अकाल मृत्यु: Difference between revisions
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<strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जिसकी भुज्यमान आयु की निर्जरा हो गयी है, किंतु अभी तक जिसके परभविक आयु का उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उस जीव का चतुर्गति से बाह्य हो जाने से अभाव प्राप्त होता है।</span></li> | <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि जिसकी भुज्यमान आयु की निर्जरा हो गयी है, किंतु अभी तक जिसके परभविक आयु का उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उस जीव का चतुर्गति से बाह्य हो जाने से अभाव प्राप्त होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> देव</strong>-<strong>नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> देव</strong>-<strong>नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/10 </span><span class="SanskritText">छेदनभेदनादिभि: शकलीकृतमूर्तोनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुत: अनपवर्त्यायुष्कत्वात्।</span> =<span class="HindiText"> छेदन, भेदन आदि के द्वारा उनका (नारकियों का) शरीर खंड-खंड हो जाता है, तो भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि, उनकी आयु घटती नहीं है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/5/8/166/11 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/4/364 </span>); (<span class="GRef"> महापुराण/10/82 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/194 </span>); (और भी देखें [[ | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/10 </span><span class="SanskritText">छेदनभेदनादिभि: शकलीकृतमूर्तोनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुत: अनपवर्त्यायुष्कत्वात्।</span> =<span class="HindiText"> छेदन, भेदन आदि के द्वारा उनका (नारकियों का) शरीर खंड-खंड हो जाता है, तो भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि, उनकी आयु घटती नहीं है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/5/8/166/11 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/4/364 </span>); (<span class="GRef"> महापुराण/10/82 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/194 </span>); (और भी देखें [[ मरण#4 | मरण#4 ]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,3,101/360/9 </span><span class="PrakritText"> देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो। </span>= <span class="HindiText">देव और नारकियों में आयु का कदलीघात नहीं होता। (और भी देखें [[ आयु#5.4 | आयु - 5.4]])।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5,3,101/360/9 </span><span class="PrakritText"> देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो। </span>= <span class="HindiText">देव और नारकियों में आयु का कदलीघात नहीं होता। (और भी देखें [[ आयु#5.4 | आयु - 5.4]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,80/321/6 </span><span class="SanskritText"> तेषामपमृत्योरसत्त्वात्। भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात्। अन्यथा बालावस्थात: प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसंगात्।</span> =<span class="HindiText"> नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता है। <br> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,80/321/6 </span><span class="SanskritText"> तेषामपमृत्योरसत्त्वात्। भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात्। अन्यथा बालावस्थात: प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसंगात्।</span> =<span class="HindiText"> नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता है। <br> |
Revision as of 22:11, 5 December 2022
- कदलीघात का लक्षण
भावपाहुड़/ मू./25 विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहणसंकिलिस्साणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिणए आऊ।12। = विष खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय होने से, तीव्र भय से, शस्त्रघात से, संक्लेशकी अधिकता से, आहार और श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से आयु क्षीण हो जाती है। (इस प्रकार से जो मरण होता है उसे कदलीघात कहते हैं) ( धवला 1/1,1,1/ गा.12/23); ( गोम्मटसार कर्मकांड/57/55 )। - बद्धायुष्क की अकाल मृत्यु संभव नहीं
धवला 10/4,2,4,39/237/5 परभवि आउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेत्ति जाणावणट्ठं ‘कमेण कालगदो’ त्ति उत्तं। परभवियाउअं बंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो त्ति उत्ते ण, णिज्जिण्णभुंजमाणाउस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो। = परभव संबंधी आयु के बँधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता, किंतु वह जितनी थी उतनी का ही वेदन करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए ‘क्रम से काल को प्राप्त होकर’ यह कहा है।
प्रश्न–परभविक आयु को बाँधकर भुज्यमान आयु का घात मानने में कौन सा दोष है ?
उत्तर–नहीं, क्योंकि जिसकी भुज्यमान आयु की निर्जरा हो गयी है, किंतु अभी तक जिसके परभविक आयु का उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उस जीव का चतुर्गति से बाह्य हो जाने से अभाव प्राप्त होता है। - देव-नारकियों की अकालमृत्यु संभव नहीं
सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/10 छेदनभेदनादिभि: शकलीकृतमूर्तोनामपि तेषां न मरणमकाले भवति। कुत: अनपवर्त्यायुष्कत्वात्। = छेदन, भेदन आदि के द्वारा उनका (नारकियों का) शरीर खंड-खंड हो जाता है, तो भी उनका अकाल में मरण नहीं होता, क्योंकि, उनकी आयु घटती नहीं है। ( राजवार्तिक/3/5/8/166/11 ); ( हरिवंशपुराण/4/364 ); ( महापुराण/10/82 ); ( त्रिलोकसार/194 ); (और भी देखें मरण#4 )।
धवला 14/5,3,101/360/9 देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो। = देव और नारकियों में आयु का कदलीघात नहीं होता। (और भी देखें आयु - 5.4)।
धवला 1/1,1,80/321/6 तेषामपमृत्योरसत्त्वात्। भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात्। अन्यथा बालावस्थात: प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसंगात्। = नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता है।
प्रश्न–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का पुनर्मरण कैसे बनेगा ?
उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयुकर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। अन्यथा जिसने बाल अवस्था के पश्चात् यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है, ऐसे जीव को भी मरण का प्रसंग आ जायेगा। - भोगभूमिजों की अकालमृत्यु संभव नहीं
देखें आयु - 5.4(असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं।)
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/190 पढमे विदिये तदिये काले जे होंति माणुसा पवरा। ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता।190। = प्रथम, द्वितीय व तृतीय काल में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्यु से रहित और एकांत सुखों से संयुक्त होते हैं।190। - चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना
देखें प्रोषधोपवास - 2.5 (अघातायुष्क मुनियों का अकाल में मरण नहीं होता)।
देखें आयु - 5.4(चरमोत्तम देहधारी अनपवर्त्त्य आयुवाले होते हैं)।
राजवार्तिक/2/53/6/157/25 अंत्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषोऽपवर्तदर्शनादव्याप्तिः।6। न वा; चरमशब्दस्योत्तमविशेषणात्वात्।7। उत्तमग्रहणमेवेति चेत; न; तदनिवृत्ते:।8। चरमग्रहणमेवेति चेत्; न; तस्योत्तमत्वप्रतिपादनार्थत्वात्।9। ...चरमदेह। इति वा केषांचित् पाठ:। एतेषां नियमेनायुरनपवर्त्यमितरेषामनियम:। = प्रश्न–उत्तम देहवाले भी अंतिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकाल मृत्यु सुनी जाती है, अत: यह लक्षण ही अव्यापी है। उत्तर–चरमशब्द उत्तम का विशेषण है, अर्थात् अंतिम उत्तम देह वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तम पद देते तो पूर्वोक्त दोष बना रहता है। यद्यपि केवल ‘चरमदेहे’ पद देने से कार्य चल जाता है, फिर भी उस चरम देह की सर्वोत्कृष्टता बताने के लिए उत्तम विशेषण दिया है। कहीं ‘चरमदेहाः’ यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती, परंतु इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के लिए यह नियम नहीं है।
तत्त्वार्थवृत्ति/2/53/110/5 चरमोऽंत्य उत्तमदेह: शरीरं येषां ते चरमोत्तमदेहा: तज्जन्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थंकरपरमदेवा ज्ञातव्या:। गुरुदत्तपांडवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपवर्त्त्यायुर्नियम इति न्यायकुमुदचंद्रोदये प्रभाचंद्रेणोक्तमस्ति। तथा चोत्तमदेवत्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्तापवर्त्त्यायुर्दर्शनात्, कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्युदर्शनात् सकलार्ध चक्रवर्तिनामप्यनपवर्त्त्यायुर्नियमो नास्ति इति राजवार्तिकालंकारे प्रोक्तमस्ति। = चरम का अर्थ है अंतिम और उत्तम का अर्थ है उत्कृष्ट। ऐसा है शरीर जिनका वे, उसी भव से मोक्ष प्राप्त करने योग्य तीर्थंकर परमदेव जानने चाहिए, अन्य नहीं; क्योंकि, चरम देही होते हुए भी गुरुदत्त, पांडव आदि का मोक्ष उपसर्ग के समय हुआ है–ऐसा श्री प्रभाचंद्र आचार्य ने न्याय-कुमुदचंद्रोदय नामक ग्रंथ में कहा है; और उत्तम देही होते हुए भी सुभौम, ब्रह्मदत्त आदि की आयु का अपवर्तन हुआ है। और कृष्ण की जरत्कुमार के बाण से अपमृत्यु हुई है। इसलिए उनकी आयु के अनपवर्त्त्यपने का नियम नहीं है, ऐसा राजवार्तिकालंकार में कहा है। - जघन्य आयु में अकालमृत्यु की संभावना व असंभावना
धवला 14/5,6,290/ पृष्ठ पंक्ति एत्थ कदलीघादम्मि वे उवदेसा, के वि आइरिया जहण्णाउअम्मि आवलियाए असंखे. भागमेत्ताणि जीवणियट्ठाणाणि लब्भंति त्ति भणंति। तं जहा–पुव्वभणिदसुहुमेइंदियपज्जत्तसव्वजहण्णाउअणिव्वत्तिट्ठाणस्स कदलीघादो णत्थि। एवं समउत्तरदुसमउत्तरादिणिव्वत्तीणं पि घादो णत्थि। पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणादो संखेज्जगुणमाउअं बंधिदूण सुहुमपज्जत्तेसुवण्णस्स अत्थि कदलीघादो (354/7)। के वि आइरिया एवं भणंतिजहण्णणिव्वत्तिट्ठाणमुवरिमआउअवियप्पेहि वि घादं गच्छदि। केवलं पि घादं गच्छदि। णवरि उवरिमआउवियप्पेहि जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमऊणादिकमेण हीयमाणं ताव गच्छदि जाव जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे ओदारिय संखेभागो सेसो त्ति। जदि पुण केवलं जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं चेव घादेदि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि–जहण्णओउक्कस्सओ चेदि (355/1)। सुट्ठु जदि थोवं घादेदि तो जहण्णियणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण संससंखे. भागस्स संखेज्जे भागे संखेज्जदिभागं वा घादेदि। जदि पुण बहुअं घादेदि तो जहण्णणिवत्तिट्ठाण संखे. भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघादेण घादेदि।(356/1)। एत्थ पढमवक्खाणं ण भद्दयं, खुद्दाभवग्गहणादो (357/1)। = यहाँ कदलीघात के विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। कितने ही आचार्य जघन्य आयु में आवलि के असंख्यातवें भाग-प्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते हैं ऐसा कहते हैं। यथा – पहले कहे गये सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त की सबसे जघन्य आयु के निर्वृत्तिस्थान का कदलीघात नहीं होता। इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निर्वृत्तियों का भी घात नहीं होता। पुन: इस जघन्य निर्वृत्तिस्थान से असंख्यातगुणी आयु का बंध करके सूक्ष्म पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीव का कदलीघात होता है।(354/7)। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं–जघन्य निर्वृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पों के साथ भी घात को प्राप्त होता है और केवल भी घात को प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है, कि उपरिम आयुविकल्पों के साथ घात को प्राप्त होता हुआ जघन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदि के क्रम से कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जघन्य निर्वृत्तिस्थान का संख्यात बहुभाग उतरकर संख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहता है। यदि पुन: केवल जघन्य निर्वृत्तिस्थान को घातता है तो वहाँ पर दो प्रकार का कदलीघात होता है–जघन्य और उत्कृष्ट यदि अति स्तोक का घात करता है, तो जघन्य निर्वृतिस्थान के संख्यात बहुभाग तक जीवित रहकर शेष संख्यातवें भाग के संख्यात बहुभाग या संख्यातवें भाग का घात करता है। यदि पुन: बहुत का घात करता है तो जघन्य निर्वृत्तिस्थान के संख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीवित रहकर संख्यात बहुभाग का कदलीघात द्वारा घात करता है।(355/1)। यहाँ पर प्रथम व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें क्षुल्लक भव का ग्रहण किया है।(357/1)। - पर्याप्त होने के अंतर्मुहूर्त काल तक अकाल मृत्यु संभव नहीं
धवला 10/4,2,4,41/240/7 पज्जत्तिसमाणिदसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं ण गदं ताव कदलीघादं ण करेदि त्ति जाणावणट्ठमंतोमुहुत्तणिद्देसो कदो। = पर्याप्तियों को पूर्ण कर चुकने के समय से लेकर जब तक अंतर्मुहुर्त नहीं बीतता है, तब तक कदलीघात नहीं करता, इस बात का ज्ञान कराने के लिए (सूत्र में) ‘अंतर्मुहूर्त’ पद का निर्देश किया है। - कदलीघात द्वारा आयु का अपवर्तन हो जाता है
धवला/10/4,2,4,41/240/9 कदलीघादेण विणा अंतोमुहूत्तकालेण परभवियमाआउअं किण्ण बज्झदे। ण, जीविदूणागदस्स आउअस्स अद्धादो अहियआवाहाए परभवियआउअस्स बंधाभावादो।
धवला 10/4,2,4,46/244/3 जीविदूणागदअंतोमुहुत्तद्धपमाणेण उवरिममंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडाउअं सव्वमेगसमएण सरिसखंडं कदलीघादेण घादिदूण घादिदसमए चेव पुणो...। = प्रश्न–कदलीघात के बिना अंतर्मुहूर्त काल द्वारा परभविक आयु क्यों नहीं बाँधी जाती।
उत्तर–नहीं, क्योंकि, जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधी से अधिक आबाधा के रहते हुए परभविक आयु का बंध नहीं होता। ... जीवित रहते हुए अंतर्मुहूर्त काल गया है उससे अर्धमात्र आगे का अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयु को एक समय में सदृश खंडपूर्वक कदलीघात से घात करने के समय में ही पुन: (परभविक आयु का बंध कर लेता है)। (और भी देखो आगे शीर्षक 9)। - अकाल मृत्यु का अस्तित्व अवश्य है
राजवार्तिक/2/53/10/158/8 अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्त्याभाव इति चेत्; न; द्रष्टत्वादाम्रफलादिवत्।10। यथा अवधारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्ट: पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त:। = प्रश्न–अप्राप्तकाल में मरण की अनुपलब्धि होने से आयु के अपवर्तन का अभाव है।
उत्तर–जैसे पयाल आदि के द्वारा आम आदि को समय से पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण काल से पहले भी उदीरणा के कारणों से आयु का अपवर्तन हो जाता है।
श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 न हि अप्राप्तकालस्य मरणाभाव: खड्गप्रहारादिभि: मरणस्य दर्शनात्। = अप्राप्तकाल मरण का अभाव नहीं है, क्योंकि, खड्ग-प्रहारादि द्वारा मरण देखा जाता है।
धवला 13/5,5,63/334/1 कदलीघादेण मरंताणमाउट्ठिदचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउट्ठिदिचरिमसमयाणं समाणाहियरणाभावादो च। = कदलीघात से मरने वाले जीवों का आयुस्थिति के अंतिम समय में मरण नहीं हो सकने से मरण और आयु के अंतिम समय का सामानाधिकरण नहीं है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/824/964/12 अकालमरणाभावोऽयुक्त: केषुचित्कर्मभूमिजेषु तस्य सतो निषेधादित्यभिप्राय:। = अकाल मरण का अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योंकि, कितने ही कर्मभूमिज मनुष्यों में अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है; क्योंकि, यहाँ सत्य पदार्थ का निषेध किया गया है। (देखें असत्य - 1.3)। - अकाल मृत्यु की सिद्धि में हेतु
राजवार्तिक/2/53/11/158/12 अकालमृत्युव्युदासार्थं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयर्थ्यम्। न चादोऽस्ति। अत आयुर्वेदसामर्थ्यादस्त्यकालमृत्यु:। दु:खप्रतीकारार्थं इति चेत; न; उभयथा दर्शनात्।12। कृतप्रणाशप्रसंग इति चेत्; न; दत्वैव फलं निवृत्ते:।13। ... विततार्द्रपटशीषवत् अयथाकालनिर्वृत्तः पाक इत्ययं विशेष:। =- आयुर्वेदशास्त्र में अकाल मृत्यु के वारण के लिए औषधिप्रयोग बताये गये हैं। क्योंकि, दवाओं के द्वारा श्लेष्मादि दोषों को बलात् निकाल दिया जाता है। अत: यदि अकाल मृत्यु न मानी जाय तो रसायनादि का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा। उसे केवल दु:खनिवृत्ति का हेतु कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, उसके दोनों ही फल देखे जाते हैं। ( श्लोकवार्तिक 5/2/53/ श्लो.2/259 व वृत्ति/262/26)
- यहाँ कृतप्रणाश की आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि, उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं। इतना विशेष है, कि जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, वही यदि इकट्टा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणा के निमित्तों के द्वारा समय के पहले ही आयु झड़ जाती है। ( श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/266/14 )।
श्लोकवार्तिक/5/2/53/2/261/16 प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत् क: पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालं वा; द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग:। = प्रश्न– - प्राप्तकाल ही खड्ग आदि के द्वारा मरण होता है। उत्तर–यहाँ कालप्राप्ति से आपका क्या तात्पर्य है–मृत्यु के काल की प्राप्ति या अपमृत्यु के काल की प्राप्ति ? यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योंकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष मानने पर खड्ग आदि के प्रहार से निरपेक्ष मृत्यु का प्रसंग आता है।
- स्वकाल व अकाल मृत्यु का समन्वय
श्लोकवार्तिक 5/2/53/2/261/18 सकलबहि:कारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः। शस्त्रसंपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्ते:। = असि-प्रहार आदि समस्त बाह्य कारणों से निरपेक्ष मृत्यु होने में जो कारण है वह मृत्यु का स्वकाल व्यवस्थापित किया गया है और शस्त्र-संपात आदि बाह्य कारणों के अन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण करने वाला अपमृत्युकाल माना जाता है।
पं.वि./3/18 यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जंतुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात्। मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदु:खभुजो भवंति।18। = इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरण का समय नियमित किया गया है उसी समय में ही प्राणी मरण को प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले ही मरता है और न पीछे ही। फिर भी मूर्खजन अपने किसी संबंधी के मरण को प्राप्त होने पर अतिशय शोक करके बहुत दु:ख के भोगने वाले होते हैं
नोट–(बाह्य कारणों से निरपेक्ष और सापेक्ष होने से ही काल व अकाल मृत्यु में भेद है, वास्तव में इनमें कोई जातिभेद नहीं है। काल की अपेक्षा भी मृत्यु के नियत काल से पहले मरण हो जाने को जो अकाल मृत्यु कहा जाता है वह केवल अल्पज्ञता के कारण ही समझना चाहिए, वास्तव में कोई भी मृत्यु नियतकाल से पहले नहीं होती; क्योंकि, प्रत्यक्षरूप से भविष्य को जानने वाले तो बाह्य निमित्तों तथा आयुकर्म के अपवर्तन को भी नियत रूप में ही देखते हैं।)