आचार: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"><b>1. आचार सामान्य के भेद व लक्षण</b> </p> | |||
< | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 7/35</span><p class="SanskritText">.../....वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥35॥</p> | ||
<p class="HindiText">= अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं।</p> | ||
< | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 199</span> <p class=" PrakritText ">दंसणणाणचरित्ते तव्वे विरियाचरिह्मि पंचविहे। वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदं अणुमोदिदे अ कदो ॥199॥</p> | ||
<p class="HindiText">= सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्ताचार, तपाचार और वीर्याचार-इस तरह पाँच आचारो में कृत कारित अनुमोदना से होने वाले अतिचारों को मैं कहता हूँ।</p> | <p class="HindiText">= सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्ताचार, तपाचार और वीर्याचार-इस तरह पाँच आचारो में कृत कारित अनुमोदना से होने वाले अतिचारों को मैं कहता हूँ।</p> | ||
<p>( | <p class="HindiText">(<span class="GRef">नयचक्र 336</span>), (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202</span>), (<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 73</span>)</p> | ||
<p>2. दर्शनाचार के भेद व लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>2. दर्शनाचार के भेद व लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 200-201 </span><p class=" PrakritText ">दंसणचरणविसुद्धी अट्ठविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा..॥200॥ णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ ॥201॥</p> | ||
<p class="HindiText">= दर्शनाचार की निर्मलता जिनेंद्र भगवान ने अष्ट प्रकार की कही है-। निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण जानना ॥201॥</p> | <p class="HindiText">= दर्शनाचार की निर्मलता जिनेंद्र भगवान ने अष्ट प्रकार की कही है-। निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण जानना ॥201॥</p> | ||
< | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/250</span> <p class="SanskritText">अहो निःशिंकितत्वनिःकांक्षितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शनाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= अहो! निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना स्वरूप दर्शनाचार है। </p> | <p class="HindiText">= अहो! निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना स्वरूप दर्शनाचार है। </p> | ||
<p>( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13)</p> | <p class="HindiText">(<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13</span>)</p> | ||
< | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13/3</span> <p class="SanskritText">यच्चिदानंदैकस्वभावं शुद्धात्मत्त्वं तदेव...सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति। चलमलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो चिदानंद रूप शुद्धात्मक तत्त्व है वही सब प्रकार आराधने योग्य है, उससे भिन्न जो पर वस्तु हैं वह सब त्याज्य हैं। ऐसी दृढं प्रतीति चंचलता रहति निर्मल अवगाढ परम श्रद्धा है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है।</p> | <p class="HindiText">= जो चिदानंद रूप शुद्धात्मक तत्त्व है वही सब प्रकार आराधने योग्य है, उससे भिन्न जो पर वस्तु हैं वह सब त्याज्य हैं। ऐसी दृढं प्रतीति चंचलता रहति निर्मल अवगाढ परम श्रद्धा है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है।</p> | ||
< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218 </span><p class="SanskritText">परमचैतन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शन, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः। </p> | ||
<p class="HindiText">= (समस्त पर द्रव्यों से भिन्न) और परम चैतन्य का विलासरूप लक्षणवाली, यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है; ऐसी रुचि रूप सम्यग्दर्शन है, उस सम्यग्दर्शन में जो आचारण अर्थात् परिणमन सो निश्चय दर्शनाचार है।</p> | <p class="HindiText">= (समस्त पर द्रव्यों से भिन्न) और परम चैतन्य का विलासरूप लक्षणवाली, यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है; ऐसी रुचि रूप सम्यग्दर्शन है, उस सम्यग्दर्शन में जो आचारण अर्थात् परिणमन सो निश्चय दर्शनाचार है।</p> | ||
<p>3. | <p class="HindiText"><b>3. ज्ञानाचार के भेद व लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 269</span> <p class=" PrakritText ">काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥269॥</p> | ||
<p class="HindiText">= स्वाध्याय का काल, मन वचन काय से शास्त्र का विनय यत्नसे करना, पूजा-सत्कारादि से पाठ करना, अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़ें हुए शास्त्र का नाम प्रगट करना छिपाना नहीं, वर्ण पद वाक्य की शुद्धि से पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिक की शुद्धि होना, इस तरह ज्ञानाचार के आठ भेद हैं।</p> | <p class="HindiText">= स्वाध्याय का काल, मन वचन काय से शास्त्र का विनय यत्नसे करना, पूजा-सत्कारादि से पाठ करना, अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़ें हुए शास्त्र का नाम प्रगट करना छिपाना नहीं, वर्ण पद वाक्य की शुद्धि से पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिक की शुद्धि होना, इस तरह ज्ञानाचार के आठ भेद हैं।</p> | ||
< | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/249</span> <p class="SanskritText">काल विनयोपधानबहुमानानिह्ववार्थव्यंजनतदुभयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय संपन्न ज्ञानाचार है।</p> | <p class="HindiText">= काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय संपन्न ज्ञानाचार है।</p> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश 7/13 </span><p class="SanskritText">तत्रेव संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः।</p> | |||
<p class="HindiText">= और उसी निज स्वरूप में, संशय-विमोह विभ्रम रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।</p> | <p class="HindiText">= और उसी निज स्वरूप में, संशय-विमोह विभ्रम रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218</span> <p class="SanskritText">तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथकपरिच्छेदनं, सम्यग्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= उसी शुद्धात्मा को उपाधि रहित स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है, उस सम्यग्ज्ञान में आचरण अर्थात् परिणमन वह निश्चयज्ञानाचार है।</p> | <p class="HindiText">= उसी शुद्धात्मा को उपाधि रहित स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है, उस सम्यग्ज्ञान में आचरण अर्थात् परिणमन वह निश्चयज्ञानाचार है।</p> | ||
<p>4. चारित्राचार के भेद व लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>4. चारित्राचार के भेद व लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 288,297 </span><p class=" PrakritText ">पाणिवहमुसावाद अदत्तमेवहुणपरिग्गहाविरदी। एस चरित्ताचारो पंचविहो होदि णादव्वो ॥288॥ पणिधाणजोगजुत्तो पंचमु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। एस चरित्ताचारो अट्ठविधो होई णायव्वो ॥297॥</p> | ||
<p class="HindiText">= प्राणियों की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन, सेवा, परिग्रह-इनका त्याग करना वह अहिंसा आदि पाँच प्रकारका चारित्रचार जानना ॥288॥ परिणाम के संयोग से; पाँच समिति तीन गुप्तियों मे अकषाय रूप प्रवृत्ति आठ भेद वाला चारित्रचार है।</p> | <p class="HindiText">= प्राणियों की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन, सेवा, परिग्रह-इनका त्याग करना वह अहिंसा आदि पाँच प्रकारका चारित्रचार जानना ॥288॥ परिणाम के संयोग से; पाँच समिति तीन गुप्तियों मे अकषाय रूप प्रवृत्ति आठ भेद वाला चारित्रचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/250</span><p class="SanskritText"> मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपंचमहाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषैषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापणसमितिलक्षणचारित्राचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित काय वचन गुप्ति और ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार है।</p> | <p class="HindiText">= मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित काय वचन गुप्ति और ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13 </span><p class="SanskritText">तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्पतहितत्वेन नित्यानंदमयसुखरसास्वादस्थिरानुभवं च सम्यग्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ अशुभ समस्त संकल्प रहित जो नित्यानंद में निजरस का स्वाद, अनिश्चय अनुभव, वह सम्यग्चारित्र है। उसका जो आचरण, उस रूप परिणमन वह चारित्राचार है।</p> | <p class="HindiText">= उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ अशुभ समस्त संकल्प रहित जो नित्यानंद में निजरस का स्वाद, अनिश्चय अनुभव, वह सम्यग्चारित्र है। उसका जो आचरण, उस रूप परिणमन वह चारित्राचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218 </span><p class="SanskritText">तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखास्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= उसी शुद्ध आत्मा में रागादि विकल्प रूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद से निश्चल चित्त होना, वीतराग चारित्र है, उसमें आचारण अर्थात् परिणमन निश्चय चारित्राचार है।</p> | <p class="HindiText">= उसी शुद्ध आत्मा में रागादि विकल्प रूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद से निश्चल चित्त होना, वीतराग चारित्र है, उसमें आचारण अर्थात् परिणमन निश्चय चारित्राचार है।</p> | ||
<p>5. तपाचार के भेद व लक्षण </p> | <p class="HindiText"><b>5. तपाचार के भेद व लक्षण </b></p> | ||
< | <span class="GRef">पू.आ.345,346,360</span> <p class=" PrakritText ">दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो। एक्केक्को विय छद्धा जधाकमं तं परुवेमो ॥345॥ अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसंखा। कायस्स च परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं ॥346॥ पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं। झाणं च विउस्सगो अब्भंतरओ तवो एसो ॥360॥</p> | ||
<p class="HindiText">= तपाचार के दो भेद हैं-बाह्य, आभ्यंतर। उनमें-से भी एक एक के छह छह भेद जानना। उनको मैं क्रम से कहता हूँ ॥345॥ अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति-परिसंख्यान, काय-शोषण और छट्ठा विविक्तशय्यासन इस तरह बाह्य तप के छः भेद हैं ॥346॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युतसर्ग-ये छः भेद अंतरंग तप के हैं।</p> | <p class="HindiText">= तपाचार के दो भेद हैं-बाह्य, आभ्यंतर। उनमें-से भी एक एक के छह छह भेद जानना। उनको मैं क्रम से कहता हूँ ॥345॥ अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति-परिसंख्यान, काय-शोषण और छट्ठा विविक्तशय्यासन इस तरह बाह्य तप के छः भेद हैं ॥346॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युतसर्ग-ये छः भेद अंतरंग तप के हैं।</p> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार तत्त्व प्रदीपिका 202/250</span> </span><p class="SanskritText">अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासनकायक्लेशप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्ग लक्षणतपाचारः।</p> | |||
<p class="HindiText">= अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग तपाचार है।</p> | <p class="HindiText">= अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग तपाचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13</span> <p class="SanskritText">तत्रैव परद्रव्येच्छाविरोधेन सहजानंदैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचार...।....अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= उसी परमानंद स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनंद रूप तपश्चरण स्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है।...अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है।</p> | <p class="HindiText">= उसी परमानंद स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनंद रूप तपश्चरण स्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है।...अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका 52/219</span> <p class="SanskritText">समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशन आदि द्वादशतपश्चरणबहिरंगसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं तत्राचरणं, परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= समस्त परद्रव्य की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरंग सहकारि कारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चय तपश्चरण है। उनमें जो आचरण अर्थात् परिणमन निश्चय तपश्चरणाचार है।</p> | <p class="HindiText">= समस्त परद्रव्य की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरंग सहकारि कारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चय तपश्चरण है। उनमें जो आचरण अर्थात् परिणमन निश्चय तपश्चरणाचार है।</p> | ||
<p>6. वीर्याचार का लक्षण</p> | <p class="HindiText"><b>6. वीर्याचार का लक्षण</b></p> | ||
< | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 413</span> <p class=" PrakritText ">अणिगूहियबलविरिओ परकामादि जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजदि य जहाथाणं विरियाचारो त्ति णादव्वो ॥413॥</p> | ||
<p class="HindiText">= नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्त चारित्र में तीन प्रकार अनुमति रहित 17 प्रकार संयम विधान करने के लिए आत्मा को युक्त करता है वह वीर्याचार जानना ॥413॥</p> | <p class="HindiText">= नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्त चारित्र में तीन प्रकार अनुमति रहित 17 प्रकार संयम विधान करने के लिए आत्मा को युक्त करता है वह वीर्याचार जानना ॥413॥</p> | ||
< | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/251</span> <p class="SanskritText">समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्या निगूहनलक्षणं वीर्याचारः। </p> | ||
<p class="HindiText">= समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।</p> | <p class="HindiText">= समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/14</span> <p class="SanskritText">तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यानवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचारः।...बाह्यस्वशक्त्यनवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= उसी शुद्धात्म स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट कर आचरण परिणमन करना वह निश्चय वीर्चाचार है।..अपनी शक्ति प्रकट कर मुनिव्रत का आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है।</p> | <p class="HindiText">= उसी शुद्धात्म स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट कर आचरण परिणमन करना वह निश्चय वीर्चाचार है।..अपनी शक्ति प्रकट कर मुनिव्रत का आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है।</p> | ||
< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/219 </span><p class="SanskritText">तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशक्त्यानवगूहनं निश्चयवीर्याचारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= इन चार प्रकार के निश्चय आचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है।</p> | <p class="HindiText">= इन चार प्रकार के निश्चय आचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है।</p> | ||
<p>• निश्चय | <p class="HindiText">• निश्चय पंचाचार के अपर नाम - देखें [[ मोक्षमार्ग#2.5 | मोक्षमार्ग - 2.5]]।</p> | ||
<p>• दर्शनादि आचार व | <p class="HindiText">• दर्शनादि आचार व विनय में अंतर - देखें [[ विनय#2 | विनय - 2]]।</p> | ||
Revision as of 16:48, 5 January 2023
1. आचार सामान्य के भेद व लक्षण
सागार धर्मामृत अधिकार 7/35
.../....वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥35॥
= अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 199
दंसणणाणचरित्ते तव्वे विरियाचरिह्मि पंचविहे। वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदं अणुमोदिदे अ कदो ॥199॥
= सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्ताचार, तपाचार और वीर्याचार-इस तरह पाँच आचारो में कृत कारित अनुमोदना से होने वाले अतिचारों को मैं कहता हूँ।
(नयचक्र 336), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 73)
2. दर्शनाचार के भेद व लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 200-201
दंसणचरणविसुद्धी अट्ठविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा..॥200॥ णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ ॥201॥
= दर्शनाचार की निर्मलता जिनेंद्र भगवान ने अष्ट प्रकार की कही है-। निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण जानना ॥201॥
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/250
अहो निःशिंकितत्वनिःकांक्षितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शनाचारः।
= अहो! निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना स्वरूप दर्शनाचार है।
( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13)
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13/3
यच्चिदानंदैकस्वभावं शुद्धात्मत्त्वं तदेव...सर्वप्रकारोपादेयभूतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति। चलमलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारः।
= जो चिदानंद रूप शुद्धात्मक तत्त्व है वही सब प्रकार आराधने योग्य है, उससे भिन्न जो पर वस्तु हैं वह सब त्याज्य हैं। ऐसी दृढं प्रतीति चंचलता रहति निर्मल अवगाढ परम श्रद्धा है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218
परमचैतन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शन, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः।
= (समस्त पर द्रव्यों से भिन्न) और परम चैतन्य का विलासरूप लक्षणवाली, यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है; ऐसी रुचि रूप सम्यग्दर्शन है, उस सम्यग्दर्शन में जो आचारण अर्थात् परिणमन सो निश्चय दर्शनाचार है।
3. ज्ञानाचार के भेद व लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 269
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥269॥
= स्वाध्याय का काल, मन वचन काय से शास्त्र का विनय यत्नसे करना, पूजा-सत्कारादि से पाठ करना, अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़ें हुए शास्त्र का नाम प्रगट करना छिपाना नहीं, वर्ण पद वाक्य की शुद्धि से पढ़ना, अनेकांत स्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिक की शुद्धि होना, इस तरह ज्ञानाचार के आठ भेद हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/249
काल विनयोपधानबहुमानानिह्ववार्थव्यंजनतदुभयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचारः।
= काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय संपन्न ज्ञानाचार है।
परमात्मप्रकाश 7/13
तत्रेव संशयविपर्यासानध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः सम्यग्ज्ञानं तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः।
= और उसी निज स्वरूप में, संशय-विमोह विभ्रम रहित जो स्वसंवेदनज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218
तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथकपरिच्छेदनं, सम्यग्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः।
= उसी शुद्धात्मा को उपाधि रहित स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है, उस सम्यग्ज्ञान में आचरण अर्थात् परिणमन वह निश्चयज्ञानाचार है।
4. चारित्राचार के भेद व लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 288,297
पाणिवहमुसावाद अदत्तमेवहुणपरिग्गहाविरदी। एस चरित्ताचारो पंचविहो होदि णादव्वो ॥288॥ पणिधाणजोगजुत्तो पंचमु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। एस चरित्ताचारो अट्ठविधो होई णायव्वो ॥297॥
= प्राणियों की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन, सेवा, परिग्रह-इनका त्याग करना वह अहिंसा आदि पाँच प्रकारका चारित्रचार जानना ॥288॥ परिणाम के संयोग से; पाँच समिति तीन गुप्तियों मे अकषाय रूप प्रवृत्ति आठ भेद वाला चारित्रचार है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/250
मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपंचमहाव्रतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तीर्याभाषैषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापणसमितिलक्षणचारित्राचारः।
= मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित काय वचन गुप्ति और ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13
तत्रैव शुभाशुभसंकल्पविकल्पतहितत्वेन नित्यानंदमयसुखरसास्वादस्थिरानुभवं च सम्यग्चारित्रं तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचारः।
= उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ अशुभ समस्त संकल्प रहित जो नित्यानंद में निजरस का स्वाद, अनिश्चय अनुभव, वह सम्यग्चारित्र है। उसका जो आचरण, उस रूप परिणमन वह चारित्राचार है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/218
तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखास्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचारः।
= उसी शुद्ध आत्मा में रागादि विकल्प रूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद से निश्चल चित्त होना, वीतराग चारित्र है, उसमें आचारण अर्थात् परिणमन निश्चय चारित्राचार है।
5. तपाचार के भेद व लक्षण
पू.आ.345,346,360
दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो। एक्केक्को विय छद्धा जधाकमं तं परुवेमो ॥345॥ अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसंखा। कायस्स च परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं ॥346॥ पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं। झाणं च विउस्सगो अब्भंतरओ तवो एसो ॥360॥
= तपाचार के दो भेद हैं-बाह्य, आभ्यंतर। उनमें-से भी एक एक के छह छह भेद जानना। उनको मैं क्रम से कहता हूँ ॥345॥ अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति-परिसंख्यान, काय-शोषण और छट्ठा विविक्तशय्यासन इस तरह बाह्य तप के छः भेद हैं ॥346॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युतसर्ग-ये छः भेद अंतरंग तप के हैं।
प्रवचनसार तत्त्व प्रदीपिका 202/250
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासनकायक्लेशप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्ग लक्षणतपाचारः।
= अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग तपाचार है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/13
तत्रैव परद्रव्येच्छाविरोधेन सहजानंदैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं तपश्चरणाचार...।....अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचारः।
= उसी परमानंद स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनंद रूप तपश्चरण स्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है।...अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है।
द्रव्यसंग्रह टीका 52/219
समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशन आदि द्वादशतपश्चरणबहिरंगसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं तत्राचरणं, परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः।
= समस्त परद्रव्य की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरंग सहकारि कारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चय तपश्चरण है। उनमें जो आचरण अर्थात् परिणमन निश्चय तपश्चरणाचार है।
6. वीर्याचार का लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 413
अणिगूहियबलविरिओ परकामादि जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजदि य जहाथाणं विरियाचारो त्ति णादव्वो ॥413॥
= नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्त चारित्र में तीन प्रकार अनुमति रहित 17 प्रकार संयम विधान करने के लिए आत्मा को युक्त करता है वह वीर्याचार जानना ॥413॥
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 202/251
समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्या निगूहनलक्षणं वीर्याचारः।
= समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करने वाली स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 7/14
तत्रैव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यानवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचारः।...बाह्यस्वशक्त्यनवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचारः।
= उसी शुद्धात्म स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट कर आचरण परिणमन करना वह निश्चय वीर्चाचार है।..अपनी शक्ति प्रकट कर मुनिव्रत का आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/219
तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशक्त्यानवगूहनं निश्चयवीर्याचारः।
= इन चार प्रकार के निश्चय आचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है।
• निश्चय पंचाचार के अपर नाम - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
• दर्शनादि आचार व विनय में अंतर - देखें विनय - 2।