सामान्य: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 3: | Line 3: | ||
<p class="HindiText">देखें [[ नय#I.5.4 | नय - I.5.4]]-[द्रव्य का सामान्यांश हार के डोरेवत् सर्व पर्यायों में अनुस्यूत एक भाव है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ नय#I.5.4 | नय - I.5.4]]-[द्रव्य का सामान्यांश हार के डोरेवत् सर्व पर्यायों में अनुस्यूत एक भाव है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ निक्षेप#2.7 | निक्षेप - 2.7 ]][द्रव्य की प्रारंभ से लेकर अंत तक की सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नय का विषय है।] (और भी देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]])।</p> | <p class="HindiText">देखें [[ निक्षेप#2.7 | निक्षेप - 2.7 ]][द्रव्य की प्रारंभ से लेकर अंत तक की सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नय का विषय है।] (और भी देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]])।</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ | <p class="HindiText">देखें [[दर्शन_उपयोग_1#4.2 | दर्शन उपयोग 1 -4.2]]; [[ दर्शन_उपयोग_1#4.4| दर्शन उपयोग 1- 4.4]] [यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना संपूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण करने के कारण आत्मा ही सामान्य है और वही दर्शनोपयोग का विषय है।]</p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/मूल /1/121/450</span> समानभाव: सामान्यं।</span> =<span class="HindiText"> समान अर्थात एकता का भाव सामान्य है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/मूल /1/121/450</span> समानभाव: सामान्यं।</span> =<span class="HindiText"> समान अर्थात एकता का भाव सामान्य है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/वृ./1/4/121/10</span> अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् ।</span> =<span class="HindiText"> अनुवृत्ति अर्थात् एकता की बुद्धि का कारण होने से सामान्य है। (<span class="GRef"> परीक्षामुख/4/2 </span>)।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/वृ./1/4/121/10</span> अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् ।</span> =<span class="HindiText"> अनुवृत्ति अर्थात् एकता की बुद्धि का कारण होने से सामान्य है। (<span class="GRef"> परीक्षामुख/4/2 </span>)।</span></p> | ||
Line 15: | Line 15: | ||
<p class="HindiText"><strong>2. सामान्य के भेद व उनके लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. सामान्य के भेद व उनके लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> परीक्षामुख/4/3-5 </span>सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।3। सदृशप्राणामस्तिर्यक् खंडमुंडादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविकृतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5।</span> =<span class="HindiText">सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य।3। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खांडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्यरूप से रहता है। तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे घड़े में मिट्टी, क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सब में मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।5। (विशेष देखें [[ क्रम#6 | क्रम - 6]])।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> परीक्षामुख/4/3-5 </span>सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।3। सदृशप्राणामस्तिर्यक् खंडमुंडादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविकृतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5।</span> =<span class="HindiText">सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य।3। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खांडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्यरूप से रहता है। तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे घड़े में मिट्टी, क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सब में मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।5। (विशेष देखें [[ क्रम#6 | क्रम - 6]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/66/15 </span>तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम् । तच्च द्विविधं परमपरं च। तत्र परं सत्ता भावो महासमान्यमिति चोच्यते। द्रव्यत्वाद्यवांतरसामांयापेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि। एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">अनुवृत्ति प्रत्यय का कारण सामान्य है। वह दो प्रकार का है-पर सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं। क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य की अपेक्षा से महान् विषय वाला है। द्रव्यत्व केवल द्रव्य में ही रहता है और पर सामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है। द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं। (और भी देखें [[अस्तित्व]] ; [[नय#III.4.2.1 | नय | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/8/66/15 </span>तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम् । तच्च द्विविधं परमपरं च। तत्र परं सत्ता भावो महासमान्यमिति चोच्यते। द्रव्यत्वाद्यवांतरसामांयापेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि। एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">अनुवृत्ति प्रत्यय का कारण सामान्य है। वह दो प्रकार का है-पर सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं। क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य की अपेक्षा से महान् विषय वाला है। द्रव्यत्व केवल द्रव्य में ही रहता है और पर सामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है। द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं। (और भी देखें [[अस्तित्व]] ; [[नय#III.4.2.1 | नय-III 4.2.1]] )।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>3. सर्वथा स्वतंत्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>3. सर्वथा स्वतंत्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ मूल/2/12/143</span> न पश्याम: क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यंतरं तु पश्याम: ततो नैकांतहेतव:।</span> =<span class="HindiText">कोई किंचित् भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता। हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यंतर भाव अवश्य देखा जाता है। इसलिए 'सामान्य' अनेकांत हेतुक है अर्थात् अनेकांत के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सिद्धि विनिश्चय/ मूल/2/12/143</span> न पश्याम: क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यंतरं तु पश्याम: ततो नैकांतहेतव:।</span> =<span class="HindiText">कोई किंचित् भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता। हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यंतर भाव अवश्य देखा जाता है। इसलिए 'सामान्य' अनेकांत हेतुक है अर्थात् अनेकांत के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है।</span></p> | ||
Line 23: | Line 23: | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/16 </span>सर्वस्य वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/16 </span>सर्वस्य वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ प्रमाण#2.5 | प्रमाण - 2.5 ]][सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विशेष है।]</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ प्रमाण#2.5 | प्रमाण - 2.5 ]][सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विशेष है।]</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-20/324/356/2 </span>तत: स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयैकांतव्यतिरिक्तत्वात् जात्यंतरं वस्त्विति स्थितम् ।</span> =<span class="HindiText">इसका (देखें | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-20/324/356/2 </span>तत: स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयैकांतव्यतिरिक्तत्वात् जात्यंतरं वस्त्विति स्थितम् ।</span> =<span class="HindiText">इसका (देखें अगला शीर्षक) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभय रूप है किंतु जात्यंतररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता है। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,1/33/49/2 </span>)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>5. सामान्य व विशेष की स्वतंत्र सत्ता न मानने में हेतु</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>5. सामान्य व विशेष की स्वतंत्र सत्ता न मानने में हेतु</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/3 </span>ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चंतरीभूतपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो। ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अत्थि; सामण्णाणुविद्धस्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ''ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो...।''</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/3 </span>ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चंतरीभूतपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो। ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अत्थि; सामण्णाणुविद्धस्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ''ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो...।''</span></p> |
Revision as of 09:09, 21 November 2022
1. 'सामान्य' सामान्य के लक्षण
देखें द्रव्य - 1.7 [द्रव्य, सामान्य, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, सत्ता, सत्त्व, सत्, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि, अविशेष ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।]
देखें नय - I.5.4-[द्रव्य का सामान्यांश हार के डोरेवत् सर्व पर्यायों में अनुस्यूत एक भाव है।]
देखें निक्षेप - 2.7 [द्रव्य की प्रारंभ से लेकर अंत तक की सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नय का विषय है।] (और भी देखें नय - IV.1.2)।
देखें दर्शन उपयोग 1 -4.2; दर्शन उपयोग 1- 4.4 [यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना संपूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण करने के कारण आत्मा ही सामान्य है और वही दर्शनोपयोग का विषय है।]
न्यायविनिश्चय/मूल /1/121/450 समानभाव: सामान्यं। = समान अर्थात एकता का भाव सामान्य है।
न्यायविनिश्चय/वृ./1/4/121/10 अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् । = अनुवृत्ति अर्थात् एकता की बुद्धि का कारण होने से सामान्य है। ( परीक्षामुख/4/2 )।
नयचक्र वृहद्/63 सामण्णसहावदो सव्वे। =सब द्रव्यों में होना सामान्य का स्वभाव है।
स्याद्वादमंजरी/4/17/12 स्वभाव एव ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्ति...तथाहि। घट एव तावत पृथुबध्नोदराकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृत: पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्यायन् सामान्याख्यां लभते। = स्वयं ही सर्व भावों की अनुवृत्तिरूप से ज्ञान कराने वाला ऐसा सब द्रव्यों का स्वभाव ही है। उदाहरणार्थ-मोटा गोल उदर आदि आकार वाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृति के अन्य पदार्थों को भी घटरूप से और घटशब्दरूप से जानता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/2 सामान्यमिति कोऽर्थ: संसारिजीवयुक्तजीवविवक्षा नास्ति, अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति। तदपि कथमिति चेद् विवक्षाया: अभाव: सामान्यलक्षणमिति वचनात् । =यहाँ 'सामान्य जीव' इस कथन का यह तात्पर्य है कि इस (जीव के) लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीव की विवक्षा नहीं है अथवा शुद्ध अशुद्ध ज्ञान दर्शन की भी विवक्षा नहीं है। क्योंकि, 'विवक्षा का अभाव ही सामान्य का लक्षण है' ऐसा कहा है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/198/274/7 )।
न्यायदीपिका/3/76/117/2 तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्वरूपम् । तद्धि घटत्वं पृथुबुध्नोदराकार:। गोत्वमिति सास्रादिमत्त्वमेव। = 'घट घट' 'गौ गौ' इस प्रकार के अनुगत व्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोत्व' आदि अनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कंबुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोत्व' सास्न आदि स्वरूप ही है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/2 बहुव्यापकमेवैतत्सामान्यं सदृशत्वत:।2। = सदृशता से जो बहुत देश में व्यापक रहता है उसी को सामान्य कहते हैं।
वैशेषिक दर्शन/1-2/3,4 सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ।3। भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव।4। =सामान्य और विशेष बुद्धि की अपेक्षा से लिये जाते हैं।3। जैसे अनुवृत्ति अर्थात् बार-बार लौटकर प्रत्येक वस्तु के मिलने से यह विदित होता है कि भाव अर्थात् सत्ता है।
2. सामान्य के भेद व उनके लक्षण
परीक्षामुख/4/3-5 सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।3। सदृशप्राणामस्तिर्यक् खंडमुंडादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविकृतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5। =सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य।3। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खांडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्यरूप से रहता है। तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे घड़े में मिट्टी, क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सब में मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।5। (विशेष देखें क्रम - 6)।
स्याद्वादमंजरी/8/66/15 तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम् । तच्च द्विविधं परमपरं च। तत्र परं सत्ता भावो महासमान्यमिति चोच्यते। द्रव्यत्वाद्यवांतरसामांयापेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि। एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते। =अनुवृत्ति प्रत्यय का कारण सामान्य है। वह दो प्रकार का है-पर सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं। क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य की अपेक्षा से महान् विषय वाला है। द्रव्यत्व केवल द्रव्य में ही रहता है और पर सामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है। द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं। (और भी देखें अस्तित्व ; नय-III 4.2.1 )।
3. सर्वथा स्वतंत्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/2/12/143 न पश्याम: क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यंतरं तु पश्याम: ततो नैकांतहेतव:। =कोई किंचित् भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता। हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यंतर भाव अवश्य देखा जाता है। इसलिए 'सामान्य' अनेकांत हेतुक है अर्थात् अनेकांत के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है।
सिद्धि विनिश्चय/वृ./1/8/151/5 पर उद्धत (प्रमाण वार्तिक/2/126) एकत्र दृष्टो भेदो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते। न तस्माद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदत:। =किसी एक स्थान पर देखा गया भेद किसी भी प्रकार अन्यत्र नहीं देखा जाता इसलिए बुद्धि के अभेद से वह सामान्य कथंचित् भिन्न व अन्य नहीं है।
आलापपद्धति/ श्लोक नं.9 निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि।9। =विशेषों से रहित सामान्य और इसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष। कुछ गधे के सींग के समान असत् होते हैं।
4. वस्तु स्वयं सामान्य विशेषात्मक है
श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/16 सर्वस्य वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात् । =सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं।
देखें प्रमाण - 2.5 [सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विशेष है।]
कषायपाहुड़/1/1-20/324/356/2 तत: स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयैकांतव्यतिरिक्तत्वात् जात्यंतरं वस्त्विति स्थितम् । =इसका (देखें अगला शीर्षक) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभय रूप है किंतु जात्यंतररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता है। ( कषायपाहुड़/1/1,1/33/49/2 )
5. सामान्य व विशेष की स्वतंत्र सत्ता न मानने में हेतु
कषायपाहुड़/1/1-20/322/353/3 ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चंतरीभूतपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो। ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अत्थि; सामण्णाणुविद्धस्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो...।
कषायपाहुड़ 1/1-20/323/354/1 ण सामण्ण-विसेसाणं संबंधो वत्थु। =1. केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषों को छोड़कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं।
2. यदि कहा जाय कि सामान्य के सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उपपत्ति बन नहीं सकती है इसलिए सामान्य नाम का स्वतंत्र पदार्थ है, सो कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अनेक का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है और एक का ग्रहण समानानुविद्ध होता है।
3. अत: सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाले जात्यंतरभूत ज्ञानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है।
4. तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नाम का भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्य से अनुविद्ध होकर ही विशेष की उपलब्धि होती है।
5. यदि कहा जाय कि स्वतंत्र रहते हुए भी उनके संयोग का ही परिज्ञान एक ज्ञान के द्वारा होता है, सो भी कहना ठीक नहीं-(विशेष देखें द्रव्य - 5.3)।
6. सामान्य और विशेष के संबंध को अर्थात् समवाय संबंध को स्वतंत्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं-(देखें समवाय )।
6. सामान्य व विशेष में कथंचिद् भेद
धवला 13/5/5/35/234/6 विसेसादो सामण्णस्स कथंचिद पुधभूदस्स उवलंभादो। तं जहा-सामण्णमेयसंखं विसेसो अणेयसंखो। वदिरेयलक्खणो विसेसो अण्णयलक्खणं सामण्णं, आहारो विसेसो आहेयो सामण्णं, णिच्चं सामण्णं अणिच्चो विसेसो। तम्हा सामाण-विसेसाणं णत्थि एयत्तमिदि। =विशेष से सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है। इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/275 सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च।...।275। =विधिरूप वर्तना सामान्य काल कहलाता है और निषेध स्वरूप विशेष काल कहलाता है। (देखें सप्तभंगी - 3.3-स.म.)।
7. सामान्य विशेष के भेदाभेद का समन्वय
आप्तमीमांसा/34-36 सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदत:। भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुवत् ।34। विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनंतधर्मिणी। यतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभि:।35। प्रमाणगोचरौ संतौ भेदाभेदौ च संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया।36। =सामान्य रूप से देखने पर सब द्रव्य गुण कर्म आदिकों में एकत्व है और उनका भेद देखने पर उनमें भेद है। तहाँ अभेद विवक्षा में 'सामान्य' और भेद विवक्षा में 'विशेष' ये असाधारण हेतु हैं।34। अनंत धर्मों का आधारभूत जो विशेष्य उसमें सत्-रूप विशेषण की ही विवक्षा होती है, असत्-रूप की नहीं। और यह विवक्षा वक्ता की इच्छा पर निर्भर है।35। इसलिए वस्तु में भेद व अभेद दोनों ही प्रमाण गोचर होने से प्रमार्थभूत हैं। मुख्य व गौण की विवक्षा से ये दोनों स्याद्वाद मत में अविरुद्ध हैं।36।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/275 उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति।275। =इन दोनों में से किसी एक की मुख्य विवक्षा होने से कालकृत अस्ति व नास्ति ये दो विकल्प पैदा होते हैं।