केवली 06: Difference between revisions
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<li><strong name="6" id="6"><span class="HindiText"> ध्यानलेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान</span></strong> <span class="HindiText"><br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.1" id="6.1"><strong> केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong></span><br /> | |||
स.सि./२/६/१६०/१ <span class="SanskritText">ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष:; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योग प्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। (रा.वा./२/६/८/१०९/२९); (गो.जी./मू./५३३)।</span><br /> | |||
ध.७/१,१,६१/१०४/१२ <span class="SanskritText">जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्तो इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्टे वि जोगो अत्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—यदि कषायों के उदय से लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लेश्या के अभाव का प्रसंग आता है। <strong>उत्तर</strong>—सचमुच ही क्षीण कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी चूँकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता। (गो.जी./मू./५३३)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong> केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण </strong> </span><br /> | |||
ध.१/१,१,१२४/३७४/३ <span class="SanskritText">अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति: संयम:, अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसङ्गात् । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततस्तत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोष:, अघातिचतुष्टयबिनाज्ञापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधत्तक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात् । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते:।</span><span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>—बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग के त्याग को संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदि में भी संयम का प्रसंग आ जायेगा। किन्तु केवली में बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग की निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयम का होना दुर्घट ही है? <strong>उत्तर—</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मों के विनाश करने की अपेक्षा और समय-समय में असंख्यात गुणी श्रेणीरूप से कर्म निर्जरा करने की अपेक्षा सम्पूर्ण पापक्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ संयम का उपचार किया जाता है। अत: वहाँ पर संयम का होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्ति के अभाव की अपेक्षा वहाँ पर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेन्द्र में प्रवृत्यभाव से मुख्य संयम की सिद्धि करने पर काष्ठ से व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, काष्ठ में प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong> केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | |||
रा.वा./२/१०/५/१२५/<span class="SanskritText">८ यथा एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिन्ताविक्षेपवत: तन्निरोधोपपत्ते:; तदभावात् केवलिन्युपचरित: फलदर्शनात् ।</span>=<span class="HindiText">एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है।</span><br /> | |||
/ > | ध.१३/५,४,२६/८६/४<span class="PrakritText"> एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्घाए एगरूवस्स अणिंदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि। ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिंताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि।...जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं।</span><br /> | ||
ध.१३/५,४,२६/८७/१३ <span class="PrakritText">कधमेत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिंताए जीवस्स णिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम।</span>=<span class="HindiText">१. <strong>प्रश्न</strong>—इस योग निरोध के काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एक रूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञान से रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना सम्भव नहीं है। <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिन्ता का निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं।...यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। २. <strong>प्रश्न</strong>—यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारण से दी गयी है? <strong>उत्तर</strong>—एकाग्ररूप से जीव के चिन्ता का निरोध अर्थात् परिस्पन्द का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है।</span><br /> | |||
पं.का./ता.वृ./१५२/२१९/१०<span class="SanskritText"> भावमुक्तस्य केवलिनो...स्वरूपनिश्चलत्वाद...पूर्वसंचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाशं गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्राय:।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप निश्चल होने से भावमुक्त केवली के ध्यान का कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति का विनाश अर्थात् गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यान के कार्य-कारण में उपचार करने से केवली को ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा.सा/१३१/२)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> केवली के एकत्व विर्तक ध्यान क्यों नहीं कहते</strong> </span><br /> | |||
ध.१३/५,४,२६/७५/७<span class="PrakritText"> आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जएसु उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावदट्ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो।</span>=<span class="HindiText">आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्य में या पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का (एकत्वविर्तक अविचार) अभाव कहा है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong> तो फिर केवली क्या ध्याते हैं</strong> </span><br /> | |||
प्र.सा./मू./१९७-१९८ <span class="PrakritGatha">णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू। णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो।१९७। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं।१९८।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जिसने घनघाति कर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते हैं? <strong>उत्तर</strong>—अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध रहता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong> केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण</strong> </span><br /> | |||
नि.सा./मू./१७२<span class="PrakritGatha"> जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।<br /> | |||
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।१७२।</span>=<span class="HindiText">जानते और देखते हुए भी, केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता; इसलिए उन्हें ‘केवलज्ञानी’ कहा है। और इसलिए अबन्धक कहा है। (नि.सा./मू./१७५) </span><br><strong>अष्टसहस्री./पृ.७२</strong> (निर्णयसागर बम्बई) <span class="SanskritText">वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहत्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात् । तथाहि—नेच्छा सर्वविद: शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">वास्तव में केवली भगवान् के वीतमोह होने के कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असम्भव है। जैसे कि—सर्वज्ञ भगवान् को शासन के प्रकाशन की भी कोई इच्छा नहीं है, मोह का विनाश हो जाने के कारण। </span><br><strong>नि.सा./ता.वृ./१७३-१७४</strong> <span class="SanskritText">परिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति...केवलीमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मक:।</span>=<span class="HindiText">परिणाम पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है।...केवली के मुखारविन्द से निकली दिव्यध्वनि समस्तजनों के हृदय को आल्हाद के कारणभूत अनिच्छात्मक होती है।</span><br> | |||
<strong>प्र.सा./त.प्र./४४</strong> <span class="SanskritText">यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहार: प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते। अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते, तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(बिना इच्छा के भगवान् को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे सम्भव हैं)। <strong>उत्तर</strong>—जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान् के, बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखी जाती हैं, उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong> केवली के उपयोग कहना उपचार है</strong></span><strong><br></strong>रा.वा./२/१०/५/१२५/१०<span class="SanskritText"> तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य: परिणामान्तरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावाद् गौण: कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।</span>=<span class="HindiText">संसारी जीवों में उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहने से उपयोग गौण है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती है।</span></li></ol></li> | |||
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Revision as of 22:15, 24 December 2013
- ध्यानलेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण
स.सि./२/६/१६०/१ ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागम:। तत्र कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोष:; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्ति: कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।=प्रश्न—उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योग प्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। (रा.वा./२/६/८/१०९/२९); (गो.जी./मू./५३३)।
ध.७/१,१,६१/१०४/१२ जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्तो इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्टे वि जोगो अत्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण विरुज्झदे।=प्रश्न—यदि कषायों के उदय से लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के लेश्या के अभाव का प्रसंग आता है। उत्तर—सचमुच ही क्षीण कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी चूँकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध नहीं आता। (गो.जी./मू./५३३)।
- केवली के संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण
ध.१/१,१,१२४/३७४/३ अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति: संयम:, अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसङ्गात् । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततस्तत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोष:, अघातिचतुष्टयबिनाज्ञापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधत्तक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात् । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते:।=प्रश्न—बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग के त्याग को संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदि में भी संयम का प्रसंग आ जायेगा। किन्तु केवली में बुद्धिपूर्वक सावद्ययोग की निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयम का होना दुर्घट ही है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मों के विनाश करने की अपेक्षा और समय-समय में असंख्यात गुणी श्रेणीरूप से कर्म निर्जरा करने की अपेक्षा सम्पूर्ण पापक्रिया के निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ संयम का उपचार किया जाता है। अत: वहाँ पर संयम का होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्ति के अभाव की अपेक्षा वहाँ पर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेन्द्र में प्रवृत्यभाव से मुख्य संयम की सिद्धि करने पर काष्ठ से व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, काष्ठ में प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है।
- केवली के ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण
रा.वा./२/१०/५/१२५/८ यथा एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिन्ताविक्षेपवत: तन्निरोधोपपत्ते:; तदभावात् केवलिन्युपचरित: फलदर्शनात् ।=एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है।
ध.१३/५,४,२६/८६/४ एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्घाए एगरूवस्स अणिंदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि। ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिंताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि।...जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं।
ध.१३/५,४,२६/८७/१३ कधमेत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिंताए जीवस्स णिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम।=१. प्रश्न—इस योग निरोध के काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एक रूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञान से रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना सम्भव नहीं है। उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिन्ता का निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं।...यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्र रूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। २. प्रश्न—यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारण से दी गयी है? उत्तर—एकाग्ररूप से जीव के चिन्ता का निरोध अर्थात् परिस्पन्द का अभाव होना ही ध्यान है, इस दृष्टि से यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है।
पं.का./ता.वृ./१५२/२१९/१० भावमुक्तस्य केवलिनो...स्वरूपनिश्चलत्वाद...पूर्वसंचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाशं गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्राय:।=स्वरूप निश्चल होने से भावमुक्त केवली के ध्यान का कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति का विनाश अर्थात् गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यान के कार्य-कारण में उपचार करने से केवली को ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा.सा/१३१/२)
- केवली के एकत्व विर्तक ध्यान क्यों नहीं कहते
ध.१३/५,४,२६/७५/७ आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जएसु उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावदट्ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो।=आवरण का अभाव होने से केवली जिन का उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्य में या पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का (एकत्वविर्तक अविचार) अभाव कहा है।
- तो फिर केवली क्या ध्याते हैं
प्र.सा./मू./१९७-१९८ णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू। णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो।१९७। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो। भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं।१९८।=प्रश्न—जिसने घनघाति कर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते हैं? उत्तर—अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध रहता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है।
- केवली को इच्छा का अभाव तथा उसका कारण
नि.सा./मू./१७२ जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।१७२।=जानते और देखते हुए भी, केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता; इसलिए उन्हें ‘केवलज्ञानी’ कहा है। और इसलिए अबन्धक कहा है। (नि.सा./मू./१७५)
अष्टसहस्री./पृ.७२ (निर्णयसागर बम्बई) वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहत्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात् । तथाहि—नेच्छा सर्वविद: शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् ।=वास्तव में केवली भगवान् के वीतमोह होने के कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असम्भव है। जैसे कि—सर्वज्ञ भगवान् को शासन के प्रकाशन की भी कोई इच्छा नहीं है, मोह का विनाश हो जाने के कारण।
नि.सा./ता.वृ./१७३-१७४ परिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति...केवलीमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मक:।=परिणाम पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है।...केवली के मुखारविन्द से निकली दिव्यध्वनि समस्तजनों के हृदय को आल्हाद के कारणभूत अनिच्छात्मक होती है।
प्र.सा./त.प्र./४४ यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहार: प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते। अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते, तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते।=प्रश्न—(बिना इच्छा के भगवान् को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे सम्भव हैं)। उत्तर—जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान् के, बिना ही प्रयत्न के उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्न के बिना भी देखी जाती हैं, उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है। - केवली के उपयोग कहना उपचार है
रा.वा./२/१०/५/१२५/१० तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य: परिणामान्तरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावाद् गौण: कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।=संसारी जीवों में उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहने से उपयोग गौण है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती है।
- केवली के लेश्या कहना उपचार है तथा उसका कारण