कस्यचिदात्मन:।9।=जैसे परिमाण अतिशययुक्त होने से आकाश में पूर्णरूप से पाया जाता है, वैसे ही ज्ञान भी अतिशययुक्त होने से किसी पुरुष विशेष में विभु-समस्त ज्ञेयों का जानने वाला होता है। और जैसे अंधकार हटने पर चक्षु स्पष्ट रूप से जानता है, वैसे ही दोष और मल की हानि होने से वह ज्ञान स्पष्ट होता है। शायद कहा जाये कि दोष और मल को आत्यंतिक हानि नहीं होती तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे माणिक्य आदि से अतिशयवाली मल की व्यावृत्ति भी आत्यंतिकी होती है उसके मल सर्वथा दूर हो जाता है उसी तरह किसी आत्मा से भी मल के प्रतिपक्षी ज्ञानादि का प्रकर्ष होने पर मल का अत्यंताभाव हो जाता है।7-8। ( न्यायविनिश्चय/ मूल/3/21-25/291295), ( धवला 9/4,1,44/26/ तथा टीका पृष्ठ114-118), ( कषायपाहुड़ 1/1,1/37 −46/13 तथा टीका पृष्ठ 56−64), (राग/5−रागादि दोषों का अभाव असंभव नहीं है), (मोक्ष/6−अकृत्रिम भी कर्ममल का नाश संभव है); ( न्यायदीपिका/2/24 −28/44−50), (न्याय बिंदु चौखंबा सीरीज/श्लोक 361−362)
- यदि सर्व को नहीं जानता तो एक को भी नहीं जान सकता