अध्रुव: Difference between revisions
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<p class="HindiText">1. मतिज्ञान का एक भेद - देखें [[ मतिज्ञान | <p class="HindiText"><b>1. मतिज्ञान का एक भेद</b> <br> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/16/16/64/8 </span><span class="SanskritText">संक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरुपश्रोत्रेंद्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणावस्थितत्वात् यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोनं नाभ्यधिकम्। पौन:पुन्येन संक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेंद्रियसांनिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेंद्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध्रुवमवगृह्णाति शब्दम्–क्वचिद् बहु क्वचिदल्पं क्वचिद् बहुविधं क्वचिदेकविधं क्वचित् क्षिप्रं क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि:सृतं क्वचिन्निसृतं क्वचिदुक्तं क्वचिदनुक्तम्।</span> = <span class="HindiText">संक्लेश परिणामों के अभाव में यथानुरूप ही श्रोत्रेंद्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणों के अवस्थित रहने से, जैसा प्रथम समय में शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है। न कम होता है और न अधिक। यह ‘ध्रुव’ ग्रहण है। परंतु पुन: पुन: संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा को यथानुरूप श्रोत्रेंद्रिय का सान्निध्य रहने पर भी उसके आवरण का किंचित् उदय रहने के कारण, पुन: पुन: प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेंद्रियावरण के क्षयोपशमरूप परिणाम होने से शब्द का <b>अध्रुव</b> ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दों को जानता है और कभी एक अल्प को, कभी बहुत प्रकार के शब्दों को जानता है और कभी एक प्रकार के शब्दों को, कभी शीघ्रता से शब्द को जान लेता है और कभी देर से, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगट को भी, कभी उक्त को ही जानता है और कभी अनुक्त को भी।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,14/21/1 </span><span class="PrakritText">णिच्चत्ताए गहणं धुवावग्गहो, तव्विवरीयगहणमद्धुवावग्गहो।</span> =<span class="HindiText"> नित्यता से अर्थात् निरंतर रूप से ग्रहण करना ध्रुव-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना <b>अध्रुव</b> अवग्रह है।</span><br /><br> | |||
<p class="HindiText"> मतिज्ञान का भेदों को जानने के लिये देखें [[ मतिज्ञान ]]। <br> | |||
2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ - देखें [[ प्रकृतिबंध#1.4 | प्रकृतिबंध - 1.4]]।</p> | 2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ - देखें [[ प्रकृतिबंध#1.4 | प्रकृतिबंध - 1.4]]।</p> | ||
Revision as of 11:20, 12 December 2022
सिद्धांतकोष से
1. मतिज्ञान का एक भेद
राजवार्तिक/1/16/16/64/8 संक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरुपश्रोत्रेंद्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणावस्थितत्वात् यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोनं नाभ्यधिकम्। पौन:पुन्येन संक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेंद्रियसांनिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेंद्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध्रुवमवगृह्णाति शब्दम्–क्वचिद् बहु क्वचिदल्पं क्वचिद् बहुविधं क्वचिदेकविधं क्वचित् क्षिप्रं क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि:सृतं क्वचिन्निसृतं क्वचिदुक्तं क्वचिदनुक्तम्। = संक्लेश परिणामों के अभाव में यथानुरूप ही श्रोत्रेंद्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणों के अवस्थित रहने से, जैसा प्रथम समय में शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है। न कम होता है और न अधिक। यह ‘ध्रुव’ ग्रहण है। परंतु पुन: पुन: संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा को यथानुरूप श्रोत्रेंद्रिय का सान्निध्य रहने पर भी उसके आवरण का किंचित् उदय रहने के कारण, पुन: पुन: प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेंद्रियावरण के क्षयोपशमरूप परिणाम होने से शब्द का अध्रुव ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दों को जानता है और कभी एक अल्प को, कभी बहुत प्रकार के शब्दों को जानता है और कभी एक प्रकार के शब्दों को, कभी शीघ्रता से शब्द को जान लेता है और कभी देर से, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगट को भी, कभी उक्त को ही जानता है और कभी अनुक्त को भी।
धवला 6/1,9-1,14/21/1 णिच्चत्ताए गहणं धुवावग्गहो, तव्विवरीयगहणमद्धुवावग्गहो। = नित्यता से अर्थात् निरंतर रूप से ग्रहण करना ध्रुव-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अध्रुव अवग्रह है।
मतिज्ञान का भेदों को जानने के लिये देखें मतिज्ञान ।
2. अध्रुवबंधी प्रकृतियाँ - देखें प्रकृतिबंध - 1.4।
पुराणकोष से
असायणीय पूर्व की चौदह वस्तुओं में चतुर्थ वस्तु । हरिवंशपुराण 10.77-80
देखें अग्रायणीयपूर्व