उपदेश: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">मोक्षमार्ग का उपदेश परमार्थ से सबसे बड़ा उपकार है, परंतु इसका विषय अत्यंत गुप्त होने के कारण केवल पात्र को ही दिया जाना योग्य है, अपात्र को नहीं। उपदेश की पात्रता निरभिमानता विनय व विचारशीलता में निहित है। कठोरता पूर्वक भी दिया गया परमार्थोपदेश पात्र के हित के लिए ही होता है। अतः उपदेश करना कर्तव्य है, परंतु अपनी साधना में भंग न पड़े, इतनी सीमा तक ही। उपदेश भी पहिले मुनिधर्म का और पीछे श्रावक धर्म का दिया जाता है ऐसा क्रम है।</p> | ||
<p class="HindiText">1. [[#1 | उपदेश सामान्य निर्देश]] </p> | <p class="HindiText">1. [[#1 | उपदेश सामान्य निर्देश]] </p> | ||
<p class="HindiText">1.1 [[#1.1 | | <p class="HindiText">1.1 [[#1.1 | धर्मोपदेश का लक्षण]] </p> | ||
<p class="HindiText">1.2. [[#1.2 | | <p class="HindiText">1.2. [[#1.2 | मिथ्योपदेश का लक्षण]] </p> | ||
<p class="HindiText">1.3. [[#1.3 | निश्चय व व्यवहार दोनों | <p class="HindiText">1.3. [[#1.3 | निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के उपदेशों का निर्देश]] </p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• सल्लेखना के समय देने योग्य उपदेश - देखें [[ सल्लेखना#5.11 | सल्लेखना - 5.11]]</p> | ||
<p class="HindiText">• आदेश व | <p class="HindiText">• आदेश व उपदेश में अंतर - देखें [[ आदेशका लक्षण ]]</p> | ||
<p class="HindiText">• चारों | <p class="HindiText">• चारों अनुयोगों के उपदेशों की पद्धति में अंतर - देखें [[ अनुयोग#1 | अनुयोग - 1]]</p> | ||
<p class="HindiText">• आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय - देखें [[ पद्धति ]]</p> | <p class="HindiText">• आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय - देखें [[ पद्धति ]]</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• उपदेश का रहस्य समझने का उपाय - देखें [[ आगम#3 | आगम - 3]]</p> | ||
<p class="HindiText">2. [[#2 | योग्यायोग्य उपदेश निर्देश]] </p> | <p class="HindiText">2. [[#2 | योग्यायोग्य उपदेश निर्देश]] </p> | ||
<p class="HindiText">2.1. [[#2.1 | परमार्थ | <p class="HindiText">2.1. [[#2.1 | परमार्थ सत्य का उपदेश असंभव है]] </p> | ||
<p class="HindiText">2.2. [[#2.2 | पहिले | <p class="HindiText">2.2. [[#2.2 | पहिले मुनि धर्म का और पीछे श्रावक धर्म का उपदेश दिया जाता है]] </p> | ||
<p class="HindiText">2.3. [[#2.3 | अयोग्य उपदेश | <p class="HindiText">2.3. [[#2.3 | अयोग्य उपदेश देने का निषेध]]</p> | ||
<p class="HindiText">2.4. [[#2.4 | ख्याति लाभ | <p class="HindiText">2.4. [[#2.4 | ख्याति लाभ आदि की भावनाओं से निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है]]</p> | ||
<p class="HindiText">3. [[#3 | वक्ता व श्रोता विचार]]</p> | <p class="HindiText">3. [[#3 | वक्ता व श्रोता विचार]]</p> | ||
<p class="HindiText">• वक्ता व | <p class="HindiText">• वक्ता व श्रोता का स्वरूप - देखें [[ वह वह नाम ]]</p> | ||
<p class="HindiText">• गुरु शिष्य संबंध - देखें [[ गुरु#2 | गुरु - 2]]</p> | <p class="HindiText">• गुरु शिष्य संबंध - देखें [[ गुरु#2 | गुरु - 2]]</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• मिथ्यादृष्टि के लिए धर्मोपदेश देने का अधिकार अनधिकार संबंधी - देखें [[ वक्ता ]]</p> | ||
<p class="HindiText">• सम्यग्दृष्टि व | <p class="HindiText">• सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के उपदेश का सम्यक्त्वोत्पत्ति में स्थान - देखें [[ लब्धि#3 | लब्धि - 3]]</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• वक्ता को आगमार्थ के विषयमें अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए - देखें [[ आगम#5.9 | आगम - 5.9]]</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर उपदेश नहीं देते - देखें [[ वक्ता ]]3</p> | ||
<p class="HindiText">3.1. [[#3.1 | श्रोता की रुचि- | <p class="HindiText">3.1. [[#3.1 | श्रोता की रुचि-अरुचि से निरपेक्ष सत्य का उपदेश देना कर्तव्य है]]</p> | ||
<p class="HindiText">• हित-अहित व मिष्ट-कटु संभाषण - देखें [[ सत्य#2 | सत्य - 2]]</p> | <p class="HindiText">• हित-अहित व मिष्ट-कटु संभाषण - देखें [[ सत्य#2 | सत्य - 2]]</p> | ||
<p class="HindiText">3.2. [[#3.2 | उपदेश | <p class="HindiText">3.2. [[#3.2 | उपदेश श्रोता की योग्यता व रुचि के अनुसार देना चाहिए]]</p> | ||
<p class="HindiText">• उपदेश | <p class="HindiText">• उपदेश ग्रहण में विनय का महत्व - देखें [[ विनय#2 | विनय - 2]]</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• ज्ञान के योग्य पात्र-अपात्र - देखें [[ श्रोता ]]</p> | ||
<p class="HindiText">3.3. [[#3.3 | ज्ञान | <p class="HindiText">3.3. [[#3.3 | ज्ञान अपात्र को नहीं देना चाहिए]]</p> | ||
<p class="HindiText">• कथंचित् | <p class="HindiText">• कथंचित् अपात्र को भी उपदेश देने की आज्ञा - देखें [[ उपदेश#3.1 | उपदेश - 3.1 ]]में ( स्याद्वादमंजरी श्लोक )</p> | ||
<p class="HindiText">• | <p class="HindiText">• अपात्र को उपदेश के निषेध का कारण - देखें [[ उपदेश#3.4 | उपदेश - 3.4]]</p> | ||
<p class="HindiText">3.4. [[#3.4 | कैसे | <p class="HindiText">3.4. [[#3.4 | कैसे जीव को कैसा उपदेश देना चाहिए]]</p> | ||
<p class="HindiText">3.5. [[#3.5 | किस अवसर पर कैसा उपदेश देना चाहिए]]</p> | <p class="HindiText">3.5. [[#3.5 | किस अवसर पर कैसा उपदेश देना चाहिए]]</p> | ||
<p class="HindiText">• वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर | <p class="HindiText">• वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्महानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले - देखें [[ वाद ]]</p> | ||
<p class="HindiText">• चारों | <p class="HindiText">• चारों अनुयोगों के उपदेश का क्रम - देखें [[ स्वाध्याय#1 | स्वाध्याय - 1]]</p> | ||
<p class="HindiText">4. [[#4 | उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य]] </p> | <p class="HindiText">4. [[#4 | उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य]] </p> | ||
<p class="HindiText">4.1. [[#4.1 | हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है]]</p> | <p class="HindiText">4.1. [[#4.1 | हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है]]</p> | ||
<p class="HindiText">4.2. [[#4.2 | | <p class="HindiText">4.2. [[#4.2 | उपदेश से श्रोता का हित हो न हो पर वक्ता का हित तो होता ही है]]</p> | ||
<p class="HindiText">4.3. [[#4.3 | अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है]] </p> | <p class="HindiText">4.3. [[#4.3 | अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है]] </p> | ||
<p class="HindiText">4.4. [[#4.4 | | <p class="HindiText">4.4. [[#4.4 | उपदेश का फल]]</p> | ||
<p class="HindiText">4.5. [[#4.5 | उपदेश | <p class="HindiText">4.5. [[#4.5 | उपदेश प्राप्ति का प्रयोजन]]</p> | ||
<p class="HindiText">1. <strong name="1" id="1"> उपदेश सामान्य निर्देश</p> | <p class="HindiText">1. <strong name="1" id="1"> उपदेश सामान्य निर्देश</p> | ||
<p class="HindiText">1.1. <strong name="1.1" id="1.1"> धर्मोपदेशका लक्षण</p> | <p class="HindiText">1.1. <strong name="1.1" id="1.1"> धर्मोपदेशका लक्षण</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/25/443/5</span> <p class="SanskritText">धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= धर्मकथा | <p class="HindiText">= धर्मकथा आदि का अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।</p> | ||
<p class="HindiText">(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19</span>); ( <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 153/5</span>); ( <span class="GRef">तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19</span>); ( <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716</span>)</p> | <p class="HindiText">(<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19</span>); ( <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 153/5</span>); ( <span class="GRef">तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19</span>); ( <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716</span>)</p> | ||
<p class="HindiText">1.2. <strong name="1.2" id="1.2"> मिथ्योपदेशका लक्षण</p> | <p class="HindiText">1.2. <strong name="1.2" id="1.2"> मिथ्योपदेशका लक्षण</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/26/366/7</span><p class="SanskritText"> अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य न्यथाप्रवर्त्तनमत्सिंधापनं वा मिथ्योपदेशः।</p> | |||
<p class="HindiText">= अभ्युदय और | <p class="HindiText">= अभ्युदय और मोक्ष की कारण भूत क्रियाओं में किसी दूसरे को विपरीत मार्ग से लगा देना, या मिथ्या वचनों-द्वारा दूसरों को ठगना मिथ्योपदेश है।</p> | ||
<p class="HindiText">1.3. <strong name="1.3" id="1.3"> निश्चय व व्यवहार दोनों | <p class="HindiText">1.3. <strong name="1.3" id="1.3"> निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के उपदेशों का निर्देश</p> | ||
<span class="GRef">मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 16,60</span><p class="PrakritText"> परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊणसदव्वे कुणहरई विरइ इयरम्मि ।16। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो वि ।60।</p> | |||
<p class="HindiText">= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।</p> | <p class="HindiText">= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।</p> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 653</span><p class="SanskritText"> न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ।653।</p> | |||
<p class="HindiText">= निश्चय करके | <p class="HindiText">= निश्चय करके सत्पात्रों को दान देने के विषय में और अर्हंतों की पूजा के विषय में न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।</p> | ||
<p class="HindiText">2. <strong name="2" id="2"> योग्यायोग्य उपदेश निर्देश</p> | <p class="HindiText">2. <strong name="2" id="2"> योग्यायोग्य उपदेश निर्देश</p> | ||
<p class="HindiText">2.1. <strong name="2.1" id="2.1">परमार्थ | <p class="HindiText">2.1. <strong name="2.1" id="2.1">परमार्थ सत्य का उपदेश असंभव है</p> | ||
<span class="GRef">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 19,59</span><p class="SanskritText"> यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।19। यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं तदहं पुनः। ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।59।</p> | |||
<p class="HindiText">= मैं उपध्यायों | <p class="HindiText">= मैं उपध्यायों आदिकों से जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादि को कुछ जो प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्योंकि, मैं वास्तव में इन सभी वचन विकल्पों से अग्राह्य हूँ ।19। जिस विकल्पाधिरूढ़ आत्म स्वरूप को अथवा देहादिक को समझाने-बुझाने की मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानंदमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मैं हूँ, वह भी दूसरे जीवों के उपदेश-द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है। इसलिए दूसरे जीवों को मैं क्या समझाऊँ ।59।</p> | ||
<p class="HindiText">2.2. <strong name="2.2" id="2.2">पहले | <p class="HindiText">2.2. <strong name="2.2" id="2.2">पहले मुनिधर्म का और पीछे गृहस्थधर्म का उपदेश दिया जाता है</p> | ||
<span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 17-19</span><p class="SanskritText"> बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ।17। यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्यप्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।18। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।19।</p> | |||
<p class="HindiText">= जो जीव बारंबार दिखलायी हुई समस्त पापरहित | <p class="HindiText">= जो जीव बारंबार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्ति को कदाचित् ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतु से समझावे अर्थात् कथन करे ।17। जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्म को नहीं कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशक को भगवत् के सिद्धांत में दंड देने का स्थान प्रदर्शित किया है ।18। जिस कारण से उस दुर्बुद्धि के क्रमभंग कथन रूप उपदेश करने से अत्यंत दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छ स्थान में संतुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है ।19।</p> | ||
<p class="HindiText">2.3. <strong name="2.3" id="2.3"> अयोग्य | <p class="HindiText">2.3. <strong name="2.3" id="2.3"> अयोग्य उपदेश का निषेध</p> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 654</span><p class="SanskritText"> यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावद्यलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ।654।</p> | |||
<p class="HindiText">= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष | <p class="HindiText">= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष क्रियाओं में ही होते हैं, किंतु जहाँ पर पाप की थोड़ी-सी भी संभावना है वहाँ पर कभी भी आदेश की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।</p> | ||
<p class="HindiText">2.4. <strong name="2.4" id="2.4"> ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है</p> | <p class="HindiText">2.4. <strong name="2.4" id="2.4"> ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/18</span><p class="SanskritText"> दृष्टप्रयोजनपरित्यागादुन्मार्ग निवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थं प्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्ययते।</p> | |||
<p class="HindiText">= लौकिक ख्याति लाभ आदि | <p class="HindiText">= लौकिक ख्याति लाभ आदि फल की आकांक्षा के बिना, उन्मार्ग की निवृत्ति के लिए तथा संदेह की व्यावृत्ति और अपूर्व अर्थात् अपरिचित पदार्थ के प्रकाशन के लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।</p> | ||
<p class="HindiText">( <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 153/4</span>)</p> | <p class="HindiText">( <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 153/4</span>)</p> | ||
<p class="HindiText">3. <strong name="3" id="3">वक्ता व श्रोता विचार</p> | <p class="HindiText">3. <strong name="3" id="3">वक्ता व श्रोता विचार</p> | ||
<p class="HindiText">3.1. <strong name="3.1" id="3.1"> श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है</p> | <p class="HindiText">3.1. <strong name="3.1" id="3.1"> श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है</p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 483</span><p class="PrakritText"> आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483। </p> | |||
<p class="HindiText">= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे | <p class="HindiText">= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144</span><p class="HindiText"> विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है।</p> | |||
<p class="HindiText">(देखें [[ आगम#3 | आगम - 3]]/4/3)</p> | <p class="HindiText">(देखें [[ आगम#3 | आगम - 3]]/4/3)</p> | ||
<span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 100</span><p class="SanskritText"> हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्। हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।</p> | |||
<p class="HindiText">= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।</p> | <p class="HindiText">= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।</p> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/19</span> <p class="SanskritText">ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति। नैवम्। परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात्; तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात्; न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम्-"रूसउ वा परो मा वा, विंस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया॥"</p> | |||
<p class="HindiText">= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेंद्र भगवान् के वचनों में रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देने का परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाव वाले महात्मा पुरुष किसी पुरुष की रुचि और अरुचि को न देखकर हित का उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरे के उपकार को ही अपना उपकार समझते हैं। हित का उपदेश देने के समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियों ने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेश को विषरूप समझे, परंतु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेंद्र भगवान् के वचनों में रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देने का परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाव वाले महात्मा पुरुष किसी पुरुष की रुचि और अरुचि को न देखकर हित का उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरे के उपकार को ही अपना उपकार समझते हैं। हित का उपदेश देने के समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियों ने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेश को विषरूप समझे, परंतु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"</p> | ||
<p class="HindiText">3.2. <strong name="3.2" id="3.2"> उपदेश | <p class="HindiText">3.2. <strong name="3.2" id="3.2"> उपदेश श्रोता की योग्यता व रुचि के अनुसार देना चाहिए</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,69/311/1</span><p class="SanskritText"> द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।</p> | |||
<p class="HindiText">= प्रश्न | <p class="HindiText">= प्रश्न सूत्र में दो बार `अस्ति' शब्द का ग्रहण निरर्थक है? उत्तर-नहीं; क्योंकि विस्तार से समझने की रुचि वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार `अस्ति' पद का ग्रहण किया है। प्रश्न-तो इस सूत्र में संक्षेप से समझने की रुचि रखने वाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संक्षेप से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों का अनुग्रह विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों के अनुग्रह का अविनाभावी है। अर्थात् विस्तार से कथन कर देनेपर संक्षेप रुचि शिष्यों का काम चल ही जाता है।</p> | ||
<p class="HindiText">( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर)</p> | <p class="HindiText">(<span class="GRef"> धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर</span>)</p> | ||
<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 1/137</span><p class="SanskritText"> इति धर्मकथांगत्वादर्थाक्षिप्तां चतुष्टयीम्। कथा यथार्हं श्रोतृभ्य; कथकः प्रतिपादयेत् ।137।</p> <p class="HindiText">इस प्रकार धर्मकथा के अंगभूत आक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओं को विचारकर श्रोता की योग्यतानुसार वक्ता को कथन करना चाहिए।</p> | |||
<span class="GRef">न्यायदीपिका अधिकार 3/$36</span><p class="SanskritText"> वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पंचेति यथायोगप्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनंदिभट्टारकैः-"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधतः।</p> | |||
<p class="HindiText">= वीतराग | <p class="HindiText">= वीतराग कथा में तो शिष्यों के आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते हैं; प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनय ये चार भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते हैं। इस तरह यथायोग्य रूप से प्रयोग की यह व्यवस्था है। इसी बात को श्री कुमारनंदि भट्टारक ने वादन्याय में कहा है:</p> | ||
<p class="HindiText">प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।</p> | ||
<p class="HindiText">3.3. <strong name="3.3" id="3.3">ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए</p> | <p class="HindiText">3.3. <strong name="3.3" id="3.3">ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए</p> | ||
<span class="GRef">कुरल काव्य परिच्छेद 72/4,9,10</span><p class="SanskritText"> ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्ख्ये च दृष्टिमाधाय वक्तव्यं मूर्खमंडले ।4। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्वावधार्यताम्। विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ।9। विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषणं विद्यते तथा। मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।10।</p> | |||
<p class="HindiText">= बुद्धिमान् और विद्वान् | <p class="HindiText">= बुद्धिमान् और विद्वान् लोगों की सभा में ही ज्ञान और विद्वत्ता की चर्चा करो, किंतु मूर्खों को उनकी मूर्खता का ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।4। ऐ वक्तृता से विद्वानों को प्रसन्न करने की इच्छावाले लोगो! देखो, कभी भूलकर भी मूर्खों के सामने व्याख्यान न देना ।9। अपने से मतभेद रखनेवाले व्यक्तियों के समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृत को मलिन स्थानपर डाल देना ।10।</p> | ||
< | <span class="GRef">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 58</span><p class="SanskritText"> अज्ञापितं न जानंति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।58।</p> | ||
<p class="HindiText">= स्वात्मानुभवमग्न अंतरात्मा विचारता है, कि जैसे ये मूर्ख अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं। इस लिए उन मूढ़ पुरुषोंको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है-निष्फल है। प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम्। निर्लूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= प्रायः करके | <p class="HindiText">= प्रायः करके सन्मार्ग का उपदेश मूर्खजनों के लिए कोप का कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्ति को यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है।</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,1/62-63/68</span><p class="PrakritText"> सेलघण-भग्गघड-अहिचालणि-महिसाविजाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ।62। धद-गारवपडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण-घुम्मंतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव वणे मूढो ।63।</p> | |||
<p class="HindiText">= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान | <p class="HindiText">= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओं को (देखो `श्रोता') जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़ रसगारव के आधीन होकर विषयों की लोलुपतारूपी विष के वश से मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।62-63।</p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 12/4,2,13,96/4/414</span><p class="SanskritText"> बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्। नेत्रविहीने भर्त्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार | <p class="HindiText">= जिस प्रकार पति के अंधे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुंदरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होने पर पुरुषों का वक्तापना भी व्यर्थ है ।4।</p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,1/70/1</span> <p class="PrakritText">इदि वयणादी जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसार-भयबद्धणमिदि चिंतिऊण......धरसेणभयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढक्तां।</p> | ||
<p class="HindiText">= `यथाच्छंद | <p class="HindiText">= `यथाच्छंद श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय का ही बढ़ानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारक ने उन आये हुए दो साधुओं की फिरसे परीक्षा लेने का निश्चय किया।</p> | ||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,11-12/$138/171/4</span> <p class="PrakritText">`सुण' यद (इदि) सिस्ससंभालणवयणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स वक्खाणं णिरत्थयमिदि जाणावणट्ठं भणिदं।</p> | |||
<p class="HindiText">= `नासमझ | <p class="HindiText">= `नासमझ शिष्यों को व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलाने के लिए ही सूत्र में `सुनो' इस पद का ग्रहण किया गया है।</p> | ||
<span class="GRef">अमितगति श्रावकाचार अधिकार 8/25 </span><p class="SanskritText">अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे। यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ।25।</p> | |||
<p class="HindiText">= अयोग्य | <p class="HindiText">= अयोग्य पुरुष के जिनेंद्र का वचन अनर्थ निमित्त होता है, इसलिए पंडितों को योग्य पुरुषों की खोज करनी चाहिए।</p> | ||
<span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/13,17,20</span> <p class="SanskritText">बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मंदस्यार्थसंविदे। भवति ह्यंधपाषाणः केनोपायेन कांचनम् ।13। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं, कारुण्यात्प्रतिपादयंति सुधियो सदा शर्मदम्। संदिग्धं पुनरंतमेत्य विनयात्पृच्छंतमिच्छावशांन व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमतो व्युत्पत्त्यनर्थित्वतः ।17। यो यद्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्वेष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेद्धामनिधिं हि दोपैः कः पूरयेद्वांबुनिधिं पयोभिः ।20।</p> | |||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्ति को बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्व का समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अंधपाषाण भी किसी उपाय से स्वर्ण हो सकता है ।13। अव्युत्पन्न श्रोताओं के अभिप्राय को जानकर आचार्य करुणा बुद्धि से उन्हें धर्म के फल का लालच देकर भी कल्याणकारी धर्म का उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति संदिग्ध हैं वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछें तो उन्हें भी धर्म का उपदेश विशेष रूप से देते हैं। किंतु जो व्यक्ति व्युत्पन्न हैं, परंतु विपरीत व दुष्टबुद्धि के कारण विपरीत तत्त्वों में दुराग्रह करते हैं, उनको धर्म का उपदेश नहीं करते हैं ।17। जो जिस विषय को जानता है अथवा जो जिस वस्तु को नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तु का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्य को दीपक से प्रकाशित करे अथवा समुद्र को जल से भरे ।20।</p> | ||
<p class="HindiText">3.4. <strong name="3.4" id="3.4"> कैसे | <p class="HindiText">3.4. <strong name="3.4" id="3.4"> कैसे जीव को कैसा उपदेश देना चाहिए</p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 655,686</span> <p class="PrakritText">आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स। पावोग्गा होंति कहा ण कहा विक्खेवणो जोग्गा ।655। भत्तादीणं भत्ती गोदत्थेहिं विण तत्थ कायव्वा।.... ।686।</p> | |||
<p class="HindiText">= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे | <p class="HindiText">= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथा के चार भेद हैं। इन कथाओं में आक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ क्षपक को सुनाना योग्य हैं। उसे विक्षेपणी कथा का निरूपण करना हितकर न होगा ।655। आगमार्थ को जाननेवाले मुनियों को क्षपक के पास भोजन वगैरह कथाओं का वर्णन करना योग्य नहीं ।686।</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,2/106/3</span> <p class="PrakritText">एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगाहिद ससमय-सब्भावो पर-समय संकहाहि वाउलिदचित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तूण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स....जिणवयणणिव्विदिगिच्छस्स भोगरइविरदस्स तवसीलणियमजुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परुवयंतस्स तदा कहा होदि। तम्हा पुरिसंतरं पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा।</p> | |||
<p class="HindiText">= इन | <p class="HindiText">= इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचन को नहीं जानता, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है, और परसमय की प्रतिपादन करनेवाली कथाओं के सुनने से व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, इसलिए उसे विक्षेपणी को छोड़कर शेष तीन कथाओं का उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को भली-भाँति समझ लिया है, जो जिन-शासन में अनुरक्त है, जिन-वचन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है, और जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूप से ज्ञान कराने वाले के लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषों को प्राप्त करके ही साधुओं को उपदेश देना चाहिए।</p> | ||
< | <span class="GRef">मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 8/439/16</span> <p class="HindiText">"आपकै व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत्, प्रवर्त्तै, पर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तौ व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्त्तै।"</p> | ||
<p class="HindiText">3.5. <strong name="3.5" id="3.5"> किस | <p class="HindiText">3.5. <strong name="3.5" id="3.5"> किस अवसर पर कैसा उपदेश करना चाहिए</p> | ||
<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 1/135-136</span> <p class="SanskritText">आक्षेपिणीं कथां कुर्यात्वप्राज्ञः स्वमतसंग्रहे। विक्षेपिणीं कथां तज्ज्ञः कुर्याद्दुर्मतनिग्रहे ।135। संवेदिनीं कथां पुण्यफलसंपत्प्रपंचने। निर्वेदिनीं कथां कुर्याद्वैराग्यजननं प्रति ।136।</p> | |||
<p class="HindiText">= बुद्धिमान | <p class="HindiText">= बुद्धिमान वक्ता को चाहिए कि वह अपने मत की स्थापना करते समय आक्षेपणी कथा कहे, मिथ्यात्वमत का खंडन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्य के फलस्वरूप विभूति आदि का वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादन के समय निर्वेदिनी कथा कहे।</p> | ||
<p class="HindiText">4. <strong name="4" id="4"> उपदेश | <p class="HindiText">4. <strong name="4" id="4"> उपदेश प्रवृत्ति का माहात्म्य</p> | ||
<p class="HindiText">4.1. <strong name="4.1" id="4.1"> हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है</p> | <p class="HindiText">4.1. <strong name="4.1" id="4.1"> हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है</p> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/22</span><p class="SanskritText"> न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः।</p> | |||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= हित का उपदेश देने के बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है।</p> | ||
<p class="HindiText">4.2. <strong name="4.2" id="4.2"> उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है</p> | <p class="HindiText">4.2. <strong name="4.2" id="4.2"> उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है</p> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/25 में उद्धृत</span>-<p class="SanskritText">"उवाच च वाचकमुख्यः"-"न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकांततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकांततो भवति।"</p> | |||
<p class="HindiText">= उमास्वामी | <p class="HindiText">= उमास्वामी वाचकमुख्य ने भी कहा है-सभी उपदेश सुनने वालों को पुण्य नहीं होता है परंतु अनुग्रह बुद्धि से हित का उपदेश करने वाले को निश्चय ही पुण्य होता है।</p> | ||
<p class="HindiText">4.3. <strong name="4.3" id"4.3"> अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है </p> | <p class="HindiText">4.3. <strong name="4.3" id"4.3"> अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है </p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /111/258/9</span><p class="SanskritText"> श्रेयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः, इत्याज्ञा सर्वविदां सा परिपालिता भवतीति शेषाः।</p> | |||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= जिनमत पर प्रीति रखनेवाले मोक्षेच्छु मुनियों को नियम से हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वर की आज्ञा है। उसका पालन धर्मोपदेश देने से होता है। (और भी देखें [[ उपकार#9 | उपकार - 9]])</p> | ||
<p class="HindiText">4. <strong name="4.4" id="4.4">उपदेशका फल</p> | <p class="HindiText">4. <strong name="4.4" id="4.4">उपदेशका फल</p> | ||
<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 111</span><p class=" PrakritText "> आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थस्स ।111।</p> | |||
<p class="HindiText">= स्वाध्याय | <p class="HindiText">= स्वाध्याय भावना में आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणों को प्राप्त कर लेते हैं। - आत्म पर समुद्धार, जिनेश्वर की आज्ञा का पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचन में भक्ति, तथा तीर्थ की अव्युच्छित्ति।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30/3</span> <p class="SanskritText">सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयासः।</p> | |||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= सज्जनों का प्रयास सब जीवों का उपकार करने का है।</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,5,50/289/3</span><p class="SanskritText"> किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।</p> | |||
<p class="HindiText">= प्रश्न-इसका ( | <p class="HindiText">= प्रश्न-इसका (प्रवचनीय का) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते हैं? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणश्रेणी रूप से होनेवाली कर्म निर्जरा का कारण है।</p> | ||
<p class="HindiText">4.5. <strong name="4.5" id="4.5"> | <p class="HindiText">4.5. <strong name="4.5" id="4.5"> उपदेश प्राप्ति का प्रयोजन</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 88</span> <p class="PrakritText">जो मोह रागदोसे णिहणदि जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।88।</p> | |||
<p class="HindiText">= जो | <p class="HindiText">= जो जिनेंद्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह रागद्वेष को हनता है वह अल्पकाल में सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है।</p> | ||
<span class="GRef">भावपाहुड़ / पं. जयचंद 165/पृष्ठ 275/22</span> <p class="HindiText">वीतराग उपदेश की प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करै, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध-अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणामकूं तौ हित जानै, ताका फल संसार निवृत्ति ताकूं जानै, अर अशुद्ध भावका फल संसार है, ताकूं जानै, तब शुद्ध भावका अंगीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करै।</p> | |||
Revision as of 17:36, 23 January 2023
सिद्धांतकोष से
मोक्षमार्ग का उपदेश परमार्थ से सबसे बड़ा उपकार है, परंतु इसका विषय अत्यंत गुप्त होने के कारण केवल पात्र को ही दिया जाना योग्य है, अपात्र को नहीं। उपदेश की पात्रता निरभिमानता विनय व विचारशीलता में निहित है। कठोरता पूर्वक भी दिया गया परमार्थोपदेश पात्र के हित के लिए ही होता है। अतः उपदेश करना कर्तव्य है, परंतु अपनी साधना में भंग न पड़े, इतनी सीमा तक ही। उपदेश भी पहिले मुनिधर्म का और पीछे श्रावक धर्म का दिया जाता है ऐसा क्रम है।
1.2. मिथ्योपदेश का लक्षण
1.3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के उपदेशों का निर्देश
• सल्लेखना के समय देने योग्य उपदेश - देखें सल्लेखना - 5.11
• आदेश व उपदेश में अंतर - देखें आदेशका लक्षण
• चारों अनुयोगों के उपदेशों की पद्धति में अंतर - देखें अनुयोग - 1
• आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय - देखें पद्धति
• उपदेश का रहस्य समझने का उपाय - देखें आगम - 3
2.1. परमार्थ सत्य का उपदेश असंभव है
2.2. पहिले मुनि धर्म का और पीछे श्रावक धर्म का उपदेश दिया जाता है
2.3. अयोग्य उपदेश देने का निषेध
2.4. ख्याति लाभ आदि की भावनाओं से निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है
• वक्ता व श्रोता का स्वरूप - देखें वह वह नाम
• गुरु शिष्य संबंध - देखें गुरु - 2
• मिथ्यादृष्टि के लिए धर्मोपदेश देने का अधिकार अनधिकार संबंधी - देखें वक्ता
• सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के उपदेश का सम्यक्त्वोत्पत्ति में स्थान - देखें लब्धि - 3
• वक्ता को आगमार्थ के विषयमें अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए - देखें आगम - 5.9
• केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर उपदेश नहीं देते - देखें वक्ता 3
3.1. श्रोता की रुचि-अरुचि से निरपेक्ष सत्य का उपदेश देना कर्तव्य है
• हित-अहित व मिष्ट-कटु संभाषण - देखें सत्य - 2
3.2. उपदेश श्रोता की योग्यता व रुचि के अनुसार देना चाहिए
• उपदेश ग्रहण में विनय का महत्व - देखें विनय - 2
• ज्ञान के योग्य पात्र-अपात्र - देखें श्रोता
3.3. ज्ञान अपात्र को नहीं देना चाहिए
• कथंचित् अपात्र को भी उपदेश देने की आज्ञा - देखें उपदेश - 3.1 में ( स्याद्वादमंजरी श्लोक )
• अपात्र को उपदेश के निषेध का कारण - देखें उपदेश - 3.4
3.4. कैसे जीव को कैसा उपदेश देना चाहिए
3.5. किस अवसर पर कैसा उपदेश देना चाहिए
• वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्महानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले - देखें वाद
• चारों अनुयोगों के उपदेश का क्रम - देखें स्वाध्याय - 1
4. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
4.1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है
4.2. उपदेश से श्रोता का हित हो न हो पर वक्ता का हित तो होता ही है
4.3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है
4.4. उपदेश का फल
4.5. उपदेश प्राप्ति का प्रयोजन
1. उपदेश सामान्य निर्देश
1.1. धर्मोपदेशका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/25/443/5
धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशम्।
= धर्मकथा आदि का अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19); ( चारित्रसार पृष्ठ 153/5); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716)
1.2. मिथ्योपदेशका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/26/366/7
अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य न्यथाप्रवर्त्तनमत्सिंधापनं वा मिथ्योपदेशः।
= अभ्युदय और मोक्ष की कारण भूत क्रियाओं में किसी दूसरे को विपरीत मार्ग से लगा देना, या मिथ्या वचनों-द्वारा दूसरों को ठगना मिथ्योपदेश है।
1.3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकार के उपदेशों का निर्देश
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 16,60
परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊणसदव्वे कुणहरई विरइ इयरम्मि ।16। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो वि ।60।
= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 653
न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ।653।
= निश्चय करके सत्पात्रों को दान देने के विषय में और अर्हंतों की पूजा के विषय में न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।
2. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश
2.1. परमार्थ सत्य का उपदेश असंभव है
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 19,59
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।19। यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं तदहं पुनः। ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।59।
= मैं उपध्यायों आदिकों से जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादि को कुछ जो प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्योंकि, मैं वास्तव में इन सभी वचन विकल्पों से अग्राह्य हूँ ।19। जिस विकल्पाधिरूढ़ आत्म स्वरूप को अथवा देहादिक को समझाने-बुझाने की मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानंदमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मैं हूँ, वह भी दूसरे जीवों के उपदेश-द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है। इसलिए दूसरे जीवों को मैं क्या समझाऊँ ।59।
2.2. पहले मुनिधर्म का और पीछे गृहस्थधर्म का उपदेश दिया जाता है
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 17-19
बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ।17। यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्यप्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।18। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।19।
= जो जीव बारंबार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्ति को कदाचित् ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतु से समझावे अर्थात् कथन करे ।17। जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्म को नहीं कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशक को भगवत् के सिद्धांत में दंड देने का स्थान प्रदर्शित किया है ।18। जिस कारण से उस दुर्बुद्धि के क्रमभंग कथन रूप उपदेश करने से अत्यंत दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छ स्थान में संतुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है ।19।
2.3. अयोग्य उपदेश का निषेध
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 654
यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावद्यलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ।654।
= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष क्रियाओं में ही होते हैं, किंतु जहाँ पर पाप की थोड़ी-सी भी संभावना है वहाँ पर कभी भी आदेश की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।
2.4. ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है
राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/18
दृष्टप्रयोजनपरित्यागादुन्मार्ग निवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थं प्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्ययते।
= लौकिक ख्याति लाभ आदि फल की आकांक्षा के बिना, उन्मार्ग की निवृत्ति के लिए तथा संदेह की व्यावृत्ति और अपूर्व अर्थात् अपरिचित पदार्थ के प्रकाशन के लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।
( चारित्रसार पृष्ठ 153/4)
3. वक्ता व श्रोता विचार
3.1. श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 483
आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483।
= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144
विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है।
(देखें आगम - 3/4/3)
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 100
हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्। हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।
= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/19
ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति। नैवम्। परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात्; तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात्; न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम्-"रूसउ वा परो मा वा, विंस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया॥"
= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेंद्र भगवान् के वचनों में रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देने का परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाव वाले महात्मा पुरुष किसी पुरुष की रुचि और अरुचि को न देखकर हित का उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरे के उपकार को ही अपना उपकार समझते हैं। हित का उपदेश देने के समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियों ने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेश को विषरूप समझे, परंतु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"
3.2. उपदेश श्रोता की योग्यता व रुचि के अनुसार देना चाहिए
धवला पुस्तक 1/1,1,69/311/1
द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।
= प्रश्न सूत्र में दो बार `अस्ति' शब्द का ग्रहण निरर्थक है? उत्तर-नहीं; क्योंकि विस्तार से समझने की रुचि वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार `अस्ति' पद का ग्रहण किया है। प्रश्न-तो इस सूत्र में संक्षेप से समझने की रुचि रखने वाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संक्षेप से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों का अनुग्रह विस्तार से समझने की रुचि रखनेवाले जीवों के अनुग्रह का अविनाभावी है। अर्थात् विस्तार से कथन कर देनेपर संक्षेप रुचि शिष्यों का काम चल ही जाता है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर)
महापुराण सर्ग संख्या 1/137
इति धर्मकथांगत्वादर्थाक्षिप्तां चतुष्टयीम्। कथा यथार्हं श्रोतृभ्य; कथकः प्रतिपादयेत् ।137।
इस प्रकार धर्मकथा के अंगभूत आक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओं को विचारकर श्रोता की योग्यतानुसार वक्ता को कथन करना चाहिए।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$36
वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पंचेति यथायोगप्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनंदिभट्टारकैः-"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधतः।
= वीतराग कथा में तो शिष्यों के आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते हैं; प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनय ये चार भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते हैं। इस तरह यथायोग्य रूप से प्रयोग की यह व्यवस्था है। इसी बात को श्री कुमारनंदि भट्टारक ने वादन्याय में कहा है:
प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।
3.3. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए
कुरल काव्य परिच्छेद 72/4,9,10
ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्ख्ये च दृष्टिमाधाय वक्तव्यं मूर्खमंडले ।4। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्वावधार्यताम्। विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ।9। विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषणं विद्यते तथा। मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।10।
= बुद्धिमान् और विद्वान् लोगों की सभा में ही ज्ञान और विद्वत्ता की चर्चा करो, किंतु मूर्खों को उनकी मूर्खता का ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।4। ऐ वक्तृता से विद्वानों को प्रसन्न करने की इच्छावाले लोगो! देखो, कभी भूलकर भी मूर्खों के सामने व्याख्यान न देना ।9। अपने से मतभेद रखनेवाले व्यक्तियों के समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृत को मलिन स्थानपर डाल देना ।10।
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 58
अज्ञापितं न जानंति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।58।
= स्वात्मानुभवमग्न अंतरात्मा विचारता है, कि जैसे ये मूर्ख अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं। इस लिए उन मूढ़ पुरुषोंको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है-निष्फल है। प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम्। निर्लूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम्।
= प्रायः करके सन्मार्ग का उपदेश मूर्खजनों के लिए कोप का कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्ति को यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/62-63/68
सेलघण-भग्गघड-अहिचालणि-महिसाविजाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ।62। धद-गारवपडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण-घुम्मंतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव वणे मूढो ।63।
= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओं को (देखो `श्रोता') जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़ रसगारव के आधीन होकर विषयों की लोलुपतारूपी विष के वश से मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।62-63।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,96/4/414
बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्। नेत्रविहीने भर्त्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4।
= जिस प्रकार पति के अंधे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुंदरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोता के मूर्ख होने पर पुरुषों का वक्तापना भी व्यर्थ है ।4।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/70/1
इदि वयणादी जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसार-भयबद्धणमिदि चिंतिऊण......धरसेणभयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढक्तां।
= `यथाच्छंद श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय का ही बढ़ानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारक ने उन आये हुए दो साधुओं की फिरसे परीक्षा लेने का निश्चय किया।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,11-12/$138/171/4
`सुण' यद (इदि) सिस्ससंभालणवयणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स वक्खाणं णिरत्थयमिदि जाणावणट्ठं भणिदं।
= `नासमझ शिष्यों को व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलाने के लिए ही सूत्र में `सुनो' इस पद का ग्रहण किया गया है।
अमितगति श्रावकाचार अधिकार 8/25
अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे। यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ।25।
= अयोग्य पुरुष के जिनेंद्र का वचन अनर्थ निमित्त होता है, इसलिए पंडितों को योग्य पुरुषों की खोज करनी चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/13,17,20
बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मंदस्यार्थसंविदे। भवति ह्यंधपाषाणः केनोपायेन कांचनम् ।13। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं, कारुण्यात्प्रतिपादयंति सुधियो सदा शर्मदम्। संदिग्धं पुनरंतमेत्य विनयात्पृच्छंतमिच्छावशांन व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमतो व्युत्पत्त्यनर्थित्वतः ।17। यो यद्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्वेष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेद्धामनिधिं हि दोपैः कः पूरयेद्वांबुनिधिं पयोभिः ।20।
= मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्ति को बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्व का समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अंधपाषाण भी किसी उपाय से स्वर्ण हो सकता है ।13। अव्युत्पन्न श्रोताओं के अभिप्राय को जानकर आचार्य करुणा बुद्धि से उन्हें धर्म के फल का लालच देकर भी कल्याणकारी धर्म का उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति संदिग्ध हैं वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछें तो उन्हें भी धर्म का उपदेश विशेष रूप से देते हैं। किंतु जो व्यक्ति व्युत्पन्न हैं, परंतु विपरीत व दुष्टबुद्धि के कारण विपरीत तत्त्वों में दुराग्रह करते हैं, उनको धर्म का उपदेश नहीं करते हैं ।17। जो जिस विषय को जानता है अथवा जो जिस वस्तु को नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तु का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्य को दीपक से प्रकाशित करे अथवा समुद्र को जल से भरे ।20।
3.4. कैसे जीव को कैसा उपदेश देना चाहिए
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 655,686
आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स। पावोग्गा होंति कहा ण कहा विक्खेवणो जोग्गा ।655। भत्तादीणं भत्ती गोदत्थेहिं विण तत्थ कायव्वा।.... ।686।
= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथा के चार भेद हैं। इन कथाओं में आक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ क्षपक को सुनाना योग्य हैं। उसे विक्षेपणी कथा का निरूपण करना हितकर न होगा ।655। आगमार्थ को जाननेवाले मुनियों को क्षपक के पास भोजन वगैरह कथाओं का वर्णन करना योग्य नहीं ।686।
धवला पुस्तक 1/1,1,2/106/3
एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगाहिद ससमय-सब्भावो पर-समय संकहाहि वाउलिदचित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तूण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स....जिणवयणणिव्विदिगिच्छस्स भोगरइविरदस्स तवसीलणियमजुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परुवयंतस्स तदा कहा होदि। तम्हा पुरिसंतरं पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा।
= इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचन को नहीं जानता, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है, और परसमय की प्रतिपादन करनेवाली कथाओं के सुनने से व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, इसलिए उसे विक्षेपणी को छोड़कर शेष तीन कथाओं का उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को भली-भाँति समझ लिया है, जो जिन-शासन में अनुरक्त है, जिन-वचन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है, और जो तप, शील और नियम से युक्त है, ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूप से ज्ञान कराने वाले के लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषों को प्राप्त करके ही साधुओं को उपदेश देना चाहिए।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 8/439/16
"आपकै व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत्, प्रवर्त्तै, पर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तौ व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्त्तै।"
3.5. किस अवसर पर कैसा उपदेश करना चाहिए
महापुराण सर्ग संख्या 1/135-136
आक्षेपिणीं कथां कुर्यात्वप्राज्ञः स्वमतसंग्रहे। विक्षेपिणीं कथां तज्ज्ञः कुर्याद्दुर्मतनिग्रहे ।135। संवेदिनीं कथां पुण्यफलसंपत्प्रपंचने। निर्वेदिनीं कथां कुर्याद्वैराग्यजननं प्रति ।136।
= बुद्धिमान वक्ता को चाहिए कि वह अपने मत की स्थापना करते समय आक्षेपणी कथा कहे, मिथ्यात्वमत का खंडन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्य के फलस्वरूप विभूति आदि का वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादन के समय निर्वेदिनी कथा कहे।
4. उपदेश प्रवृत्ति का माहात्म्य
4.1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/22
न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः।
= हित का उपदेश देने के बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है।
4.2. उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/25 में उद्धृत-
"उवाच च वाचकमुख्यः"-"न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकांततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकांततो भवति।"
= उमास्वामी वाचकमुख्य ने भी कहा है-सभी उपदेश सुनने वालों को पुण्य नहीं होता है परंतु अनुग्रह बुद्धि से हित का उपदेश करने वाले को निश्चय ही पुण्य होता है।
4.3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /111/258/9
श्रेयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः, इत्याज्ञा सर्वविदां सा परिपालिता भवतीति शेषाः।
= जिनमत पर प्रीति रखनेवाले मोक्षेच्छु मुनियों को नियम से हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वर की आज्ञा है। उसका पालन धर्मोपदेश देने से होता है। (और भी देखें उपकार - 9)
4. उपदेशका फल
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 111
आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थस्स ।111।
= स्वाध्याय भावना में आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणों को प्राप्त कर लेते हैं। - आत्म पर समुद्धार, जिनेश्वर की आज्ञा का पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचन में भक्ति, तथा तीर्थ की अव्युच्छित्ति।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30/3
सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयासः।
= सज्जनों का प्रयास सब जीवों का उपकार करने का है।
धवला पुस्तक 13/5,5,50/289/3
किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।
= प्रश्न-इसका (प्रवचनीय का) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते हैं? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणश्रेणी रूप से होनेवाली कर्म निर्जरा का कारण है।
4.5. उपदेश प्राप्ति का प्रयोजन
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 88
जो मोह रागदोसे णिहणदि जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।88।
= जो जिनेंद्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह रागद्वेष को हनता है वह अल्पकाल में सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है।
भावपाहुड़ / पं. जयचंद 165/पृष्ठ 275/22
वीतराग उपदेश की प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करै, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध-अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणामकूं तौ हित जानै, ताका फल संसार निवृत्ति ताकूं जानै, अर अशुद्ध भावका फल संसार है, ताकूं जानै, तब शुद्ध भावका अंगीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करै।
पुराणकोष से
स्वाध्याय तप का एक भेद । देखें स्वाध्याय