अयोगव्यवच्छेद: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="Hinditext">< | <p class="Hinditext"><b>1. अयोगव्यवच्छेदात्मक एककार</b></p> | ||
2. अयोगव्यवच्छेद नामक एक न्याय विषयक ग्रंथ, जिसे श्वेतांबराचार्य हेमचंद्रसूरि (ई.1088-1173) ने केवल 32 | <span class="GRef">सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 25/3</span> <span class="SanskritText">तत्र विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शंखः पांडुर एवेति। अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शंखत्वं, शंखत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पांडुरत्वस्य विधानात् तथा च शंखत्वसमानाधिकरणो योऽत्यंताभावः न तावत्पांडुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः।</span> | ||
<p class="Hinditext">= विशेषण के साथ अन्वित या प्रयुक्त एवकार तो अयोग की निवृत्ति का बोध कराने वाला होता है, जैसे `शंखः पांडुर एव' शंख श्वेत ही होता है। इस वाक्य में उद्देश्यतावच्छेदक के समानाधिकरण में रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं। जिस वस्तु का अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभाव के अप्रतियोगी होते हैं। अब यहाँ प्रकृत प्रसंग में उद्देश्यता का अवच्छेदक धर्म शंखत्वं है, क्योंकि शंखत्व धर्म से अवच्छिन्न जो शंख है उसको उद्देश्य करके पांडुत्व धर्म का विधान करते हैं। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व नाम का धर्म शंखरूप अधिकरण में रहता है; उसमें पांडुत्व का अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पांडुवर्ण ही है। इसलिए वह उस शंख में रहने वाले अभाव का अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात् असंबंध की निवृत्ति का बोध करने वाला एवकार यहाँ लगाया गया है।- </p><br> | |||
<p class="Hinditext">-देखें [[ एवकार ]]। <br> | |||
<p class="Hinditext">2. अयोगव्यवच्छेद नामक एक न्याय विषयक ग्रंथ, जिसे श्वेतांबराचार्य हेमचंद्रसूरि (ई.1088-1173) ने केवल 32 श्लोकों में रचा था, और इसी कारण से जिसको द्वात्रिंशितिका भी कहते हैं। मल्लिषेण सूरि ने ई. 1292 में इस पर स्याद्वादमंजरी नाम की टीका रची।</p> | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Revision as of 10:18, 27 December 2022
1. अयोगव्यवच्छेदात्मक एककार
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 25/3 तत्र विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शंखः पांडुर एवेति। अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शंखत्वं, शंखत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पांडुरत्वस्य विधानात् तथा च शंखत्वसमानाधिकरणो योऽत्यंताभावः न तावत्पांडुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः।
= विशेषण के साथ अन्वित या प्रयुक्त एवकार तो अयोग की निवृत्ति का बोध कराने वाला होता है, जैसे `शंखः पांडुर एव' शंख श्वेत ही होता है। इस वाक्य में उद्देश्यतावच्छेदक के समानाधिकरण में रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं। जिस वस्तु का अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभाव के अप्रतियोगी होते हैं। अब यहाँ प्रकृत प्रसंग में उद्देश्यता का अवच्छेदक धर्म शंखत्वं है, क्योंकि शंखत्व धर्म से अवच्छिन्न जो शंख है उसको उद्देश्य करके पांडुत्व धर्म का विधान करते हैं। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व नाम का धर्म शंखरूप अधिकरण में रहता है; उसमें पांडुत्व का अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पांडुवर्ण ही है। इसलिए वह उस शंख में रहने वाले अभाव का अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात् असंबंध की निवृत्ति का बोध करने वाला एवकार यहाँ लगाया गया है।-
-देखें एवकार ।
2. अयोगव्यवच्छेद नामक एक न्याय विषयक ग्रंथ, जिसे श्वेतांबराचार्य हेमचंद्रसूरि (ई.1088-1173) ने केवल 32 श्लोकों में रचा था, और इसी कारण से जिसको द्वात्रिंशितिका भी कहते हैं। मल्लिषेण सूरि ने ई. 1292 में इस पर स्याद्वादमंजरी नाम की टीका रची।