पुराण: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> आचार्य दामनंदि कृत ग्रंथ में 6 चरित्रों का संग्रह है। आदिनाथ, चंद्रप्रभु, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्धमान चरित्र। कुल ग्रंथ 1964 श्लोक प्रमाण है। इसका काल ज्ञात नहीं है। </li> | <li class="HindiText"> आचार्य दामनंदि कृत ग्रंथ में 6 चरित्रों का संग्रह है। आदिनाथ, चंद्रप्रभु, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्धमान चरित्र। कुल ग्रंथ 1964 श्लोक प्रमाण है। इसका काल ज्ञात नहीं है। </li> | ||
<li class="HindiText"> आचार्य श्रीचंद्र द्वारा वि.सं.1066 में रचा गया। ( | <li class="HindiText"> आचार्य श्रीचंद्र द्वारा वि.सं.1066 में रचा गया। (तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/4/131)। 3. आचार्य सकलकीर्ति द्वारा (ई.1406-1442) में रचा गया। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/3/334)। </li> | ||
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Revision as of 23:04, 11 November 2022
सिद्धांतकोष से
हरिवंश आदि 12 पुराणों के नाम निर्देश (देखें इतिहास - 10 में राज्यवंशों के नाम निर्देश)।
पुराण संग्रह - 24 तीथकरों के जीवन चरित्र के आधार पर रचे गये पुराण संग्रह नाम के कई ग्रंथ उपलब्ध हैं -
- आचार्य दामनंदि कृत ग्रंथ में 6 चरित्रों का संग्रह है। आदिनाथ, चंद्रप्रभु, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्धमान चरित्र। कुल ग्रंथ 1964 श्लोक प्रमाण है। इसका काल ज्ञात नहीं है।
- आचार्य श्रीचंद्र द्वारा वि.सं.1066 में रचा गया। (तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/4/131)। 3. आचार्य सकलकीर्ति द्वारा (ई.1406-1442) में रचा गया। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/3/334)।
पुराणकोष से
(1) पुरातन महापुरुषों से उपदिष्ट मुक्तिमार्ग की ओर ले जाने वाले त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र के वर्णन से युक्त रचनाएं । ये ऋषि-प्रणीत होने से आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्ष्म, धर्म का प्ररूपक होने से धर्मशास्त्र तथा इति + ह् + आस् यहाँ ऐसा हुआ यह बताने के कारण इतिहास कहलाते हैं । महापुराण 1.19-26 इनमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं का वर्णन रहता है । क्षेत्र रूप से ऊर्ध्व, मध्य और पाताल लोक का, काल रूप से भूत, भविष्यत् और वर्तमान का, तीर्थ रूप से सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र का, तथा तीर्थसेवी सत्पुरुष (शलाकापुरुष) और उनके आचरण का इनमें वर्णन होता है । महापुराण 2.38-40
(2) भरतेश ओर सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.37, 25.192