आत्मसंस्कार काल: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p>देखें [[ काल#1 | काल - 1]]।</p> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11</span> <span class="SanskritText">यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यंतरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानंतरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानंतरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स '''आत्मसंस्कारकाल''':, आत्मसंस्कारानंतरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानंतरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवांतरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=</span><span class="HindiText">जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्म आराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षा काल है। दीक्षा के अनंतर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्य प्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषण काल है। गणपोषण के अनंतर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह '''आत्म संस्कार काल''' है। तदनंतर उसी के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखना काल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरम देही, अथवा उससे विपरीत जो भवांतर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थ काल कहलाता है। </span></li> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ काल#1 | काल - 1]]।</p> | |||
Line 9: | Line 11: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: आ]] | [[Category: आ]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Revision as of 20:19, 5 January 2023
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/173/11 यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यंतरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकाल:, दीक्षानंतरं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानंतरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गे स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल:, गणपोषणानंतरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कारकाल:, आत्मसंस्कारानंतरं तदर्थमेव...परमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थं कायक्लेशानुष्ठनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:, सल्लेखनानंतरं...बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवांतरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ काल:।=जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्म आराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षा काल है। दीक्षा के अनंतर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्य प्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह गणपोषण काल है। गणपोषण के अनंतर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्म संस्कार काल है। तदनंतर उसी के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखना काल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरम देही, अथवा उससे विपरीत जो भवांतर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह उत्तमार्थ काल कहलाता है।
देखें काल - 1।