कल्की: Difference between revisions
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<p class="HindiText">जैनागम कल्की राजा नाम के राजा का उल्लेख जैनयतियों पर अत्याचार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसके व इसके पिता के विभिन्न नाम आगम में उपलब्ध होते हैं और इसी प्रकार इनके समय का भी। फिर भी वह-लगभग गुप्त वंश के पश्चात् प्राप्त होता है। इतिहासकारों से पूछने पर पता चलता है कि भारत में गुप्त साम्राज्य के पश्चात् एक बर्बर जंगली जाति का राज्य हुआ करता था, जिसका नाम ‘हून’ था। ई॰ ४३१-५४६ के १२५ वर्ष के राज्य में एक के पीछे एक चार राजा हुए। सभी अत्यन्त अत्याचारी थे। इस प्रकार आगम व इतिहास का मिलान करने से प्रतीत होता है कि कल्की नाम का कोई राजा न था। बल्कि उपरोक्त चारों राजा ही अपने अत्याचारों के कारण कल्की नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार उनके विभिन्न नामों व समयों का सम्मेल बैठ जाता है।– देखें - [[ इतिहास#3.2 | इतिहास / ३ / २ ]]</p> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">आगम की अपेक्षा कल्की निर्देश</strong></span><strong> <br></strong>ति.प./४/१५०९-१५१० <span class="PrakritGatha">तत्तो कक्की जादो इंदसुतो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो।१५०९। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेसुं। वोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो।१५१०। </span>=<span class="HindiText">इस गुप्त राज्य (वी. नि. ९५८) के पश्चात् इन्द्र का सुत कल्की उत्पन्न हुआ। इसका नाम चतुर्मुख, आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४२ वर्ष प्रमाण था।१५०९। आचारांगधरों (वी. नि. ६८३) के २७५ वर्ष पश्चात् (वी. नि. ९५८ में) कल्की को नरपति का पट्ट बाँधा गया।१५१०।</span><br /> | |||
ह.पु./६०/४९१-४९२ <span class="PrakritText">भद्रबाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च वर्षाणि कालविद्भिरूदाह्रतम् ।४९१। द्विचत्वारिंशदेवात: कल्किराजस्य राजता।....।४९२। </span>= <span class="HindiText">फिर २४२ वर्ष तक बाणभट्ट (शक वंश) का, फिर २२१ तक गुप्तों का और इसके बाद (वी. नि. ९५८ में) ४२ वर्ष तक कल्कि राजा का राज्य होगा।</span><br /> | |||
म.पु./७६/३९७-४००<span class="SanskritText"> दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानित:।३९७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपते:। पापी तनूज: पृथिवीसुन्दर्या दुर्जनादिम:।३९८। चतुर्मुखाह्वय: कल्किराजो वेजितभूतल:। उत्पत्स्यते माघसंवत्सरयोगसमागमे।३९९। समानां सप्ततिस्तस्य परमायु: प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिण:।४००। </span>=<span class="HindiText">दु:षमाकाल (वी. नि. ३) के १००० वर्ष बीतने पर (वी. नि. १००३ में) धर्म की हानि होने से पाटलिपुत्र नामक नगर में राजा शिशुपाल की रानी पृथिवीसुन्दरी के चतुर्मुख नाम का एक ऐसा पापी पुत्र होगा, जो कल्कि नाम से प्रसिद्ध होगा। यह कल्की मघा नाम के संवत्सर में होगा। इसकी उत्कृष्ट आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४० वर्ष तक रहेगा।</span><br /> | |||
त्रि.सा./८५०-८५१ <span class="PrakritText">पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।८५०। सो उम्मग्गाहिंमुहो सदरिवासपरमाऊ। चालीसरज्जओ जिदभूमी पुच्छइसमंतिगणं।८५१</span>। =<span class="HindiText">वीर भगवान् की मुक्ति के ६०५ वर्ष व ५ महीने जाने पर शक राजा हो है। उसके ऊपर ३९४ वर्ष ७ महीने जाने पर (वी. नि. १००० में) कल्की होते है।८५०। वह उन्मार्ग के सम्मुख है। उसका नाम चतुर्मुख तथा आयु ७० वर्ष है। ४० वर्ष प्रमाण राज्य करै है।८५१।<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="2" id="2"><strong> इतिहास की अपेक्षा हून वंश </strong><br /> | |||
यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके सरदारों ने ई॰ ४३२ में गुप्त राजाओं पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त करके पीछे भगा दिया परन्तु ये बराबर अपनी शक्ति बढ़ाते रहे, यहाँ तक कि ई॰ ५०० में उनके सरदार तोरमाणने गुप्त राज्य को कमज़ोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रान्त पर अपना अधिकार जमा लिया। फिर र्इ॰ ५०७ में उसके पुत्र मिहिरकुल ने भानुगुप्त को परास्त करके गुप्त वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसने प्रजा पर बड़े अत्याचार किये जिससे तंग आकर एक हिन्दू सरदार विष्णुधर्म ने बिखरी हुई हिन्दू शक्ति को संगठित करके ई॰ ५२८ में मिहिरकुल को परास्त करके भगा दिया। उसने काश्मीर में जाकर शरण ली और वहाँ ही ई॰ ५४० में उसकी मृत्यु हो गयी। (क.पा./पु.१ प्र.५४/पं॰ महेन्द्र) यह विष्णु यशोधर्म कट्टर वैष्णव था। इसने हिन्दू धर्म का तो उपकार किया परन्तु जैन साधुओं व जैन मन्दिरों पर बड़ा अत्याचार किया, इसलिए जैनियों में वह कल्की नाम से प्रसिद्ध हुआ और हिन्दू धर्म में उसे अन्तिम अवतार माना गया। (न्यायावतार/प्र. २ सतीशचन्द विद्याभूषण)। </li> | |||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> आगम व इतिहास के निर्देशों का समन्वय</strong><br /> | |||
आगम के उपरोक्त उद्धरणों में कल्की का नाम चतुर्मुख बताया गया है पर उसके पिता का नाम एक स्थान पर इन्द्र और दूसरे स्थान पर शिशुपाल कहा गया है। हो सकता है कि शिशुपाल ही इन्द्र नाम से विख्यात हो। इधर इतिहास में तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल कहा गया है। प्रतीत होता है कि तोरमाण ही इन्द्र या शिशुपाल है और मिहिरकुल ही वह चतुर्मुख है। समय की अपेक्षा भी आगमकारों का कुछ मतभेद है। तिल्लोयपण्णति व हरिवंशपुराण की अपेक्षा उसका काल वी० नि० ९५८-१००० (ई० ४३१-४७३) और महापुराण व त्रिलोकसार की अपेक्षा वह वी० नि० १०३०-१०७० (ई० ५०३–५३३) है। इन दोनों मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं है। पहिली में कल्की का राज्यकाल मिलाकर भगवान् के निर्वाण के पश्चात् १००० वर्ष की गणना करके दिखाई है अर्थात् निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् धर्म व संघ का लोप दर्शाया है और दूसरी मान्यता में वी० नि० १००० में कल्की का जन्म बताकर ३० वर्ष पश्चात् उसे राज्यारूढ कराया गया है। दोनों ही मान्यताओं में उसका राज्यकाल ४० वर्ष बताया गया है। इतिहास से मिलान करने पर दूसरी मान्यता ठीक जँचती है, क्योंकि मिहिरकुल का काल ई० ५०७–५२८ बताया गया है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> कल्की के अत्याचार </strong> </span><br /> | |||
ति.प./४/१५११ <span class="PrakritGatha">अह सहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण। सुक्कं जाचादि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ।१५११।</span>=<span class="HindiText">तदनन्तर वह कल्की प्रयत्नपूर्वक अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ को प्राप्त होता हुआ मुनियों के आहार में से भी प्रथम ग्रास को शुल्क के रूप में माँगने लगा।१५११। (ति.प./१५२३-१५२९) (म.पु./७६/४१०) (त्रि.सा./८५३, ८५९)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> कल्की की मृत्यु</strong></span><br /> | |||
ति.प./४/१५१२-१५१३<span class="PrakritGatha"> दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अंतराणं पि। गच्छंति आहिणाणं अप्पजइ तेसु एक्कम्मि।१५१२। अह को वि असुरदेवो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं। णादूणं तं कक्किं मारेदि हु धम्मदोहि त्ति।१५१३।</span>=<span class="HindiText">तब श्रमण अग्रपिण्ड को शुल्क के रूप में देकर और ‘यह अन्तरायों का काल है’ ऐसा समझकर (निराहार) चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है।१५१२। इसके पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञान से मुनिगण के उपसर्ग को जानकर और धर्म का द्रोही मानकर उस कल्की को मार डालता है।१५१३। (ति.प./४/१५२६-१५३३) (म.पु./७६/४११-४१४) (त्रि.सा./८५४)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> कल्की के पश्चात् पुन: धर्म की स्थापना</strong></span><br /> | |||
ति.प./४/१५१४-१५१५<span class="PrakritGatha"> कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्खत्ति णमदि तच्चरणे। तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज्ज त्ति।१५१४। तत्तो दोवे वासा सम्मद्धम्मो पयट्टदि जणाणं। कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे।१५१५।</span>=<span class="HindiText">तब अजितंजय नाम का उस कल्की का पुत्र ‘रक्षा करो’ इस प्रकार कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार करता है। तब वह देव ‘धर्मपूर्वक राज्य करो’ इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है।१५१४। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगों में समीचीन धर्मप्रवृत्ति रहती है, फिर क्रमश: काल के माहात्म्य से वह प्रतिदिन हीन होती जाती है।१५१५। (म.पु./७६/४२८-४३०) (त्रि.सा./८५५-८५६)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> पंचम काल में कल्कियों व उपकल्कियों का प्रमाण</strong></span><br /> | |||
ति.प./४/१५१६, १५३४, १५३५ <span class="PrakritGatha">एवं वस्ससहस्से पुह पुह कक्की हवइ एक्केक्को। पंचसयवच्छरयसुं एक्केक्को तह य उवकक्की।१५१६। एवमिगवीस कक्की उवकक्की तेत्तिया य घम्माए। जम्मंति धम्मदोहा जलणिहिउवमाणआउजुदो।१५३४। वासतए अइमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो। सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो।१५३५।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार १००० वर्षों के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा ५०० वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है।१५१६। इस प्रकार २१ कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोह से एक सागरोपम आयु से युक्त होकर धर्मा पृथिवी (प्रथम नरक) में जन्म लेते हैं।१५३४। इसके पश्चात् ३ वर्ष ८ मास और एक पक्ष के बीतने पर महाविषम वह अतिदुषमा नाम का छठा काल प्रविष्ट होता है।१५३५। (म.पु./७६/४३१-४४१) (त्रि.सा./८५७-८५९)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> कल्की के समय चतु:संघ की स्थिति</strong> </span><br /> | |||
ति.प./४/१५२१, १५३० <span class="PrakritGatha">वीरांगजाभिधाणो तक्काले मुणिवरो भवे एक्को। सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी।१५२१। ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसंगपहुदीणं। जावज्जीवं छंडिय सण्णासं ते करंति य।१५३०।</span>=<span class="HindiText">उस समय वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त (अग्निल और पंगुश्री नाम श्रावक युगल (श्रावक-श्राविका) होते हैं।१५२१। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रह को जन्म पर्यन्त छोड़कर संन्यास (समाधिमरण) को ग्रहण करते हैं।१५३०। (म.पु./७६/४३२-४३६) (त्रि.सा./८५८-८५९)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="9" id="9">प्रत्येक कल्की के काल में एक अवधिज्ञानी मुनि</strong></span><br /> | |||
ति.प./४/१५१७ <span class="PrakritText">कक्की पडि एक्केक्कं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि संघा य चादुवण्णा थोवा जायंति तक्काले।१५१७।</span>=<span class="HindiText">प्रत्येक कल्की के प्रति एक-एक दुष्षमाकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाता है।१५१७।’’ </span></li> | |||
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Revision as of 21:16, 24 December 2013
जैनागम कल्की राजा नाम के राजा का उल्लेख जैनयतियों पर अत्याचार करने के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इसके व इसके पिता के विभिन्न नाम आगम में उपलब्ध होते हैं और इसी प्रकार इनके समय का भी। फिर भी वह-लगभग गुप्त वंश के पश्चात् प्राप्त होता है। इतिहासकारों से पूछने पर पता चलता है कि भारत में गुप्त साम्राज्य के पश्चात् एक बर्बर जंगली जाति का राज्य हुआ करता था, जिसका नाम ‘हून’ था। ई॰ ४३१-५४६ के १२५ वर्ष के राज्य में एक के पीछे एक चार राजा हुए। सभी अत्यन्त अत्याचारी थे। इस प्रकार आगम व इतिहास का मिलान करने से प्रतीत होता है कि कल्की नाम का कोई राजा न था। बल्कि उपरोक्त चारों राजा ही अपने अत्याचारों के कारण कल्की नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार उनके विभिन्न नामों व समयों का सम्मेल बैठ जाता है।– देखें - इतिहास / ३ / २
- आगम की अपेक्षा कल्की निर्देश
ति.प./४/१५०९-१५१० तत्तो कक्की जादो इंदसुतो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो।१५०९। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेसुं। वोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो।१५१०। =इस गुप्त राज्य (वी. नि. ९५८) के पश्चात् इन्द्र का सुत कल्की उत्पन्न हुआ। इसका नाम चतुर्मुख, आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४२ वर्ष प्रमाण था।१५०९। आचारांगधरों (वी. नि. ६८३) के २७५ वर्ष पश्चात् (वी. नि. ९५८ में) कल्की को नरपति का पट्ट बाँधा गया।१५१०।
ह.पु./६०/४९१-४९२ भद्रबाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च वर्षाणि कालविद्भिरूदाह्रतम् ।४९१। द्विचत्वारिंशदेवात: कल्किराजस्य राजता।....।४९२। = फिर २४२ वर्ष तक बाणभट्ट (शक वंश) का, फिर २२१ तक गुप्तों का और इसके बाद (वी. नि. ९५८ में) ४२ वर्ष तक कल्कि राजा का राज्य होगा।
म.पु./७६/३९७-४०० दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानित:।३९७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपते:। पापी तनूज: पृथिवीसुन्दर्या दुर्जनादिम:।३९८। चतुर्मुखाह्वय: कल्किराजो वेजितभूतल:। उत्पत्स्यते माघसंवत्सरयोगसमागमे।३९९। समानां सप्ततिस्तस्य परमायु: प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिण:।४००। =दु:षमाकाल (वी. नि. ३) के १००० वर्ष बीतने पर (वी. नि. १००३ में) धर्म की हानि होने से पाटलिपुत्र नामक नगर में राजा शिशुपाल की रानी पृथिवीसुन्दरी के चतुर्मुख नाम का एक ऐसा पापी पुत्र होगा, जो कल्कि नाम से प्रसिद्ध होगा। यह कल्की मघा नाम के संवत्सर में होगा। इसकी उत्कृष्ट आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४० वर्ष तक रहेगा।
त्रि.सा./८५०-८५१ पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।८५०। सो उम्मग्गाहिंमुहो सदरिवासपरमाऊ। चालीसरज्जओ जिदभूमी पुच्छइसमंतिगणं।८५१। =वीर भगवान् की मुक्ति के ६०५ वर्ष व ५ महीने जाने पर शक राजा हो है। उसके ऊपर ३९४ वर्ष ७ महीने जाने पर (वी. नि. १००० में) कल्की होते है।८५०। वह उन्मार्ग के सम्मुख है। उसका नाम चतुर्मुख तथा आयु ७० वर्ष है। ४० वर्ष प्रमाण राज्य करै है।८५१।
- इतिहास की अपेक्षा हून वंश
यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके सरदारों ने ई॰ ४३२ में गुप्त राजाओं पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था। यद्यपि स्कन्दगुप्त ने उन्हें परास्त करके पीछे भगा दिया परन्तु ये बराबर अपनी शक्ति बढ़ाते रहे, यहाँ तक कि ई॰ ५०० में उनके सरदार तोरमाणने गुप्त राज्य को कमज़ोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रान्त पर अपना अधिकार जमा लिया। फिर र्इ॰ ५०७ में उसके पुत्र मिहिरकुल ने भानुगुप्त को परास्त करके गुप्त वंश को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसने प्रजा पर बड़े अत्याचार किये जिससे तंग आकर एक हिन्दू सरदार विष्णुधर्म ने बिखरी हुई हिन्दू शक्ति को संगठित करके ई॰ ५२८ में मिहिरकुल को परास्त करके भगा दिया। उसने काश्मीर में जाकर शरण ली और वहाँ ही ई॰ ५४० में उसकी मृत्यु हो गयी। (क.पा./पु.१ प्र.५४/पं॰ महेन्द्र) यह विष्णु यशोधर्म कट्टर वैष्णव था। इसने हिन्दू धर्म का तो उपकार किया परन्तु जैन साधुओं व जैन मन्दिरों पर बड़ा अत्याचार किया, इसलिए जैनियों में वह कल्की नाम से प्रसिद्ध हुआ और हिन्दू धर्म में उसे अन्तिम अवतार माना गया। (न्यायावतार/प्र. २ सतीशचन्द विद्याभूषण)। - आगम व इतिहास के निर्देशों का समन्वय
आगम के उपरोक्त उद्धरणों में कल्की का नाम चतुर्मुख बताया गया है पर उसके पिता का नाम एक स्थान पर इन्द्र और दूसरे स्थान पर शिशुपाल कहा गया है। हो सकता है कि शिशुपाल ही इन्द्र नाम से विख्यात हो। इधर इतिहास में तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल कहा गया है। प्रतीत होता है कि तोरमाण ही इन्द्र या शिशुपाल है और मिहिरकुल ही वह चतुर्मुख है। समय की अपेक्षा भी आगमकारों का कुछ मतभेद है। तिल्लोयपण्णति व हरिवंशपुराण की अपेक्षा उसका काल वी० नि० ९५८-१००० (ई० ४३१-४७३) और महापुराण व त्रिलोकसार की अपेक्षा वह वी० नि० १०३०-१०७० (ई० ५०३–५३३) है। इन दोनों मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं है। पहिली में कल्की का राज्यकाल मिलाकर भगवान् के निर्वाण के पश्चात् १००० वर्ष की गणना करके दिखाई है अर्थात् निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् धर्म व संघ का लोप दर्शाया है और दूसरी मान्यता में वी० नि० १००० में कल्की का जन्म बताकर ३० वर्ष पश्चात् उसे राज्यारूढ कराया गया है। दोनों ही मान्यताओं में उसका राज्यकाल ४० वर्ष बताया गया है। इतिहास से मिलान करने पर दूसरी मान्यता ठीक जँचती है, क्योंकि मिहिरकुल का काल ई० ५०७–५२८ बताया गया है।
- कल्की के अत्याचार
ति.प./४/१५११ अह सहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण। सुक्कं जाचादि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ।१५११।=तदनन्तर वह कल्की प्रयत्नपूर्वक अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ को प्राप्त होता हुआ मुनियों के आहार में से भी प्रथम ग्रास को शुल्क के रूप में माँगने लगा।१५११। (ति.प./१५२३-१५२९) (म.पु./७६/४१०) (त्रि.सा./८५३, ८५९)।
- कल्की की मृत्यु
ति.प./४/१५१२-१५१३ दादूणं पिंडग्गं समणा कालो य अंतराणं पि। गच्छंति आहिणाणं अप्पजइ तेसु एक्कम्मि।१५१२। अह को वि असुरदेवो ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं। णादूणं तं कक्किं मारेदि हु धम्मदोहि त्ति।१५१३।=तब श्रमण अग्रपिण्ड को शुल्क के रूप में देकर और ‘यह अन्तरायों का काल है’ ऐसा समझकर (निराहार) चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है।१५१२। इसके पश्चात् कोई असुरदेव अवधिज्ञान से मुनिगण के उपसर्ग को जानकर और धर्म का द्रोही मानकर उस कल्की को मार डालता है।१५१३। (ति.प./४/१५२६-१५३३) (म.पु./७६/४११-४१४) (त्रि.सा./८५४)।
- कल्की के पश्चात् पुन: धर्म की स्थापना
ति.प./४/१५१४-१५१५ कक्किसुदो अजिदंजय णामो रक्खत्ति णमदि तच्चरणे। तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेज्ज त्ति।१५१४। तत्तो दोवे वासा सम्मद्धम्मो पयट्टदि जणाणं। कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे।१५१५।=तब अजितंजय नाम का उस कल्की का पुत्र ‘रक्षा करो’ इस प्रकार कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार करता है। तब वह देव ‘धर्मपूर्वक राज्य करो’ इस प्रकार कहकर उसकी रक्षा करता है।१५१४। इसके पश्चात् दो वर्ष तक लोगों में समीचीन धर्मप्रवृत्ति रहती है, फिर क्रमश: काल के माहात्म्य से वह प्रतिदिन हीन होती जाती है।१५१५। (म.पु./७६/४२८-४३०) (त्रि.सा./८५५-८५६)।
- पंचम काल में कल्कियों व उपकल्कियों का प्रमाण
ति.प./४/१५१६, १५३४, १५३५ एवं वस्ससहस्से पुह पुह कक्की हवइ एक्केक्को। पंचसयवच्छरयसुं एक्केक्को तह य उवकक्की।१५१६। एवमिगवीस कक्की उवकक्की तेत्तिया य घम्माए। जम्मंति धम्मदोहा जलणिहिउवमाणआउजुदो।१५३४। वासतए अइमासे पक्खे गलिदम्मि पविसदे तत्तो। सो अदिदुस्समणामो छट्टो कालो महाविसमो।१५३५।=इस प्रकार १००० वर्षों के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा ५०० वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है।१५१६। इस प्रकार २१ कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोह से एक सागरोपम आयु से युक्त होकर धर्मा पृथिवी (प्रथम नरक) में जन्म लेते हैं।१५३४। इसके पश्चात् ३ वर्ष ८ मास और एक पक्ष के बीतने पर महाविषम वह अतिदुषमा नाम का छठा काल प्रविष्ट होता है।१५३५। (म.पु./७६/४३१-४४१) (त्रि.सा./८५७-८५९)।
- कल्की के समय चतु:संघ की स्थिति
ति.प./४/१५२१, १५३० वीरांगजाभिधाणो तक्काले मुणिवरो भवे एक्को। सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी।१५२१। ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसंगपहुदीणं। जावज्जीवं छंडिय सण्णासं ते करंति य।१५३०।=उस समय वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त (अग्निल और पंगुश्री नाम श्रावक युगल (श्रावक-श्राविका) होते हैं।१५२१। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रह को जन्म पर्यन्त छोड़कर संन्यास (समाधिमरण) को ग्रहण करते हैं।१५३०। (म.पु./७६/४३२-४३६) (त्रि.सा./८५८-८५९)।
- <a name="9" id="9">प्रत्येक कल्की के काल में एक अवधिज्ञानी मुनि
ति.प./४/१५१७ कक्की पडि एक्केक्कं दुस्समसाहुस्स ओहिणाणं पि संघा य चादुवण्णा थोवा जायंति तक्काले।१५१७।=प्रत्येक कल्की के प्रति एक-एक दुष्षमाकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाता है।१५१७।’’