श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश: Difference between revisions
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<span class="HindiText">जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।</span></p> | <span class="HindiText">जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/8/29 </span>सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वंदना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/8/29 </span>सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वंदना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29।</span> = | ||
<span class="HindiText">सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पंडितों के द्वारा कहे गये हैं।29।</span></p> | <span class="HindiText">सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पंडितों के द्वारा कहे गये हैं।29।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.5">5. श्रावक की 53 क्रियाएँ</p> | <p class="HindiText" id="4.6.5">5. श्रावक की 53 क्रियाएँ</p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> रयणसार/153 </span>गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> रयणसार/153 </span>गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153।</span> = | ||
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<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/319 </span>विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/319 </span>विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319।</span> = | ||
<span class="HindiText">देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।</span></p> | <span class="HindiText">देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/25,29,42,59 </span> पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेतोयं...।25। विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।29। द्वादशापि चिंत्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:...।42। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59।</span> = | ||
<span class="HindiText">पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।</span></p> | <span class="HindiText">पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/ | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/ टिप्पणी/2/24/पृष्ठ 95</span> आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चै:। पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्‌गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।</span> = | ||
<span class="HindiText">जिनेंद्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।</span></p> | <span class="HindiText">जिनेंद्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/55,59 </span>स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मंदायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनींद्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्‌निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/55,59 </span>स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मंदायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनींद्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्‌निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59।</span> = | ||
<span class="HindiText">श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परंतु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।</span></p> | <span class="HindiText">श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परंतु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/736-740 </span>जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/736-740 </span>जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740।</span> = | ||
<span class="HindiText">अपनी संपत्ति के अनुसार मंदिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य | <span class="HindiText">अपनी संपत्ति के अनुसार मंदिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य है।736। और वह श्रावक तीर्थादिक की यात्रा में भी मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।738। गृहस्थों को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिमा रूप से वा बिना प्रतिमारूप से दोनों प्रकार का संयम पालन करना चाहिए।740।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> लाटी संहिता/5/185 </span>यथा समितय: पंच संति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> लाटी संहिता/5/185 </span>यथा समितय: पंच संति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185।</span> = | ||
<span class="HindiText">अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।</span></p> | <span class="HindiText">अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ व्रत#2.4 | व्रत - 2.4]] महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ व्रत#2.4 | व्रत - 2.4]] महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ | <p><span class="HindiText">देखें [[ पूजा_सामान्य_निर्देश_व_उसका_महत्त्व | पूजा - 2.1 ]]अर्हंतादि पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं की स्थापना करावें। तथा नित्य जिनबिंब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ | <p><span class="HindiText">देखें [[ चैत्य_चैत्यालय#2.7 | चैत्य_चैत्यालय 2.7 ]]औषधालय, सदाव्रतशालाएँ तथा प्याऊ खुलवावे। तथा जिनमंदिर में सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.8"><strong>8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.8"><strong>8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ दान#4 | दान - 4 ]]चारों प्रकार का दान अत्यंत महत्त्वशाली है।</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ दान#4 | दान - 4 ]]चारों प्रकार का दान अत्यंत महत्त्वशाली है।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> रयणसार/12-13 </span>दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो।12। जिण पूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण। सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ।13।</span> = | ||
<span class="HindiText">जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।</span></p> | <span class="HindiText">जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/39/99-101 </span>ततोऽधिगतसज्जाति: सद्‌गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्‌कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतंद्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेंद्राल्लब्धसज्जंमा गणेंद्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/39/99-101 </span>ततोऽधिगतसज्जाति: सद्‌गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्‌कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतंद्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेंद्राल्लब्धसज्जंमा गणेंद्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101।</span> = | ||
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<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/77 </span>स्तोकैकेंद्रियघाताद्‌गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/77 </span>स्तोकैकेंद्रियघाताद्‌गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77।</span> = | ||
<span class="HindiText">इंद्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेंद्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेंद्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।</span></p> | <span class="HindiText">इंद्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेंद्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेंद्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सावद्य# | <p class="HindiText">देखें [[ सावद्य#5 | सावद्य - 5 ]]खर कर्म आदि सावद्य कर्म नहीं करने चाहिए।</p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/312 </span>दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/312 </span>दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। | ||
</span>= <span class="HindiText">दिन में प्रतिमा | </span>= <span class="HindiText">दिन में प्रतिमा-योग धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धांत ग्रंथों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रंथों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।312। (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/7/50 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/16 </span>गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बंधादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16।</span> = | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/16 </span>गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बंधादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16।</span> = | ||
<span class="HindiText">नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बंधन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बंधन आदि को नहीं करें।16।</span></p> | <span class="HindiText">नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बंधन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बंधन आदि को नहीं करें।16।</span></p> | ||
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<span class="HindiText">अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।</span></p> | <span class="HindiText">अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.10"><strong>10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है</strong></p> | <p class="HindiText" id="4.10"><strong>10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है</strong></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ | <p class="HindiText">देखें [[ श्रावक_के_मूल_व_उत्तर_गुण_निर्देश#4.7 | श्रावक - 4.7 ]]में <span class="GRef"> पंचाध्यायी </span>–वह श्रावक तीर्थयात्रादिक में भी अपने मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।</p> | ||
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Revision as of 12:09, 12 November 2022
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- श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
- अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए
- अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय
- अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं
- अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं
- साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं
- श्रावक के अनेकों उत्तर गुण
- श्रावक के अन्य कर्तव्य
- आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व
- कुछ निषिद्ध क्रियाएँ
- सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है
श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
1. अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए
रत्नकरंड श्रावकाचार/66 मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।66। =मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित पाँचों अणुव्रतों को श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थों के मूलगुण कहते हैं।66। ( सागार धर्मामृत )
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/61 मद्यं मांसं क्षौद्रं पंचोदुंबरफलानि यत्नेन। हिंसा व्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।61। =हिंसा त्याग की कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुंबर फलों का त्याग करना योग्य है।61। (पंद्मनन्दि पंचविंशतिका /6/23), ( सागार धर्मामृत/2/2 )।
चारित्रसार/30/4 पर उद्धृत - हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसानमद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट संत्यमी मूलगुणा:। =स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परिग्रह से विरक्त होना तथा जूआ, मांस और मद्य का त्याग करना ये आठ गृहस्थों के मूलगुण कहलाते हैं। ( चारित्रसार/30/3 ), ( सागार धर्मामृत/2/3 )।
सागार धर्मामृत/2/18 मद्यपलमधुनिशाशन-पंचफलीविरति-पंचकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।18। =किसी आचार्य के मत में मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदंबर फलों का त्याग, देववंदना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना ये मूलगुण माने गये हैं।18। ( सागार धर्मामृत/ पं.लाल राम/फुट नोट पृष्ठ 82)।
2. अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय
राजवार्तिक हिंदी /7/20/558 कोई शास्त्र में तो आठ मूलगुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहद का त्याग कहा, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में पाँच उदुंबर फल का त्याग, तीन मकार का त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो विवक्षा का भेद है, तहाँ ऐसा समझना जो स्थूलपने पाँच पाप ही का त्याग है। पंच उदुंबर फल में तो त्रस भक्षण का त्याग भया, शिकार के त्याग में त्रस मारने का त्याग भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ व्रत भए। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्याग तै असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी। मांस, मद्य, और शहद के त्याग तै त्रस कूं मार करि भक्षण करने का त्याग भया।
3. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं
देखें दर्शन प्रतिमा - 2.5 पहली प्रतिमा में ही श्रावक को अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसन का त्याग हो जाता है।
सागार धर्मामृत/ टिप्पणी/पृष्ठ 82 एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिता। एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद्भूतो न गेहाश्रमी। = आठ मूलगुण श्रावकों के लिए गणधरदेव ने कहे हैं, इनमें से एक के भी अभाव में श्रावक नहीं कहा जा सकता।
पंचाध्यायी उत्तरार्ध/724-728 निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणा: स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथांगिनाम् ।724। एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:। किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुंबरपंचक:। नामत: श्रावक: ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही।726। यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्यं तद्व्रतस्थैस्तैरिच्छद्भि: श्रेयसीं क्रियाम् ।727। त्यजेद्दोषांस्तु तत्रोक्तान् सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीन् श्रावक: क: समाचरेत् ।728। = आठों मूलगुण स्वभाव से अथवा कुल परंपरा से भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुण के बिना जीवों के सब प्रकार का व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता।724। मूलगुणों के बिना जीव नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है।725। मद्य, मांस मधु व पंच उदुंबर फलों का त्याग करने वाला गृहस्थ नाम से श्रावक कहलाता है, किंतु मद्यादि का सेवन करने वाला गृहस्थ नाम से भी श्रावक नहीं है।726। गृहस्थों को यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओं के करने की इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थ को अवश्य ही व्यसनों का त्याग करना चाहिए।727। और मूलगुणों के लगने वाला अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूप से मद्य, मांस आदि को कौन-सा श्रावक खाता है।728। ( लाटी संहिता/2/6-9 ), ( लाटी संहिता/3/129-130 )।
4. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/723 तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे।723। = उनमें जिस कारण से व्रती गृहस्थों के जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अव्रती गृहस्थों के भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण हैं।723। ( लाटी संहिता/3/127-128 )।
5. साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/722 मूलोत्तरगुणा: संति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथानगारिणां न स्यु: सर्वत: स्यु: परेऽथ ते।722। = जैसे गृहस्थों के मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूप से नहीं होते हैं किंतु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूप से ही होते हैं। (विशेष देखें व्रत - 2.4)।
6. श्रावक के अनेकों उत्तर गुण
1. श्रावक के 2 कर्तव्य
रयणसार/11 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। = चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।
2. श्रावक के 4 कर्तव्य
कषायपाहुड़/82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। = दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। ( अमितगति श्रावकाचार/9/1 ), ( सागार धर्मामृत/7/51 ), ( सागार धर्मामृत/पं.लालाराम/फुटनोट पृष्ठ 95 )।
3. श्रावक के 5 कर्तव्य
कुरल काव्य/5/3 गृहिण: पंच कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बंधु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां कीर्तिरक्षणम् ।3। = पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बंधु-बांधवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं।3।
4. श्रावक के 6 कर्तव्य
चारित्रसार/43/1 गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्ति:, स्वाध्याय:, संयम:, तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवंति। = इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये छह गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं।
पंद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/7 देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।7। = जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।
अमितगति श्रावकाचार/8/29 सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वंदना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29। = सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पंडितों के द्वारा कहे गये हैं।29।
5. श्रावक की 53 क्रियाएँ
रयणसार/153 गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153। = गुणव्रत 3, अणुव्रत 5, शिक्षाव्रत 4, तप 12, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन 11, चार प्रकार का दान देना 4, पानी छानकर पीना 1, रात में भोजन नहीं करना 1, रत्नत्रय को धारण करना 3, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकों की तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है।153।
7. श्रावक के अन्य कर्तव्य
तत्त्वार्थसूत्र/7/22 मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता।22। = तथा वह (श्रावक) मारणांतिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है।22। ( सागार धर्मामृत/7/57 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/319 विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319। = देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/6/25,29,42,59 पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेतोयं...।25। विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।29। द्वादशापि चिंत्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:...।42। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59। = पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।
सागार धर्मामृत/ टिप्पणी/2/24/पृष्ठ 95 आराध्यंते जिनेंद्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चै:। पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:। = जिनेंद्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।
सागार धर्मामृत/7/55,59 स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मंदायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनींद्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59। = श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परंतु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/736-740 जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740। = अपनी संपत्ति के अनुसार मंदिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य है।736। और वह श्रावक तीर्थादिक की यात्रा में भी मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।738। गृहस्थों को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिमा रूप से वा बिना प्रतिमारूप से दोनों प्रकार का संयम पालन करना चाहिए।740।
लाटी संहिता/5/185 यथा समितय: पंच संति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185। = अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।
देखें व्रत - 2.4 महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।
देखें पूजा - 2.1 अर्हंतादि पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं की स्थापना करावें। तथा नित्य जिनबिंब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे।
देखें चैत्य_चैत्यालय 2.7 औषधालय, सदाव्रतशालाएँ तथा प्याऊ खुलवावे। तथा जिनमंदिर में सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे।
8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व
देखें दान - 4 चारों प्रकार का दान अत्यंत महत्त्वशाली है।
रयणसार/12-13 दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो।12। जिण पूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण। सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ।13। = जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।
महापुराण/39/99-101 ततोऽधिगतसज्जाति: सद्गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतंद्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेंद्राल्लब्धसज्जंमा गणेंद्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101। = जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व क्रिया को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सद्गृहित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहंत भगवान् के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेंद्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है।99-101।
9. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/77 स्तोकैकेंद्रियघाताद्गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77। = इंद्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेंद्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेंद्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।
देखें सावद्य - 5 खर कर्म आदि सावद्य कर्म नहीं करने चाहिए।
वसुनंदी श्रावकाचार/312 दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। = दिन में प्रतिमा-योग धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धांत ग्रंथों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रंथों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।312। ( सागार धर्मामृत/7/50 )।
सागार धर्मामृत/4/16 गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बंधादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16। = नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बंधन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बंधन आदि को नहीं करें।16।
लाटी संहिता/5/224,265 अश्वाद्यारोहणं मार्गे न कार्यं व्रतधारिणाम् । ईर्यासमितिसंशुद्धि: कुत: स्यात्तत्र कर्मणि।224। छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ: काष्ठसूलादिभि: कृत:। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमान्वितै:।265। = अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।
10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है
देखें श्रावक - 4.7 में पंचाध्यायी –वह श्रावक तीर्थयात्रादिक में भी अपने मन को तत्पर करे, परंतु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।