शरीर पर्याप्ति: Difference between revisions
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<ul><li><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/43 </span><span class="PrakritGatha">‘जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थाइयाइं दव्वाइं। तह पुण्णापुण्णाओ पज्जत्तियरा मुणेयव्वा। 43।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवों को पर्याप्त और अपूर्ण जीवों को अपर्याप्त जानना चाहिए।’ (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/ </span> | <ul><li><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/43 </span><span class="PrakritGatha">‘जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थाइयाइं दव्वाइं। तह पुण्णापुण्णाओ पज्जत्तियरा मुणेयव्वा। 43।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवों को पर्याप्त और अपूर्ण जीवों को अपर्याप्त जानना चाहिए।’ (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/ गाथा 219/417</span>); (<span class="GRef">पंचसंग्रह/संस्कृत/1/127</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/118/325 </span>)। <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/257/4 </span>पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। ...जीवन-हेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते। </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/257/4 </span>पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। ...जीवन-हेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,70/311/9 </span><span class="SanskritText">आहारकशरीर... निष्पत्तिः पर्याप्तिः।</span> = <span class="HindiText">पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। ...इंद्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इंद्रियादि रूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं। 257। आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। 311। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,40/267/10 </span>)। </span><br /></li></ul> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,70/311/9 </span><span class="SanskritText">आहारकशरीर... निष्पत्तिः पर्याप्तिः।</span> = <span class="HindiText">पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। ...इंद्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इंद्रियादि रूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं। 257। आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। 311। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,40/267/10 </span>)। </span><br /></li></ul> | ||
<ul><li>मूलाचार/1045 <span class="PrakritGatha">आहारे य सरीरे तह इंदिय आणणाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा। 1045। </span>=<span class="HindiText"> आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति - ऐसे छह पर्याप्ति कही हैं। (<span class="GRef"> बोधपाहुड़/ </span>मूल/34); (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/44 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/3 </span>); (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/ </span>गाथा 218/417); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/31/579/13 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/254/4 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,70/311/9 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/119/326 </span>); (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/134-135 </span>); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/128), (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/1 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/326/10 </span>)। <br /></li></ul> | <ul><li>मूलाचार/1045 <span class="PrakritGatha">आहारे य सरीरे तह इंदिय आणणाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा। 1045। </span>=<span class="HindiText"> आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति - ऐसे छह पर्याप्ति कही हैं। (<span class="GRef"> बोधपाहुड़/ </span>मूल/34); (<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/44 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/3 </span>); (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/ </span>गाथा 218/417); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/31/579/13 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/254/4 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,70/311/9 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/119/326 </span>); (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/134-135 </span>); (<span class="GRef">पंचसंग्रह/संस्कृत/1/128</span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/1 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/326/10 </span>)। <br /></li></ul> | ||
<ul><li><span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/254/6 </span><span class="SanskritText">तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावय-वैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्रवावयवैरौदारि-कादिशरीरत्रयपरिणामशक्त्युपेतानां स्कंधानामवाप्तिः शरीर-पर्याप्तिः। ... | <ul><li><span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/254/6 </span><span class="SanskritText">तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावय-वैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्रवावयवैरौदारि-कादिशरीरत्रयपरिणामशक्त्युपेतानां स्कंधानामवाप्तिः शरीर-पर्याप्तिः। ... | ||
<span class="HindiText">तिल की खली के समान उस खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप से और तिल तेल के समान रस भाग को रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूप से परिणमन करने वाले औदारिकादि तीन शरीरों की शक्ति से युक्त पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को <strong>शरीर पर्याप्ति</strong> कहते हैं। <br> | <span class="HindiText">तिल की खली के समान उस खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप से और तिल तेल के समान रस भाग को रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूप से परिणमन करने वाले औदारिकादि तीन शरीरों की शक्ति से युक्त पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को <strong>शरीर पर्याप्ति</strong> कहते हैं। <br> |
Revision as of 12:55, 22 December 2022
- पंचसंग्रह / प्राकृत/1/43 ‘जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थाइयाइं दव्वाइं। तह पुण्णापुण्णाओ पज्जत्तियरा मुणेयव्वा। 43। = जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवों को पर्याप्त और अपूर्ण जीवों को अपर्याप्त जानना चाहिए।’ ( धवला 2/1,1/ गाथा 219/417); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/127); ( गोम्मटसार जीवकांड/118/325 )।
धवला 1/1,1,34/257/4 पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः। ...जीवन-हेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते।
धवला 1/1,1,70/311/9 आहारकशरीर... निष्पत्तिः पर्याप्तिः। = पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं। ...इंद्रियादि में विद्यमान जीवन के कारणपने की अपेक्षा न करके इंद्रियादि रूप शक्ति की पूर्णतामात्र को पर्याप्ति कहते हैं। 257। आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। 311। ( धवला 1/1,1,40/267/10 )।
- मूलाचार/1045 आहारे य सरीरे तह इंदिय आणणाण भासाए। होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा। 1045। = आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति - ऐसे छह पर्याप्ति कही हैं। ( बोधपाहुड़/ मूल/34); ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/44 ); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/3 ); ( धवला 2/1,1/ गाथा 218/417); ( राजवार्तिक/8/11/31/579/13 ); ( धवला 1/1,1,34/254/4 ); ( धवला 1/1,1,70/311/9 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/119/326 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/134-135 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/128), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/119/326/10 )।
- धवला 1/1,1,34/254/6 तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावय-वैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्रवावयवैरौदारि-कादिशरीरत्रयपरिणामशक्त्युपेतानां स्कंधानामवाप्तिः शरीर-पर्याप्तिः। ...
तिल की खली के समान उस खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप से और तिल तेल के समान रस भाग को रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूप से परिणमन करने वाले औदारिकादि तीन शरीरों की शक्ति से युक्त पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को शरीर पर्याप्ति कहते हैं।
अधिक जानकारी के लिए देखें पर्याप्ति ।