प्रकारक सूरि: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> भगवती आराधना/455,457 </span><span class="PrakritGatha">जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधि-संभोगे। ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे। 455। इय अप्प-परिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे। वट्टंतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ। 457।</span> = <span class="HindiText">क्षपक जब वस्तिका में प्रवेश करता है अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, संस्तर और उपकरण इनके शोधन करने में, खड़े रहना, बैठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक के ऊपर अनुग्रह करते हैं। सर्व प्रकार क्षपक की शुश्रूषा करते हैं, उसमें बहुत परिश्रम पड़ने पर भी वे खिन्न नहीं होते हैं ऐसे आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य कहते हैं। <br> | <p><span class="GRef"> (भगवती आराधना/455,457) </span><span class="PrakritGatha">जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधि-संभोगे। ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे। 455। इय अप्प-परिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे। वट्टंतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ। 457।</span> = <span class="HindiText">क्षपक जब वस्तिका में प्रवेश करता है अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, संस्तर और उपकरण इनके शोधन करने में, खड़े रहना, बैठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक के ऊपर अनुग्रह करते हैं। सर्व प्रकार क्षपक की शुश्रूषा करते हैं, उसमें बहुत परिश्रम पड़ने पर भी वे खिन्न नहीं होते हैं ऐसे आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य कहते हैं। <br> | ||
देखें [[ प्रकुर्वी ]]।</span></p> | देखें [[ प्रकुर्वी ]]।</span></p> |
Latest revision as of 13:45, 22 December 2022
(भगवती आराधना/455,457) जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधि-संभोगे। ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे। 455। इय अप्प-परिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे। वट्टंतो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होइ। 457। = क्षपक जब वस्तिका में प्रवेश करता है अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, संस्तर और उपकरण इनके शोधन करने में, खड़े रहना, बैठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक के ऊपर अनुग्रह करते हैं। सर्व प्रकार क्षपक की शुश्रूषा करते हैं, उसमें बहुत परिश्रम पड़ने पर भी वे खिन्न नहीं होते हैं ऐसे आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य कहते हैं।
देखें प्रकुर्वी ।
आचार्य का प्रकारकत्व गुण―
सर्व संग की वैयावृत्ति करने की विधि का परिज्ञान हो और वैयावृत्य करने की जिनमें कला हो उसे प्रकारक कहते हैं। जो स्वयं वैयावृत्ति करने में संकोच न रखे स्वयं करे तो शिष्य लोग भी करेंगे और स्वयं यदि आज्ञा ही दे और खुद कुछ भी प्रयोग न करे उनका शासन नहीं बन सकता है। यह शासन वात्सल्य का शासन है। तो वैयावृत्ति करने की विधि का परिज्ञान और वैयावृत्ति करने की उत्तम कला हो उसका नाम प्रकारकत्व गुण है।