अगृहीत मिथ्यात्व: Difference between revisions
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<p class="SanskritText">उदये दृष्टिमोहस्य गृहीतमगृहीतकम् । | <p class="SanskritText">उदये दृष्टिमोहस्य गृहीतमगृहीतकम् । | ||
जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वं तत् त्रिधा विदु: ।।१४।। | जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वं तत् त्रिधा विदु: ।।१४।।</p> | ||
अन्वय :- दृष्टिमोहस्य उदये (सति) जातं तत् मिथ्यात्वं गृहीतं अगृहीतकं सांशयिकं च इति त्रिधा विदु: ।</p> | <p class="SanskritText">अन्वय :- दृष्टिमोहस्य उदये (सति) जातं तत् मिथ्यात्वं गृहीतं अगृहीतकं सांशयिकं च इति त्रिधा विदु: ।</p> | ||
<p class="HindiText">सरलार्थ :- दर्शनमोहनीय कर्म का उदय | <p class="HindiText">सरलार्थ :- दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होने पर उत्पन्न हुआ यह मिथ्यात्व गृहीत, अगृहीत और सांशयिक ऐसा तीन प्रकार का जानना चाहिए ।</p> | ||
<ul><li><span class="GRef">(भावपाहुड - गाथा 139)</span></li></ul> | <ul><li><span class="GRef">(भावपाहुड - गाथा 139)</span></li></ul> | ||
<p class="SanskritText">इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ꠰ | <p class="SanskritText">इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ꠰ | ||
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ꠰꠰139꠰꠰</p> | भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ꠰꠰139꠰꠰</p> | ||
<p class="HindiText">गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व दोनों तरह के मिथ्यात्व के स्थानभूत इस संसार में कुनय और कुशास्त्र से मोहित होकर यह जीव अनादिकाल से भ्रमण कर रहा ꠰ सो हे धीर ! इसका विचार कर ꠰ यह काल यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के रूप में घूमता ही रहता है ꠰ इस समय यह अवसर्पिणी काल चल रहा है, मायने घटता समय, यह पंचम काल है, इसके बाद छठा काल आयेगा ꠰ छठे काल के अंत में प्रलय मचेगा सो जो जीव बचे रहेंगे उनसे फिर सृष्टि चलेगी ꠰ फिर छठा काल आयेगा, फिर 5वां फिर चौथा, प्रत्येक चौथे काल में तीर्थंकर हुआ करते हैं, फिर तीसरा, दूसरा, पहला इनमें भोगभूमि चलती है, फिर घटती होगी, फिर बढ़ती होगी, ऐसे कालों में यह जीव अनंतकाल तक भ्रमण करता रहा ꠰ सो हे धीर वीर ! तू विचार कर कि मुझे मिथ्यात्व में ही पगना है या संसार के संकटों से छूटना है ꠰ <strong>गृहीत मिथ्यात्व तो कहलाया कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म इनकी सेवा करना और अगृहीत मिथ्यात्व कहलाया देह में आपाबुद्धि करना कि यह देह मैं हूं, कषाय ही तो मैं हूं, उनमें एकत्व बुद्धि करना, यह अगृहीत मिथ्यात्व है </strong>꠰ तो दोनों मिथ्यात्व के वश होकर इस जीव ने अनंतकाल तक संसार में भ्रमण किया ꠰ अत: भवभ्रमण मत कर, ऐसी इसमें शिक्षा दी गई है ꠰</p> | <p class="HindiText">गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व दोनों तरह के मिथ्यात्व के स्थानभूत इस संसार में कुनय और कुशास्त्र से मोहित होकर यह जीव अनादिकाल से भ्रमण कर रहा ꠰ सो हे धीर ! इसका विचार कर ꠰ यह काल यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के रूप में घूमता ही रहता है ꠰ इस समय यह अवसर्पिणी काल चल रहा है, मायने घटता समय, यह पंचम काल है, इसके बाद छठा काल आयेगा ꠰ छठे काल के अंत में प्रलय मचेगा सो जो जीव बचे रहेंगे उनसे फिर सृष्टि चलेगी ꠰ फिर छठा काल आयेगा, फिर 5वां फिर चौथा, प्रत्येक चौथे काल में तीर्थंकर हुआ करते हैं, फिर तीसरा, दूसरा, पहला इनमें भोगभूमि चलती है, फिर घटती होगी, फिर बढ़ती होगी, ऐसे कालों में यह जीव अनंतकाल तक भ्रमण करता रहा ꠰ सो हे धीर वीर ! तू विचार कर कि मुझे मिथ्यात्व में ही पगना है या संसार के संकटों से छूटना है ꠰ <strong>"गृहीत मिथ्यात्व" तो कहलाया कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म इनकी सेवा करना और अगृहीत मिथ्यात्व कहलाया देह में आपाबुद्धि करना कि यह देह मैं हूं, कषाय ही तो मैं हूं, उनमें एकत्व बुद्धि करना, यह "अगृहीत मिथ्यात्व" है </strong>꠰ तो दोनों मिथ्यात्व के वश होकर इस जीव ने अनंतकाल तक संसार में भ्रमण किया ꠰ अत: भवभ्रमण मत कर, ऐसी इसमें शिक्षा दी गई है ꠰</p> | ||
<ul><li><span class="HindiText"> देखें [[ मिथ्यात्व | मिथ्यात्व]]।</li></ul></span> | <ul><li><span class="HindiText"> देखें [[ मिथ्यात्व | मिथ्यात्व]]।</li></ul></span> | ||
Revision as of 22:10, 10 December 2022
- (योगसार - जीव-अधिकार गाथा 14)
दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद -
उदये दृष्टिमोहस्य गृहीतमगृहीतकम् । जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वं तत् त्रिधा विदु: ।।१४।।
अन्वय :- दृष्टिमोहस्य उदये (सति) जातं तत् मिथ्यात्वं गृहीतं अगृहीतकं सांशयिकं च इति त्रिधा विदु: ।
सरलार्थ :- दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होने पर उत्पन्न हुआ यह मिथ्यात्व गृहीत, अगृहीत और सांशयिक ऐसा तीन प्रकार का जानना चाहिए ।
- (भावपाहुड - गाथा 139)
इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ꠰ भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ꠰꠰139꠰꠰
गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व दोनों तरह के मिथ्यात्व के स्थानभूत इस संसार में कुनय और कुशास्त्र से मोहित होकर यह जीव अनादिकाल से भ्रमण कर रहा ꠰ सो हे धीर ! इसका विचार कर ꠰ यह काल यहाँ पर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के रूप में घूमता ही रहता है ꠰ इस समय यह अवसर्पिणी काल चल रहा है, मायने घटता समय, यह पंचम काल है, इसके बाद छठा काल आयेगा ꠰ छठे काल के अंत में प्रलय मचेगा सो जो जीव बचे रहेंगे उनसे फिर सृष्टि चलेगी ꠰ फिर छठा काल आयेगा, फिर 5वां फिर चौथा, प्रत्येक चौथे काल में तीर्थंकर हुआ करते हैं, फिर तीसरा, दूसरा, पहला इनमें भोगभूमि चलती है, फिर घटती होगी, फिर बढ़ती होगी, ऐसे कालों में यह जीव अनंतकाल तक भ्रमण करता रहा ꠰ सो हे धीर वीर ! तू विचार कर कि मुझे मिथ्यात्व में ही पगना है या संसार के संकटों से छूटना है ꠰ "गृहीत मिथ्यात्व" तो कहलाया कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म इनकी सेवा करना और अगृहीत मिथ्यात्व कहलाया देह में आपाबुद्धि करना कि यह देह मैं हूं, कषाय ही तो मैं हूं, उनमें एकत्व बुद्धि करना, यह "अगृहीत मिथ्यात्व" है ꠰ तो दोनों मिथ्यात्व के वश होकर इस जीव ने अनंतकाल तक संसार में भ्रमण किया ꠰ अत: भवभ्रमण मत कर, ऐसी इसमें शिक्षा दी गई है ꠰
- देखें मिथ्यात्व।