कर्म प्रकृति: Difference between revisions
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Revision as of 13:58, 14 February 2023
- कर्म प्रकृति
- श्रुतज्ञान के ‘दृष्टिप्रवाद’ नामक बारहवें अंग के अंतर्गत ‘अग्रायणी’ नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पाँचवें वस्तु अधिकार से संबद्ध चतुर्थ प्राभृत का नाम ‘महाकर्म प्रकृति’ है (देखें श्रुतज्ञान - III.1)। आचार्य परंपरा द्वारा इसका ही कोई अंश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आचार्य धरसेन से इसी का अध्ययन करके आचार्य भूतबली ने ‘षट्खंडागम’ की रचना की थी ।
- इसी प्राभृत (कर्म प्रकृति) के उच्छिन्न अर्थ की रक्षा करने के लिये श्वेतांबराचार्य शिवशर्म सूरि (वि.500) ने ‘कर्म प्रकृति’ के नाम से ही एक दूसरे ग्रंथ की रचना की थी, जिसका अपर नाम ‘कर्म प्रकृति संग्रहिणी’ है।293। इस ग्रंथ में कर्मों के बंध उदय सत्त्व आदि दश करणों का विवेचन किया गया है।295। इसकी अनेकों गाथायें षट्खंडागम तथा कषाय पाहुड़ की टीका धवला तथा जयधवलायें और यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्रों में पाई जाती हैं।305। आचार्य मलयगिरि कृत संस्कृत टीका के अतिरिक्त इस पर एक प्राचीन प्राकृत चूर्णि भी उपलब्ध है।293। (जैन साहित्य इतिहास/1/पृष्ठ)।
- श्रुतज्ञान के ‘दृष्टिप्रवाद’ नामक बारहवें अंग के अंतर्गत ‘अग्रायणी’ नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पाँचवें वस्तु अधिकार से संबद्ध चतुर्थ प्राभृत का नाम ‘महाकर्म प्रकृति’ है (देखें श्रुतज्ञान - III.1)। आचार्य परंपरा द्वारा इसका ही कोई अंश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आचार्य धरसेन से इसी का अध्ययन करके आचार्य भूतबली ने ‘षट्खंडागम’ की रचना की थी ।