काम: Difference between revisions
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ज्ञा./२१/१६/२२७/१५<span class="SanskritText"> क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली सकलजगद्वशीकरणसमर्थ:–इति चिन्त्यते तदायमात्मैव कामोक्तिविषयतामनुभवतीति कामतत्त्वम्। </span>=<span class="HindiText">क्षोभण कहिए चित्त के चलने आदि मुद्राविशेषों में शाली कहिए चतुर है, अर्थात् समस्त जगत् के चित्त को चलायमान करने वाले आकारों को प्रगट करने वाला है। इस प्रकार समस्त जगत् को वशीभूत करने वाले काम की कल्पना करके अन्यमती जो ध्यान करते हैं, सो यह आत्मा ही काम की उक्ति कहिये नाम व संज्ञा को धारण करने वाला है। (ध्यान के प्रकरण में यह काम तत्त्व का वर्णन है)। </span><br /> | |||
स.सा./ता.वृ./४ <span class="SanskritText">कामशब्देन स्पर्शरसनेन्द्रियद्वयं। </span>=<span class="HindiText">काम शब्द से स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियों के विषय जानना।<br /> | |||
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मू.आ./मू./११३८<span class="PrakritGatha"> कामा दुवे तऊ भोग इंदयत्था विदूहिं पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया।११३८।</span> =<span class="HindiText">दो इन्द्रियों के विषय काम हैं, तीन इन्द्रियों के विषय भोग हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है। रस और स्पर्श तो काम हैं और गन्ध, रूप व शब्द ये तीन भोग हैं, ऐसा कहा है। (स.सा./ता.वृ./११३८)<br /> | |||
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भ.आ./मू./८९३-८९५ <span class="PrakritGatha">पढमे सोयदि वेगे दट्ठुंतं इच्छदे विदियवेगे। णिस्सदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि।८९३। उज्झदि पंचमवेगे अंगं छठ्ठे ण रोचदे भत्तं। मुच्छिज्जदि सत्तमए उम्मत्तो होइ अट्ठमए।८९४। णवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहिं मुच्चदि मदंधो। संकप्पवसेण पुणो वेग्ग तिव्वा व मंदा वा।८९५। </span>=<span class="HindiText">काम के उद्दीप्त होने पर </span> | |||
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<li><span class="HindiText"> शरीर का दग्ध होने लगना;</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> भोजन न रूचना; </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> महामूर्च्छा; </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> उन्मत्तवत् चेष्टा; </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> प्राणों में सन्देह; </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> अन्त में मरण। इस प्रकार काम के ये दश वेग होते हैं। इनसे व्याप्त हुआ जीव यथार्थ तत्त्व को नहीं देखता। (ज्ञा./११/२९-३१), (भा.पा./टी./९६/२४६/पर उद्धृत), (अन.ध./४/६६/३६३ पर उद्धृत), (ला.सं./२/११४-१२७)<br /> | |||
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Revision as of 21:17, 24 December 2013
- काम व काम तत्त्व के लक्षण
न्या.द./४-१/३ में न्यायवार्तिक से उद्धृत/पृ.२३० काम: स्त्रीगतोऽभिलाष:। =स्त्री-पुरूष के परस्पर संयोग की अभिलाषा काम है।
ज्ञा./२१/१६/२२७/१५ क्षोभणादिमुद्राविशेषशाली सकलजगद्वशीकरणसमर्थ:–इति चिन्त्यते तदायमात्मैव कामोक्तिविषयतामनुभवतीति कामतत्त्वम्। =क्षोभण कहिए चित्त के चलने आदि मुद्राविशेषों में शाली कहिए चतुर है, अर्थात् समस्त जगत् के चित्त को चलायमान करने वाले आकारों को प्रगट करने वाला है। इस प्रकार समस्त जगत् को वशीभूत करने वाले काम की कल्पना करके अन्यमती जो ध्यान करते हैं, सो यह आत्मा ही काम की उक्ति कहिये नाम व संज्ञा को धारण करने वाला है। (ध्यान के प्रकरण में यह काम तत्त्व का वर्णन है)।
स.सा./ता.वृ./४ कामशब्देन स्पर्शरसनेन्द्रियद्वयं। =काम शब्द से स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रियों के विषय जानना।
- काम व भोग में अन्तर
मू.आ./मू./११३८ कामा दुवे तऊ भोग इंदयत्था विदूहिं पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया।११३८। =दो इन्द्रियों के विषय काम हैं, तीन इन्द्रियों के विषय भोग हैं, ऐसा विद्वानों ने कहा है। रस और स्पर्श तो काम हैं और गन्ध, रूप व शब्द ये तीन भोग हैं, ऐसा कहा है। (स.सा./ता.वृ./११३८)
- काम के दस विकार
भ.आ./मू./८९३-८९५ पढमे सोयदि वेगे दट्ठुंतं इच्छदे विदियवेगे। णिस्सदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि।८९३। उज्झदि पंचमवेगे अंगं छठ्ठे ण रोचदे भत्तं। मुच्छिज्जदि सत्तमए उम्मत्तो होइ अट्ठमए।८९४। णवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहिं मुच्चदि मदंधो। संकप्पवसेण पुणो वेग्ग तिव्वा व मंदा वा।८९५। =काम के उद्दीप्त होने पर- प्रथम चिंता होती है;
- तत्पश्चात् स्त्री को देखने की इच्छा; और इसी प्रकार क्रम से
- दीर्घ नि:श्वास,
- ज्वर,
- शरीर का दग्ध होने लगना;
- भोजन न रूचना;
- महामूर्च्छा;
- उन्मत्तवत् चेष्टा;
- प्राणों में सन्देह;
- अन्त में मरण। इस प्रकार काम के ये दश वेग होते हैं। इनसे व्याप्त हुआ जीव यथार्थ तत्त्व को नहीं देखता। (ज्ञा./११/२९-३१), (भा.पा./टी./९६/२४६/पर उद्धृत), (अन.ध./४/६६/३६३ पर उद्धृत), (ला.सं./२/११४-१२७)