विष: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
< | |||
<p class="HindiText"><b>1. विष वाणिज्य कर्म</b></p> | |||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/5/21-23 की टीका</span>-<span class="SanskritText">खरकर्म खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं। ...तत्र ...विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रय:। ।</span><p class="HindiText"> = प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले व्यापार को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं। वे पंद्रह प्रकार के हैं-<br> | |||
<p class="HindiText">(उनमें से एक) विष का प्राणिघातक व्यापार करना '''विषवाणिज्य''' है। </p> | |||
<p class="HindiText">–देखें [[ सावद्य#5 | सावद्य - 5]]।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>2. निर्विष ऋद्धि</b></p> | |||
<p class="HindiText">दृष्टिविष रस ऋद्धि का लक्षण</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/९</span><p class=" PrakritText "> एवं दिट्ठअमियाणं पि जाणिदूण लक्खणं वत्तव्वं।</p> <p class="HindiText"> = इसी प्रकार दृष्टि अमृतों का भी लक्षण जानकर कहना चाहिए। (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि `नीरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, व क्रिया करता है तो नीरोग करता है, तथा प्रसन्नतापूर्वक अवलोकन से अन्य भी शुभ कार्य को करने वाला '''दृष्टिअमृत''' कहलाता है)।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/७</span><p class="SanskritText">दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात्। तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि। रुट्ठो जदि जोएदि चिंतेदि किरियं करेदि वा `मारेमि' त्ति तो मारेदि, अण्णं पि असुहकम्मं संरंभपुव्वावलोयणेण कुणमाणोदिट्ठविसो णाम।</p><p class="HindiText">= दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योंकि उन दोनों में दृष्टि शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। उसकी सहचरता से क्रिया का भी ग्रहण है। रुष्ट होकर वह यदि `मारता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है; तथा क्रोध पूर्वक अवलोकन से अन्य भी अशुभ कार्य को करनेवाला '''(अशुभ) दृष्टिविष''' कहलाता है।</p> | |||
<p class="HindiText">–देखें [[ ऋद्धि#1 | ऋद्धि - 1]]। | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 27: | Line 37: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: व]] | [[Category: व]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Revision as of 10:27, 31 January 2023
सिद्धांतकोष से
1. विष वाणिज्य कर्म
सागार धर्मामृत/5/21-23 की टीका-खरकर्म खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं। ...तत्र ...विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रय:। ।
= प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले व्यापार को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं। वे पंद्रह प्रकार के हैं-
(उनमें से एक) विष का प्राणिघातक व्यापार करना विषवाणिज्य है।
–देखें सावद्य - 5।
2. निर्विष ऋद्धि
दृष्टिविष रस ऋद्धि का लक्षण
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/९
एवं दिट्ठअमियाणं पि जाणिदूण लक्खणं वत्तव्वं।
= इसी प्रकार दृष्टि अमृतों का भी लक्षण जानकर कहना चाहिए। (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि `नीरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, व क्रिया करता है तो नीरोग करता है, तथा प्रसन्नतापूर्वक अवलोकन से अन्य भी शुभ कार्य को करने वाला दृष्टिअमृत कहलाता है)।
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२१/८६/७
दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात्। तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि। रुट्ठो जदि जोएदि चिंतेदि किरियं करेदि वा `मारेमि' त्ति तो मारेदि, अण्णं पि असुहकम्मं संरंभपुव्वावलोयणेण कुणमाणोदिट्ठविसो णाम।
= दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योंकि उन दोनों में दृष्टि शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। उसकी सहचरता से क्रिया का भी ग्रहण है। रुष्ट होकर वह यदि `मारता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है; तथा क्रोध पूर्वक अवलोकन से अन्य भी अशुभ कार्य को करनेवाला (अशुभ) दृष्टिविष कहलाता है।
–देखें ऋद्धि - 1। पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ
पुराणकोष से
एक प्रकार के मेघ । अवसर्पिणी काल के अंत में सरस, विरस, तीक्ष्ण, रूक्ष, उष्ण और विष नाम के मेघ क्रमश: सात-सात दिन तक सारे पानी की बरसा करते हैं । महापुराण 76.452-453