उपकार: Difference between revisions
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<p class="HindiText">उपकरणाका सामान्य अर्थ निमित्त रूपसे सहायक होना है। वह दो प्रकार है-स्वोपकार व परोपकार। यद्यपि व्यवहार मार्गमें परोपकार की महत्ता है, पर अध्यात्म मार्गमें स्वोपकार ही अत्यंत इष्ट हैं, परोपकार नहीं।</p> | |||
<p>1. उपकार सामान्यका लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>1. उपकार सामान्यका लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/17/282/2</span> <p class="SanskritText">उपक्रियत इत्युपकारः। कः पुनरसौ। गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= उपकारकी व्युत्पत्ति `उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है? उत्तर-(धर्म द्रव्यका) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्यका) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है।</p> | <p class="HindiText">= उपकारकी व्युत्पत्ति `उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है? उत्तर-(धर्म द्रव्यका) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्यका) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है।</p> | ||
<p>2. स्व व पर उपकार </p> | <p class="HindiText"><b>2. स्व व पर उपकार </b></p> | ||
<p>(और भी देखें [[ आगे नं#3 | आगे नं - 3]])</p> | <p class="HindiText">(और भी देखें [[ आगे नं#3 | आगे नं - 3]])</p> | ||
< | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/38/372/13</span><p class="SanskritText"> स्वपरोपकारऽनुग्रहः।....स्वोपकारः पुण्यसंचयः परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः।</p> | ||
<p class="HindiText">= स्वयं अपना अथवा दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है। दान देनेसे जो पुण्यका संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योंकि उसका फल भोग स्वयंको प्राप्त होता है); तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि होती है, यह परका उपकार है, (क्योंकि इसका फल दूसरेको प्राप्त होता है।</p> | <p class="HindiText">= स्वयं अपना अथवा दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है। दान देनेसे जो पुण्यका संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योंकि उसका फल भोग स्वयंको प्राप्त होता है); तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि होती है, यह परका उपकार है, (क्योंकि इसका फल दूसरेको प्राप्त होता है।</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/38/1/559/15)।</p> | <p class="HindiText">(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/38/1/559/15</span>)।</p> | ||
<p>3. उपकार व कर्तृत्वमें अंतर</p> | <p class="HindiText"><b>3. उपकार व कर्तृत्वमें अंतर</b></p> | ||
< | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/17/16/462/5</span> <p class="SanskritText">स्यादेतत्-गतिस्थित्योः धर्मा-धर्मौ कर्तारौ इत्ययमर्थः प्रसक्त इतिः तन्नः किं कारणम्। उपकारवचनात्। उपकारो बलाधानम् अवलंबनमित्यनर्थांतरं। तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति। यया अंधस्येतरस्य वा स्वजङ्वाबलाद्गच्छतः यष्ट्याद्युपकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।</p> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - धर्म और अधर्म द्रव्योंको गति स्थितिका उपकारक कहनेसे उनको गति स्थिति करानेका कर्तापना प्राप्त हो जाएगा? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, `उपकार' शब्द दिया गया है। उपकार, बलाधान व अवलंबन इन शब्दोंका एक ही अर्थ होता है अतः इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्योंका गति स्थिति उत्पन्न करनेमें प्रधान कर्तापनेका निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वयं अपने जंघाबलसे चलनेवाले अंधेके लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्तिसे चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुद्गलद्रव्योंको धर्म और अधर्म उपकारक हैं प्रेरक नहीं।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - धर्म और अधर्म द्रव्योंको गति स्थितिका उपकारक कहनेसे उनको गति स्थिति करानेका कर्तापना प्राप्त हो जाएगा? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, `उपकार' शब्द दिया गया है। उपकार, बलाधान व अवलंबन इन शब्दोंका एक ही अर्थ होता है अतः इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्योंका गति स्थिति उत्पन्न करनेमें प्रधान कर्तापनेका निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वयं अपने जंघाबलसे चलनेवाले अंधेके लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्तिसे चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुद्गलद्रव्योंको धर्म और अधर्म उपकारक हैं प्रेरक नहीं।</p> | ||
<p>4. उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं</p> | <p class="HindiText"><b>4. उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं</b></p> | ||
< | <span class="GRef">कुरल काव्य परिच्छेद 22/1</span> <p class="SanskritText">नोपकारपराः संतः प्रतिदानजिघृक्षया। समृद्धः किमसौ लोको मेघाय प्रतियच्छति ।1।</p> | ||
<p class="HindiText">= महापुरुष जो उपकार करते हैं, उसका बदला नहीं चाहते। भला संसार जल-बरसानेवाले बादलोंका बदला किस प्रकार चुका सकता है।</p> | <p class="HindiText">= महापुरुष जो उपकार करते हैं, उसका बदला नहीं चाहते। भला संसार जल-बरसानेवाले बादलोंका बदला किस प्रकार चुका सकता है।</p> | ||
<p>5. शरीरका उपकार अपना अपकार है और इसका अपकार अपना उपकार है।</ | <p class="HindiText"><b>5. शरीरका उपकार अपना अपकार है और इसका अपकार अपना उपकार है।</b></p> | ||
<p | <span class="GRef"> इष्टोपदेश 19 </span><p class="SanskritText">यज्जीवस्योपकाराय तत्देहस्यापकारकम्। यद्देहस्योपकराय तज्जीवस्यापकारकम् ।19।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो तपादिक आचरण जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है। और जो धनादिक शरीरके उपकारक हैं वे जीवके अपकारक हैं।</p> | <p class="HindiText">= जो तपादिक आचरण जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है। और जो धनादिक शरीरके उपकारक हैं वे जीवके अपकारक हैं।</p> | ||
< | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 4/141-142/457</span> <p class="SanskritText">योगाय कायमनुपालयतोऽपियुक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽंयथाक्षसुखजीवीतरंध्रलाभात् तृष्णासरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ।141। नैर्ग्रंथ्यव्रतमास्थितोपि वपुषि स्निह्यन्नसह्यव्यथा, भीरुर्जीवितवित्तलालसतया पंचत्वचेक्रीयितम्। यांचादैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यककृत्य देवों त्रपां, निर्मानो धनिनिष्ण्य संघटनयास्पृश्यां विधत्ते गिरम् ।142।</p> | ||
<p class="HindiText">= हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो! योगसिद्धिके लिए पालते हुए भी इस शरीरको, युक्तिके साथ-शक्तिको न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जानकि यह तृष्णारूपी नदी, ऐंद्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रोंको पाकर समीचीन तपरूपी पर्वतको जर्जरित कर डालेगी ।141। नैर्ग्रंथ्य व्रतको भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीरके विषयमें स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुःखोंसे भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धनमें तीव्र लालसा रखकर याचनाजनित दीनताको प्राप्त कर, अत्यंत प्रभावयुक्त देवी लज्जाका अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणीको अंत्यजनोंके समान, दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोंसे संपर्क कराकर अस्पृश्य बना देता है ।142।</p> | <p class="HindiText">= हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो! योगसिद्धिके लिए पालते हुए भी इस शरीरको, युक्तिके साथ-शक्तिको न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जानकि यह तृष्णारूपी नदी, ऐंद्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रोंको पाकर समीचीन तपरूपी पर्वतको जर्जरित कर डालेगी ।141। नैर्ग्रंथ्य व्रतको भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीरके विषयमें स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुःखोंसे भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धनमें तीव्र लालसा रखकर याचनाजनित दीनताको प्राप्त कर, अत्यंत प्रभावयुक्त देवी लज्जाका अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणीको अंत्यजनोंके समान, दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोंसे संपर्क कराकर अस्पृश्य बना देता है ।142।</p> | ||
<p>6. निश्चयसे कोई किसीका उपकार या अपकार नहीं कर सकता</p> | <p class="HindiText"><b>6. निश्चयसे कोई किसीका उपकार या अपकार नहीं कर सकता</b></p> | ||
< | <span class="GRef">समयसार / मूल 266</span> <p class="PrakritText">दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।266।</p> | ||
<p class="HindiText">= हे भाई! मैं जीवोंको दुःखी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढ़मति है वह निरर्थक होनेसे वास्तवमें मिथ्या है।</p> | <p class="HindiText">= हे भाई! मैं जीवोंको दुःखी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढ़मति है वह निरर्थक होनेसे वास्तवमें मिथ्या है।</p> | ||
< | <span class="GRef">योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 5/10</span> <p class="SanskritText">निग्रहानुग्रहौ कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः। रोषतोषौ न कुत्रापि कर्त्तव्याविति तात्त्विकैः।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस आत्माका निग्रह या अनुग्रह करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसीसे भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= इस आत्माका निग्रह या अनुग्रह करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसीसे भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए।</p> | ||
<p>7. स्वोपकारके सामने परोपकारका निषेध</ | <p class="HindiText"><b>7. स्वोपकारके सामने परोपकारका निषेध</b></p> | ||
<p | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/ मूल/16</span> <p class="PrakritText">परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सग्गई हवइ। इण णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।16।</p> | ||
<p class="HindiText">= परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर स्वद्रव्यमें रति करनी चाहिए और परद्रव्यसे विरत रहना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर स्वद्रव्यमें रति करनी चाहिए और परद्रव्यसे विरत रहना चाहिए।</p> | ||
< | <span class="GRef">इष्टोपदेश / मूल या टीका गाथा 32</span> <p class="SanskritText">परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।32।</p> | ||
<p class="HindiText">= हे आत्मन! तू लोकके समान मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीरादि परपदार्थोंका उपकार कर रहा है, यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू परके उपकारकी इच्छा न कर, अपने ही उपकारमें लीन हो।</p> | <p class="HindiText">= हे आत्मन! तू लोकके समान मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीरादि परपदार्थोंका उपकार कर रहा है, यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू परके उपकारकी इच्छा न कर, अपने ही उपकारमें लीन हो।</p> | ||
< | <span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 38/176</span> <p class="SanskritText">निःसंगवृत्तिरेकाकी विहरन् स महातपः। चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ।176।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है, उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिए, अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारकी चिंतामें नहीं पड़ना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है, उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिए, अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारकी चिंतामें नहीं पड़ना चाहिए।</p> | ||
<p>8. परोपकार व स्वोपकारमें स्वोपकार प्रधान है</p> | <p class="HindiText"><b>8. परोपकार व स्वोपकारमें स्वोपकार प्रधान है</b></p> | ||
< | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 154/351 में उद्धृत</span><p class="PrakritText"> "अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परहियं च कायव्वं। अप्पहियपरहियादो अप्पहिदं सुट्ठु कादव्वं।"</p> | ||
<p class="HindiText">= अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो परका भी हित करना चाहिए, परंतु आत्महित और परहित इन दोनोंमें-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उत्तम प्रकारसे आत्महित करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो परका भी हित करना चाहिए, परंतु आत्महित और परहित इन दोनोंमें-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उत्तम प्रकारसे आत्महित करना चाहिए।</p> | ||
<p>( अनगार धर्मामृत अधिकार 1/12/35 में उद्धृत), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804 में उद्धृत)</p> | <p class="HindiText">( <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/12/35 में उद्धृत</span>), (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804 में उद्धृत</span>)</p> | ||
< | <span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804, 809</span> <p class="SanskritText">धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्त्तव्योऽनुग्रहः परे। नात्मव्रतं विहायस्तु तत्परः पररक्षणे ।804। तद्द्विधाथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात्। प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत्परात्मनि ।809।</p> | ||
<p class="HindiText">= धर्मके आदेश और उपदेशके द्वारा ही दूसरे जीवोंपर अनुग्रह करना चाहिए। किंतु अपने व्रतोंको छोड़कर दूसरे जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर नहीं होना चाहिए ।804। तथा वह वात्सल्य अंग भी स्व व परके विषयके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें-से अपनी आत्मासे संबंध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है तथा संपूर्ण पर-आत्माओंसे संबंध रखनेवाला जो वात्सल्य है वह गौण है ।809।</p> | <p class="HindiText">= धर्मके आदेश और उपदेशके द्वारा ही दूसरे जीवोंपर अनुग्रह करना चाहिए। किंतु अपने व्रतोंको छोड़कर दूसरे जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर नहीं होना चाहिए ।804। तथा वह वात्सल्य अंग भी स्व व परके विषयके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें-से अपनी आत्मासे संबंध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है तथा संपूर्ण पर-आत्माओंसे संबंध रखनेवाला जो वात्सल्य है वह गौण है ।809।</p> | ||
<p>( लांटी संहिता अधिकार 4/305)</p> | <p class="HindiText">( <span class="GRef">लांटी संहिता अधिकार 4/305</span>)</p> | ||
<p>9. परोपकारकी कथंचित् प्रधानता</p> | <p class="HindiText"><b>9. परोपकारकी कथंचित् प्रधानता</b></p> | ||
< | <span class="GRef">कुरल काव्य परिच्छेद 11/1,2/22/10</span> <p class="SanskritText">या दया क्रियते भव्यैराभारस्थापनं बिना। स्वर्ग्यमर्त्यावुभौ तस्याः प्रतिपादनाय न क्षमौ ।1। शिष्टैरवसरं वीक्ष्य यानुकंपा विधीयते। स्वल्पापि दर्शने किंतु विश्वस्मात् सा गरीयसी ।2। उपकारो विनाशेन सहितोऽपि प्रशस्यते। विक्रोयापि निजात्मानं भव्योत्तम विधेहितम् ।10।</p> | ||
<p class="HindiText">= आभारी बनानेकी इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।1। अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखनेमें छोटा भले ही हो, पर जगत्में सबसे भारी है ।2। यदि परोपकार करनेके फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो तो दासत्वमें फँसनेके लिए आत्मविक्रय करके भी उसको संपादन करना उचित है।</p> | <p class="HindiText">= आभारी बनानेकी इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।1। अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखनेमें छोटा भले ही हो, पर जगत्में सबसे भारी है ।2। यदि परोपकार करनेके फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो तो दासत्वमें फँसनेके लिए आत्मविक्रय करके भी उसको संपादन करना उचित है।</p> | ||
< | <span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 483/704</span> <p class="PrakritText ">आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फुरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु और कठोर वचन तक सहकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु और कठोर वचन तक सहकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।</p> | ||
< | <span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 38/169-171 </span><p class="SanskritText">श्रावकानार्यिकासंघं श्राविकाः संयतानपि। सन्मार्गे वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत् ।169। श्रुतार्थिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम्। धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्मं स शश्वत् प्रतिपाद येत् ।170। सद्वृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तान्निवारयन्। शोधयंश्च कृतादागोमलात् स बिभृयाद् गणम् ।171।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमें लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ।169। उसे यह भी चाहिए कि वह शास्त्राध्ययनकी इच्छा करने वालेको शास्त्र पढ़ावे तथा दीक्षार्थियोंको दीक्षा देवे और धर्मार्थियोंके लिए धर्मका प्रतिपादन करे ।170। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे और दुराचारियोंको दूर हटावे। और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगणकी रक्षा करे ।171।</p> | <p class="HindiText">= इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमें लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ।169। उसे यह भी चाहिए कि वह शास्त्राध्ययनकी इच्छा करने वालेको शास्त्र पढ़ावे तथा दीक्षार्थियोंको दीक्षा देवे और धर्मार्थियोंके लिए धर्मका प्रतिपादन करे ।170। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे और दुराचारियोंको दूर हटावे। और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगणकी रक्षा करे ।171।</p> | ||
< | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 357/561/18</span> <p class="SanskritText">किन्न वेत्ति स्वयमपि इति नोपेक्षितव्यम्। परोपकारः कार्य एवेति कथयति। तथाहि-तीर्थकृतः विनेयजनसंबोधनार्थं एव तीर्थविहारं कुर्वंति। महत्ता नामैवं यत्-परोपकारबद्धपरिकरता ॥ तथा चोक्तं-"क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ॥ दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोत्रःपतिं बाडवो जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापबिच्छित्तिये ॥"</p> | ||
<p class="HindiText">= 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है?' ऐसा विचार करके दूसरोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करनेका कार्य करना ही चाहिए। देखो तीर्थंकर परमदेव भव्य जनोंको उपदेश देनेके लिए ही तीर्थ विहार करते हैं। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है-"जगत्में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारों हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किंतु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोंका संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है।</p> | <p class="HindiText">= 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है?' ऐसा विचार करके दूसरोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करनेका कार्य करना ही चाहिए। देखो तीर्थंकर परमदेव भव्य जनोंको उपदेश देनेके लिए ही तीर्थ विहार करते हैं। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है-"जगत्में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारों हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किंतु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोंका संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है।</p> | ||
< | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/11/35 पर उद्धृत</span> <p class="SanskritText">"स्वदुःखनिर्घृणारंभाः परदुःखेषु दुःखिता। निर्व्यपेक्षं परार्थेषु बद्धकक्षा मुमुक्षवः ॥"</p> | ||
<p class="HindiText">= मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किंतु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करनेमें दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किंतु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करनेमें दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।</p> | ||
<p>10. अन्य संबंधित विषय</p> | <p class="HindiText"><b>10. अन्य संबंधित विषय</b></p> | ||
<p>• स्वोपकार व परोपकारका समन्वय - देखें [[ उपकार#1.9 | उपकार - 1.9]]</p> | <p class="HindiText">• स्वोपकार व परोपकारका समन्वय - देखें [[ उपकार#1.9 | उपकार - 1.9]]</p> | ||
<p>• उपकारार्थ धर्मोपदेशका विधि निषेध - देखें [[ उपदेश ]]</p> | <p class="HindiText">• उपकारार्थ धर्मोपदेशका विधि निषेध - देखें [[ उपदेश ]]</p> | ||
<p>• उपकारकी अपेक्षा द्रव्यमें भेदाभेद - देखें [[ सप्तभंगी#5 | सप्तभंगी - 5]]</p> | <p class="HindiText">• उपकारकी अपेक्षा द्रव्यमें भेदाभेद - देखें [[ सप्तभंगी#5 | सप्तभंगी - 5]]</p> | ||
<p>• उपकारक निमित्तकारण - देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]]</p> | <p class="HindiText">• उपकारक निमित्तकारण - देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]]</p> | ||
<p>• छः द्रव्योंमें परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव - देखें [[ कारण#III.2 | कारण - III.2]]</p> | <p class="HindiText">• छः द्रव्योंमें परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव - देखें [[ कारण#III.2 | कारण - III.2]]</p> | ||
<p>• उपकार्य उपकारक संबंध निर्देश - देखें [[ संबंध ]]</p> | <p class="HindiText">• उपकार्य उपकारक संबंध निर्देश - देखें [[ संबंध ]]</p> | ||
Revision as of 09:17, 24 December 2022
उपकरणाका सामान्य अर्थ निमित्त रूपसे सहायक होना है। वह दो प्रकार है-स्वोपकार व परोपकार। यद्यपि व्यवहार मार्गमें परोपकार की महत्ता है, पर अध्यात्म मार्गमें स्वोपकार ही अत्यंत इष्ट हैं, परोपकार नहीं।
1. उपकार सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/17/282/2
उपक्रियत इत्युपकारः। कः पुनरसौ। गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च।
= उपकारकी व्युत्पत्ति `उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है? उत्तर-(धर्म द्रव्यका) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्यका) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है।
2. स्व व पर उपकार
(और भी देखें आगे नं - 3)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/38/372/13
स्वपरोपकारऽनुग्रहः।....स्वोपकारः पुण्यसंचयः परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः।
= स्वयं अपना अथवा दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है। दान देनेसे जो पुण्यका संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योंकि उसका फल भोग स्वयंको प्राप्त होता है); तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि होती है, यह परका उपकार है, (क्योंकि इसका फल दूसरेको प्राप्त होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/38/1/559/15)।
3. उपकार व कर्तृत्वमें अंतर
राजवार्तिक अध्याय 5/17/16/462/5
स्यादेतत्-गतिस्थित्योः धर्मा-धर्मौ कर्तारौ इत्ययमर्थः प्रसक्त इतिः तन्नः किं कारणम्। उपकारवचनात्। उपकारो बलाधानम् अवलंबनमित्यनर्थांतरं। तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति। यया अंधस्येतरस्य वा स्वजङ्वाबलाद्गच्छतः यष्ट्याद्युपकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।
= प्रश्न - धर्म और अधर्म द्रव्योंको गति स्थितिका उपकारक कहनेसे उनको गति स्थिति करानेका कर्तापना प्राप्त हो जाएगा? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, `उपकार' शब्द दिया गया है। उपकार, बलाधान व अवलंबन इन शब्दोंका एक ही अर्थ होता है अतः इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्योंका गति स्थिति उत्पन्न करनेमें प्रधान कर्तापनेका निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वयं अपने जंघाबलसे चलनेवाले अंधेके लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्तिसे चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुद्गलद्रव्योंको धर्म और अधर्म उपकारक हैं प्रेरक नहीं।
4. उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं
कुरल काव्य परिच्छेद 22/1
नोपकारपराः संतः प्रतिदानजिघृक्षया। समृद्धः किमसौ लोको मेघाय प्रतियच्छति ।1।
= महापुरुष जो उपकार करते हैं, उसका बदला नहीं चाहते। भला संसार जल-बरसानेवाले बादलोंका बदला किस प्रकार चुका सकता है।
5. शरीरका उपकार अपना अपकार है और इसका अपकार अपना उपकार है।
इष्टोपदेश 19
यज्जीवस्योपकाराय तत्देहस्यापकारकम्। यद्देहस्योपकराय तज्जीवस्यापकारकम् ।19।
= जो तपादिक आचरण जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है। और जो धनादिक शरीरके उपकारक हैं वे जीवके अपकारक हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 4/141-142/457
योगाय कायमनुपालयतोऽपियुक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽंयथाक्षसुखजीवीतरंध्रलाभात् तृष्णासरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ।141। नैर्ग्रंथ्यव्रतमास्थितोपि वपुषि स्निह्यन्नसह्यव्यथा, भीरुर्जीवितवित्तलालसतया पंचत्वचेक्रीयितम्। यांचादैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यककृत्य देवों त्रपां, निर्मानो धनिनिष्ण्य संघटनयास्पृश्यां विधत्ते गिरम् ।142।
= हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो! योगसिद्धिके लिए पालते हुए भी इस शरीरको, युक्तिके साथ-शक्तिको न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जानकि यह तृष्णारूपी नदी, ऐंद्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रोंको पाकर समीचीन तपरूपी पर्वतको जर्जरित कर डालेगी ।141। नैर्ग्रंथ्य व्रतको भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीरके विषयमें स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुःखोंसे भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धनमें तीव्र लालसा रखकर याचनाजनित दीनताको प्राप्त कर, अत्यंत प्रभावयुक्त देवी लज्जाका अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणीको अंत्यजनोंके समान, दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोंसे संपर्क कराकर अस्पृश्य बना देता है ।142।
6. निश्चयसे कोई किसीका उपकार या अपकार नहीं कर सकता
समयसार / मूल 266
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।266।
= हे भाई! मैं जीवोंको दुःखी-सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढ़मति है वह निरर्थक होनेसे वास्तवमें मिथ्या है।
योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 5/10
निग्रहानुग्रहौ कर्तुं कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मनः। रोषतोषौ न कुत्रापि कर्त्तव्याविति तात्त्विकैः।
= इस आत्माका निग्रह या अनुग्रह करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसीसे भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए।
7. स्वोपकारके सामने परोपकारका निषेध
मोक्षपाहुड़/ मूल/16
परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सग्गई हवइ। इण णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।16।
= परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर स्वद्रव्यमें रति करनी चाहिए और परद्रव्यसे विरत रहना चाहिए।
इष्टोपदेश / मूल या टीका गाथा 32
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।32।
= हे आत्मन! तू लोकके समान मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीरादि परपदार्थोंका उपकार कर रहा है, यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू परके उपकारकी इच्छा न कर, अपने ही उपकारमें लीन हो।
महापुराण सर्ग संख्या 38/176
निःसंगवृत्तिरेकाकी विहरन् स महातपः। चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ।176।
= जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है, उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिए, अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारकी चिंतामें नहीं पड़ना चाहिए।
8. परोपकार व स्वोपकारमें स्वोपकार प्रधान है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 154/351 में उद्धृत
"अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परहियं च कायव्वं। अप्पहियपरहियादो अप्पहिदं सुट्ठु कादव्वं।"
= अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो परका भी हित करना चाहिए, परंतु आत्महित और परहित इन दोनोंमें-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उत्तम प्रकारसे आत्महित करना चाहिए।
( अनगार धर्मामृत अधिकार 1/12/35 में उद्धृत), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804 में उद्धृत)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 804, 809
धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्त्तव्योऽनुग्रहः परे। नात्मव्रतं विहायस्तु तत्परः पररक्षणे ।804। तद्द्विधाथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात्। प्रधानं स्वात्मसंबंधि गुणो यावत्परात्मनि ।809।
= धर्मके आदेश और उपदेशके द्वारा ही दूसरे जीवोंपर अनुग्रह करना चाहिए। किंतु अपने व्रतोंको छोड़कर दूसरे जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर नहीं होना चाहिए ।804। तथा वह वात्सल्य अंग भी स्व व परके विषयके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें-से अपनी आत्मासे संबंध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है तथा संपूर्ण पर-आत्माओंसे संबंध रखनेवाला जो वात्सल्य है वह गौण है ।809।
( लांटी संहिता अधिकार 4/305)
9. परोपकारकी कथंचित् प्रधानता
कुरल काव्य परिच्छेद 11/1,2/22/10
या दया क्रियते भव्यैराभारस्थापनं बिना। स्वर्ग्यमर्त्यावुभौ तस्याः प्रतिपादनाय न क्षमौ ।1। शिष्टैरवसरं वीक्ष्य यानुकंपा विधीयते। स्वल्पापि दर्शने किंतु विश्वस्मात् सा गरीयसी ।2। उपकारो विनाशेन सहितोऽपि प्रशस्यते। विक्रोयापि निजात्मानं भव्योत्तम विधेहितम् ।10।
= आभारी बनानेकी इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।1। अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखनेमें छोटा भले ही हो, पर जगत्में सबसे भारी है ।2। यदि परोपकार करनेके फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो तो दासत्वमें फँसनेके लिए आत्मविक्रय करके भी उसको संपादन करना उचित है।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 483/704
आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फुरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483।
= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु और कठोर वचन तक सहकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।
महापुराण सर्ग संख्या 38/169-171
श्रावकानार्यिकासंघं श्राविकाः संयतानपि। सन्मार्गे वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत् ।169। श्रुतार्थिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम्। धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्मं स शश्वत् प्रतिपाद येत् ।170। सद्वृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तान्निवारयन्। शोधयंश्च कृतादागोमलात् स बिभृयाद् गणम् ।171।
= इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमें लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ।169। उसे यह भी चाहिए कि वह शास्त्राध्ययनकी इच्छा करने वालेको शास्त्र पढ़ावे तथा दीक्षार्थियोंको दीक्षा देवे और धर्मार्थियोंके लिए धर्मका प्रतिपादन करे ।170। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे और दुराचारियोंको दूर हटावे। और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगणकी रक्षा करे ।171।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 357/561/18
किन्न वेत्ति स्वयमपि इति नोपेक्षितव्यम्। परोपकारः कार्य एवेति कथयति। तथाहि-तीर्थकृतः विनेयजनसंबोधनार्थं एव तीर्थविहारं कुर्वंति। महत्ता नामैवं यत्-परोपकारबद्धपरिकरता ॥ तथा चोक्तं-"क्षुद्राः संति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ॥ दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोत्रःपतिं बाडवो जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापबिच्छित्तिये ॥"
= 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है?' ऐसा विचार करके दूसरोंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करनेका कार्य करना ही चाहिए। देखो तीर्थंकर परमदेव भव्य जनोंको उपदेश देनेके लिए ही तीर्थ विहार करते हैं। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है-"जगत्में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारों हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किंतु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोंका संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/11/35 पर उद्धृत
"स्वदुःखनिर्घृणारंभाः परदुःखेषु दुःखिता। निर्व्यपेक्षं परार्थेषु बद्धकक्षा मुमुक्षवः ॥"
= मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किंतु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करनेमें दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।
10. अन्य संबंधित विषय
• स्वोपकार व परोपकारका समन्वय - देखें उपकार - 1.9
• उपकारार्थ धर्मोपदेशका विधि निषेध - देखें उपदेश
• उपकारकी अपेक्षा द्रव्यमें भेदाभेद - देखें सप्तभंगी - 5
• उपकारक निमित्तकारण - देखें निमित्त - 1
• छः द्रव्योंमें परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव - देखें कारण - III.2
• उपकार्य उपकारक संबंध निर्देश - देखें संबंध