स्फोट: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
mNo edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText">मीमांसक मान्य एक व्यापक तत्त्व जिसके द्वारा ध्वन्यात्मक शब्द में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य अभिव्यक्त होती है।</span></li> | <li><span class="HindiText">मीमांसक मान्य एक व्यापक तत्त्व जिसके द्वारा ध्वन्यात्मक शब्द में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य अभिव्यक्त होती है।</span></li> | ||
<li><p class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक 5/24/5/486/1 </span>अपरे मंयंते ध्वनय: क्षणिका: क्रमजन्मान: स्वरूपप्रतिपादनादेवोपक्षीणशक्तिका नार्थांतरमवबोधयितुमलम् । यदि समर्था: स्यु: पदेभ्य इव पदार्थेषु प्रतिवर्णं वर्णार्थेषु प्रत्यय: स्यात् । एकेन चार्थे कृते वर्णांतरोपादानमनर्थकं स्यात् । नापि क्रमजन्मनां सहभाव: संघातोऽस्ति योऽर्थेन युज्यते। अतस्तेभ्योऽर्थप्रतिपादने समर्थशब्दात्मा अमूर्तो नित्योऽतींद्रियो निरवयवो निष्क्रियो ध्वनिभिरभिव्यंग्य इत्यभ्युपगंतव्य इति; एतच्चानुपपन्नम्; कुत:। व्यंग्यव्यंजकभावानुपपत्ते:। ...किंच स ध्वनिर्व्यंजकस्फोटस्य वा उपकारं कुर्यात्, श्रोत्रस्य, उभयस्य वा। ...किंच, न ध्वनय: स्फोटाभिव्यक्तिहेतवो भवंति उत्पत्तिक्षणादूर्ध्वमनवस्थानात् उत्पत्तिक्षणे चासत्त्वात् । ...किंच, स्फोटध्वनेरन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा। ...किंच व्यंग्यत्वे सति अनित्यत्वं स्यात् स्फोटस्य घटादिवत् विज्ञानेन व्यंग्यत्वात् । ...महदादिवत् इति चेत्; न साध्यसमत्वात् ।-न चामूर्त: कश्चिन्नित्यो निरवयवो मूर्तिमतानित्येन सावयवेन व्यंग्यो दृष्ट:, तद्भावात् साध्यसिद्धयभाव:।</p><p class="HindiText">स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमश: उत्पन्न होती हैं और अनंतर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूप से बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं अत: अर्थांतर का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होती हैं तो पदों से पदार्थों की तरह प्रत्येक वर्ण से अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होने पर वर्णांतर का उपादान निरर्थक है। क्रम से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अत: उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ प्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतींद्रिय, निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्यव्यंजक भाव नहीं बन सकता। ...किंच ध्वनियाँ स्फोट की व्यंजक होती हैं तो वे स्फोट का उपकार करेंगी या श्रोत्र का या दोनों का।...किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? ...किंच, स्फोट यदि ध्वनियों से अभिन्न है ? ...किंच, यदि स्फोट को व्यंग्य मानते हो तो उसमें घटादि की तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए।...महान् अहंकार आदि सांख्यमत तत्त्वों का दृष्टांत देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोट की व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वों की भी।...फिर ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता जो अमूर्त नित्य और निरवयव होकर मूर्त अनित्य, और सावयव से व्यंगय होता हो। इसके अभाव से साध्य की सिद्धि का अभाव है। अत: शब्द ध्वनि रूप ही है और नित्यानित्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। (<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>टी./11/5/702/22); (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>टी./3/49/328/32); (<span class="GRef"> | <li><p class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक 5/24/5/486/1 </span>अपरे मंयंते ध्वनय: क्षणिका: क्रमजन्मान: स्वरूपप्रतिपादनादेवोपक्षीणशक्तिका नार्थांतरमवबोधयितुमलम् । यदि समर्था: स्यु: पदेभ्य इव पदार्थेषु प्रतिवर्णं वर्णार्थेषु प्रत्यय: स्यात् । एकेन चार्थे कृते वर्णांतरोपादानमनर्थकं स्यात् । नापि क्रमजन्मनां सहभाव: संघातोऽस्ति योऽर्थेन युज्यते। अतस्तेभ्योऽर्थप्रतिपादने समर्थशब्दात्मा अमूर्तो नित्योऽतींद्रियो निरवयवो निष्क्रियो ध्वनिभिरभिव्यंग्य इत्यभ्युपगंतव्य इति; एतच्चानुपपन्नम्; कुत:। व्यंग्यव्यंजकभावानुपपत्ते:। ...किंच स ध्वनिर्व्यंजकस्फोटस्य वा उपकारं कुर्यात्, श्रोत्रस्य, उभयस्य वा। ...किंच, न ध्वनय: स्फोटाभिव्यक्तिहेतवो भवंति उत्पत्तिक्षणादूर्ध्वमनवस्थानात् उत्पत्तिक्षणे चासत्त्वात् । ...किंच, स्फोटध्वनेरन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा। ...किंच व्यंग्यत्वे सति अनित्यत्वं स्यात् स्फोटस्य घटादिवत् विज्ञानेन व्यंग्यत्वात् । ...महदादिवत् इति चेत्; न साध्यसमत्वात् ।-न चामूर्त: कश्चिन्नित्यो निरवयवो मूर्तिमतानित्येन सावयवेन व्यंग्यो दृष्ट:, तद्भावात् साध्यसिद्धयभाव:।</p><p class="HindiText">स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमश: उत्पन्न होती हैं और अनंतर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूप से बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं अत: अर्थांतर का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होती हैं तो पदों से पदार्थों की तरह प्रत्येक वर्ण से अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होने पर वर्णांतर का उपादान निरर्थक है। क्रम से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अत: उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ प्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतींद्रिय, निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्यव्यंजक भाव नहीं बन सकता। ...किंच ध्वनियाँ स्फोट की व्यंजक होती हैं तो वे स्फोट का उपकार करेंगी या श्रोत्र का या दोनों का।...किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? ...किंच, स्फोट यदि ध्वनियों से अभिन्न है ? ...किंच, यदि स्फोट को व्यंग्य मानते हो तो उसमें घटादि की तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए।...महान् अहंकार आदि सांख्यमत तत्त्वों का दृष्टांत देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोट की व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वों की भी।...फिर ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता जो अमूर्त नित्य और निरवयव होकर मूर्त अनित्य, और सावयव से व्यंगय होता हो। इसके अभाव से साध्य की सिद्धि का अभाव है। अत: शब्द ध्वनि रूप ही है और नित्यानित्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। (<span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ </span>टी./11/5/702/22); (<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>टी./3/49/328/32); (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/113,14/216/266/4 </span>)</p></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 11: | Line 11: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: स]] | [[Category: स]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Revision as of 14:15, 17 October 2022
- मीमांसक मान्य एक व्यापक तत्त्व जिसके द्वारा ध्वन्यात्मक शब्द में अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य अभिव्यक्त होती है।
राजवार्तिक 5/24/5/486/1 अपरे मंयंते ध्वनय: क्षणिका: क्रमजन्मान: स्वरूपप्रतिपादनादेवोपक्षीणशक्तिका नार्थांतरमवबोधयितुमलम् । यदि समर्था: स्यु: पदेभ्य इव पदार्थेषु प्रतिवर्णं वर्णार्थेषु प्रत्यय: स्यात् । एकेन चार्थे कृते वर्णांतरोपादानमनर्थकं स्यात् । नापि क्रमजन्मनां सहभाव: संघातोऽस्ति योऽर्थेन युज्यते। अतस्तेभ्योऽर्थप्रतिपादने समर्थशब्दात्मा अमूर्तो नित्योऽतींद्रियो निरवयवो निष्क्रियो ध्वनिभिरभिव्यंग्य इत्यभ्युपगंतव्य इति; एतच्चानुपपन्नम्; कुत:। व्यंग्यव्यंजकभावानुपपत्ते:। ...किंच स ध्वनिर्व्यंजकस्फोटस्य वा उपकारं कुर्यात्, श्रोत्रस्य, उभयस्य वा। ...किंच, न ध्वनय: स्फोटाभिव्यक्तिहेतवो भवंति उत्पत्तिक्षणादूर्ध्वमनवस्थानात् उत्पत्तिक्षणे चासत्त्वात् । ...किंच, स्फोटध्वनेरन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा। ...किंच व्यंग्यत्वे सति अनित्यत्वं स्यात् स्फोटस्य घटादिवत् विज्ञानेन व्यंग्यत्वात् । ...महदादिवत् इति चेत्; न साध्यसमत्वात् ।-न चामूर्त: कश्चिन्नित्यो निरवयवो मूर्तिमतानित्येन सावयवेन व्यंग्यो दृष्ट:, तद्भावात् साध्यसिद्धयभाव:।
स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमश: उत्पन्न होती हैं और अनंतर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूप से बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं अत: अर्थांतर का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होती हैं तो पदों से पदार्थों की तरह प्रत्येक वर्ण से अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होने पर वर्णांतर का उपादान निरर्थक है। क्रम से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अत: उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ प्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतींद्रिय, निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्यव्यंजक भाव नहीं बन सकता। ...किंच ध्वनियाँ स्फोट की व्यंजक होती हैं तो वे स्फोट का उपकार करेंगी या श्रोत्र का या दोनों का।...किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? ...किंच, स्फोट यदि ध्वनियों से अभिन्न है ? ...किंच, यदि स्फोट को व्यंग्य मानते हो तो उसमें घटादि की तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए।...महान् अहंकार आदि सांख्यमत तत्त्वों का दृष्टांत देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोट की व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वों की भी।...फिर ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता जो अमूर्त नित्य और निरवयव होकर मूर्त अनित्य, और सावयव से व्यंगय होता हो। इसके अभाव से साध्य की सिद्धि का अभाव है। अत: शब्द ध्वनि रूप ही है और नित्यानित्यात्मक है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। ( सिद्धि विनिश्चय/ टी./11/5/702/22); ( न्यायविनिश्चय/ टी./3/49/328/32); ( कषायपाहुड़ 1/113,14/216/266/4 )