मंगी: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) अवंति देश की उज्जयिनी नगरी के सेठ विमलचंद्र की पुत्री । इसका विवाह उज्जयिनी के राजकुमार वज्रमुष्टि से हुआ था । ईर्ष्यावश इसकी सास ने कलश में फूलों के साथ सर्प भी रख | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) अवंति देश की उज्जयिनी नगरी के सेठ विमलचंद्र की पुत्री । इसका विवाह उज्जयिनी के राजकुमार वज्रमुष्टि से हुआ था । ईर्ष्यावश इसकी सास ने कलश में फूलों के साथ सर्प भी रख छोड़ा था । जैसे ही इसने पूजा के हेतु फूल निकालने के लिए कलश में हाथ डाला कि सर्प ने इसे डस लिया । सास ने इसे निश्चेष्ट देखकर श्मशान में डलवा दिया था परंतु वज्रमुष्टि इसे अचेतावस्था में मुनिराज के समीप ले आया था । मुनि के चरण स्पर्श से वह विषहीन हो गयी थी । माता के इस कुकृत्य से विरक्त होकर वज्रमुष्टि ने वरधर्म मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली तथा इसने भी आर्यिका के समीप आर्यिका-दीक्षा ले ली । <span class="GRef"> महापुराण 71.208-228, 247-248, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 33.104-123, 128-129 </span></p> | ||
<p id="2">(2) श्रीभूति पुरोहित का जीव-एक भीलनी । यह दारुण भीख की भार्या थी । <span class="GRef"> महापुराण 59. 273, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.107 </span></p> | <p id="2">(2) श्रीभूति पुरोहित का जीव-एक भीलनी । यह दारुण भीख की भार्या थी । <span class="GRef"> महापुराण 59. 273, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.107 </span></p> | ||
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Revision as of 22:28, 5 November 2022
(1) अवंति देश की उज्जयिनी नगरी के सेठ विमलचंद्र की पुत्री । इसका विवाह उज्जयिनी के राजकुमार वज्रमुष्टि से हुआ था । ईर्ष्यावश इसकी सास ने कलश में फूलों के साथ सर्प भी रख छोड़ा था । जैसे ही इसने पूजा के हेतु फूल निकालने के लिए कलश में हाथ डाला कि सर्प ने इसे डस लिया । सास ने इसे निश्चेष्ट देखकर श्मशान में डलवा दिया था परंतु वज्रमुष्टि इसे अचेतावस्था में मुनिराज के समीप ले आया था । मुनि के चरण स्पर्श से वह विषहीन हो गयी थी । माता के इस कुकृत्य से विरक्त होकर वज्रमुष्टि ने वरधर्म मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली तथा इसने भी आर्यिका के समीप आर्यिका-दीक्षा ले ली । महापुराण 71.208-228, 247-248, हरिवंशपुराण 33.104-123, 128-129
(2) श्रीभूति पुरोहित का जीव-एक भीलनी । यह दारुण भीख की भार्या थी । महापुराण 59. 273, हरिवंशपुराण 27.107